बिछुड़न
- धर्मेंद्र कुमार
छोटका बाबा के दरवाजे़ पर गुलबिया तब से थी जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था। चौड़ा शरीर, बड़ा-सा मुँह, मुँह में जाब और लंबी पूँछ उसकी विशेषता थी। गहरा काला रंग, बोलती आँखें, लम्बी गर्दन, बड़े-बड़े कान, हरदम पगुराते रहने की आदत के चलते वह एक शानदार भैंस थी। एक ऐसी भैंस जो लगभग बीस सालों से एक परिवार का पालन-पोषण कर रही थी। अनगिनत लोगों ने उसके दूध-दही का स्वाद चखा था। घर में कोई भी मेहमान आए, गुलबिया के मट्ठे मिले शरबत से उसका स्वागत होता। गाँव का कोई भी आदमी दरवाजे़ पर आ जाए, बिना मोल ही एक-आध किलो दूध दे देना बाबा की विशेषता थी। मैं इस बात का गवाह रहा हूँ। आज यकायक उसकी याद आ गई है। सुबह-सुबह मँझली चाची ढाकर पहुँचाने आई थीं। गुलबिया की बेटी की बेटी अर्थात् नतिनी की। ढाकर के साथ लगभग एक किलो ताज़ा दूध। मेरा बचपन गुलबिया और छोटका बाबा के संसर्ग में बीता है। जब-तब गुलबिया के पास से डरते-डरते गुजरना मेरी आदत थी। लेकिन गुलबिया कभी हमलावर नहीं हुई। उससे आज तक मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ। उसके बारे में गाँव भर में बात फैलाई गई थी कि वह एक नंबर की बदमाश और मरखाह भैंस है। लेकिन ऐसी बात बिल्कुल नहीं थी। वह बस प्रेम की भूखी थी। जो कोई भी उससे अच्छा व्यवहार करता उसकी होकर रहती। वह एक के बदले दस गुना प्रेम वापस करती थी। बाबा शाम होते ही गुलबिया के भोजन-पानी के इन्तजाम में लग जाते थे। गँड़ासे से हरी घास की कुट्टी काटकर उसकी नाद में परोसा जाता था। वह पहले भोजन सूँघती, फिर खाने के लिए शुरू करती। कितना भी अच्छा खाना हो, यदि उसे सूँघने में ठीक नहीं लगता तो वह नहीं खाती थी। लाख प्रयास करने के बाद भी। घरवालों के भोजन में सब्जी हो या न हो, गुलबिया का दूध या दही अनिवार्य रूप से बारहों महीने रहता।
बाबा सुबह उठते। उसे बलसार से बाहर निकालते। नन्हे काड़े (पाड़े) को बगल के खूँटे में बाँधकर उसे दूहते। दूहने के दौरान वह एकदम शांत रहती। ज़रा भी हिल-डोल नहीं। एक टाइम में लगभग छः-सात किलो तक दूध देती थी। हर डेढ़-दो साल के अंतराल पर एक काड़ा या काड़ी बियाती थी। बड़े होने पर बाबा उसके बाल-बच्चों को बेचने जाते थे। लेकिन उसे बेचने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। गुलबिया को बेचने की कल्पना से ही उनकी कँपकँपी शुरू हो जाती थी। मैं खेल-खेल में उनसे पूछता था-‘‘बब्बा! अच्छा इ बताइए कि इसको अपने घर कब लाए थे?’’
‘‘छोटहन में, जब एकर माई मू गई थी।’’
‘‘कहाँ से…?’’
वे दिमाग पर जोर देते हुए कहते-‘‘ओतना तो इयाद नहीं है लेकिन बहुत दिन से हमारे घर में है।’’
‘‘खरीदे थे?’’
‘‘न्ना रे पटिया! तोहर दादी के नइहर से लाए थे।’’
उस दिन पता चला कि इस घर में दादी के नइहर की एक अमूल्य धरोहर है जो दादी की तरह ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस खानदान को पाल-पोस रही है। बाबा उसकी सानी-पानी करते। जबकि शुरू से ही बलवन्त चाचा उसे चराने दुपोलवा और सोनहा पीड़ तक जाते। अक्सर बाबा भी चराने जाते। लेकिन मनीजर चाचा को भैंस चराते आज तक कभी किसी ने नहीं देखा है। हाँ! दूध-दही खाते सबने देखा है। कभी-कभी छतर चाचा भी उसे चराते पाये जाते थे। ठीक उसी तरह, जैसे धरती पर कभी-कभी एलियन दिख जाते हैं।
एक दिन की बात है। दो बजे रात को बाबा गुलबिया को चराने के लिए खोले। साथ में अन्य गाय-बैलों को भी। रात में जगने के कारण नींद ठीक से पूरी नहीं हुई थी। बाबा उसे और उसके अन्य बहन-बंधुओं को खुले मैदान में छोड़कर महुआ पेड़ के नीचे सो गए। इसी पल का इन्तज़ार तो वह वर्षों से कर रही थी। आज उसके पास भरपूर मौका था। हरहराते हुए बलई मिसिर के खेत में घुस गई। वह गेहूँ चभर-चभर करके चाभ रही थी और सोच रही थी-‘‘कितना नरम-नरम है! कोमल-कोमल!! मुँह में जाते ही बताशे की तरह घुल जा रहा है। आह! मजा आ गया।’’ वह बीच-बीच में मुड़ी उठाकर देख लेती थी। ‘‘कहीं कोई आ तो नहीं रहा है! नहीं तो लेने के देने पड़ जाएँगे। कसाई सब बहुत जोर से पैना चलाता है। पिछले साल तो नन्हका कड़वा के मार के चाम फार दिया था। आदमी जात है न! मोह नहीं लगता है इन बदमाशों को।’’
जब एक घंटा के अंदर खेत स्वाहा हो गया तो गुलबिया का मन भी सोने को करने लगा। बस क्या था! लगी लोटने। वैसे भी बड़का अहरा में गए साल भर से बेसी हो गया था। लोटने के क्रम में बचा-खुचा गेहूँ भी चौपट हो गया। एकदम सफाचट। पाँच मिनट पहले दाढ़ी-मोछ छिलवाये आदमी की तरह। जब बाबा दो घंटे के बाद उठे तो गुलबिया को नदारद पाकर ढूँढने लगे। पाँच-दस मिनट की भागदौड़ के बाद वह मिली कहाँ तो गेहूँ के खेत में। गुलबिया को देखते ही माथ धर लिए। पर पंचइती और फिर दंड-जुर्माने का डर था। लेकिन कलेजा मजबूत कर लिए। सुबह आठ बजे के आस-पास चराकर वापस ले जाने लगे।…दो घंटे के बाद उन्हें गली में हल्ला-गुल्ला सुनाई दिया। आवाज़ बलई मिसिर की थी। वे हल्ला कर रहे थे कि उनका गेहूँ स्वाहा हो गया है। किसी जानवर से जान-बूझकर चरवाया गया है। नाममात्र के लिए भी नहीं छोड़ा गया है। वे उन घरों के दरवाजे पर जाकर गाली दे रहे थे जिन घरों से गायें-भैंसें चरने जाती थीं। गुस्सैल मिसिर जी लगभग हर घर के मरद-मेहरारू को गरियाते हुए छोटका बाबा के दरवाजे पर पहुँचे। बाबा उस समय खाना खा रहे थे। गाली सुनकर माजरा समझते देर न लगी। चुपचाप खाते रहे। लगभग दस मिनट तक गाली-गलौज की प्रक्रिया चलती रही। जोर से चिल्लाकर बलई बोले-
‘‘छोटका!…ए छोटका…!!’’
‘‘का बात है?’’
‘‘कहाँ है हो…?’’
‘‘आइये बैठिए मिसिर जी।’’
‘‘हम बइठने नहीं आये हैं।…इ बताओ कि तोर भईंस हम्मर गोहूम सफाचट किया है।’’
‘‘न्ना…ना! हम तो तब तक भईंस के पास रहते हैं जब तक उ चरती रहती है।’’ इतना सुनते ही बलई मिसिर सनक गए।
‘‘बोलेगा झूठ…? झूठ से हम्मर एड़ी के लहर कपार पर चढ़ जाता है।’’
सचमुच उनकी एड़ी की लहर कपार तक चढ़ने लगी थी। लगे लाठी निकालने। गुलबिया देख रही थी और सोच रही थी-‘‘मामला बर्दाश्त के बाहर हो रहा है। हम खाए हैं तो हमको मारो। संतोष नहीं हो रहा हो तो दू-चार लाठी जमा दो। इ का बात हुआ कि मालिक को गरियाएगा? और तुम-ताम करेगा!…रुको…रुको…अब्भी बताते हैं।’’ उसका थोंथ फड़कने लगा था। आँखें टेढ़ी होने लगी थीं। पूँछ ऊपर उठ गई थी। तुरंत हमला करने मूड में आ गई। लेकिन बेचारी क्या करे? रस्सी से बँधी हुई थी।…इधर मिसिर जी हमलावर होते जा रहे थे। अब गुलबिया भी काबू के बाहर हो रही थी। बार-बार मुड़ी ऊपर-नीचे करके कूदने लगी। खूँटा के गोल-गोल। बलई की नज़र गुलबिया पर पड़ी। बिना सोचे-समझे चार पैना लगाते हुए बोले-‘‘तू काहे कूद रही है…गोहूम खाके पेट नहीं भरा कि दवाहीं कर रही है।’’
‘‘अंय…मार दिया…हमको मार दिया…! पैना से। और अभी तक हम गोल-गोल ही घूम रहे हैं।…रुक…रुक बेटा बलई!’’
तभी जोर की आवाज हुई। गुलबिया खूँटा उखाड़ चुकी थी। लगा कि आज बलई को पटके बिना नहीं छोड़ेगी। बेचारे भागने लगे। भागते-भागते साम्मा साव के घर तक पहुँचे। गुलबिया भी फटाक से पहुँच गई। बलई मिसिर भाग रहे थे और गुलबिया की माई-बहिन के साथ-साथ उसके सात पुश्तों का उद्धार भी करते जा रहे थे। लेकिन आज गुलबिया भी कहाँ रुकने वाली थी। वह भी दौड़ते-दौड़ते सोच रही थी-‘‘बहुत काबिल बन रहा था, अब भाग कहाँ रहा है! चलो बेट्टा…दौड़ो। देखते हैं, कहाँ तक दौड़ता है।…मरने से पहले देवता-पितर को इयाद कर लो।’’
बात गाँव में फैलने लगी। जब तक लोग लाठी-डंडा लेकर आते और गुलबिया के क्रोध से मिसिर को बचाते तब तक वह बलई के पास आ चुकी थी। जब वे भागते-भागते बेदम होकर हाँफने लगे तब सुस्ताने के लिए खडे़ हो गए। इतने में, पीछे से गुलबिया सींग लगाकर बलई को माथे पर टाँग चुकी थी। मिसिर डर से चिल्लाने लगे। वह भी परिस्थिति को समझ रही थी। जान रही थी कि पाँच मिनट के अंदर गाँव के लोग आ जाएँगे। फिर बलई की ग़लती कौन देखेगा? सब लोग हमारे ऊपर ही हाथ साफ करेंगे। बहुत दिन के बाद तो आज मौका मिला है। आज पापी को छोड़ देते हैं तो जनम भर पछताना पड़ेगा। वह सींग पर मिसिर को उठाये-उठाये गोल-गोल घूमने लगी। तेज़ी से। उन्हें चक्कर आने लगा। फिर पूँछ उठाकर दौड़ने लगी। दौड़ते-दौड़ते एक गड्ढे में उठाकर पटकी- ‘‘ठाय्य!’’
‘‘आं आं आं आं…’’
‘‘डांड़-गोड़ टूट गया हो…! हाय…हाय!!’’
एक ही पटकन में तिवारी हरदी बोल चुके थे। गुलबिया का माथा अब ठंडा होने लगा। वह खड़ी होकर सोचने लगी-‘‘…अब नहीं…! अब पटकेंगे तो स्साला मर जाएगा। फिर मालिक पर केस-मुकदमा कर दिया तो? अपने लिए तो कोई ग़म नहीं है। हमारा मरना क्या और जीना क्या-सब एक बराबर है। लेकिन मालिक को फँसाया तो…? उसको फँसाएगा! परान नहीं ले लेंगे स्साले का!’’ तब तक बीस-पच्चीस लोग लाठी-डंडे के साथ आ चुके थे। पहले मिसिर को टाँग-टूँगकर निकाला गया। उनका एक हाथ फ्रैक्चर हो चुका था। पिछवाड़े से खून चू रहा था। वे इस अवस्था में भी दरद से कम और लोगों को दिखाने के लिए बेसी चिल्ला रहे थे। आनन-फानन में जीप बुक करके सदर अस्पताल में भरती करवाया गया। जहाँ-जहाँ घाव था और चोटें लगी थीं, वहाँ-वहाँ मरहम-पट्टी की गई। पाँच-छः टाँके भी लगे। उन्हें बीस-पच्चीस दिन अस्पताल में रहना पड़ा।
इधर गुलबिया हाँफते-हाँफते छोटका बाबा के दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। बाबा परिवार सहित सकते में थे। बात बढ़ने का डर था। वे अन्दर-ही-अन्दर बहुत घबरा रहे थे। सारे गाँव को पता था कि बलई मिसिर कैसे आदमी हैं! उनके बारे में यह बात भी प्रसिद्ध थी कि वे एक नंबर के ‘कसरियाह’ आदमी हैं। बीस साल बाद भी बदला लेते हैं। किसी भी कीमत पर दुश्मन को छोड़ते नहीं। यहाँ तो उनका हाथ-पैर टूटा था। अस्पताल से आने के बाद, पता नहीं क्या होगा! सारी ग़लती गुलबिया की है। ऐसे जानवर को दरवाजा पर रखने से क्या फायदा जो कहीं मुँह दिखाने लायक ही न छोड़े। गाँव-गोतिया के कई लोग समझा रहे थे कि मिसिर के आने के पहले गुलबिया को दूरा से हटा दीजिए। लेकिन मोह था कि छूट ही नहीं रहा था। अगले दिन बाबा गुलबिया को फिर चराने ले गए। बलई के खेत से दूर। उस दिन के बाद वे चरवाही के दौरान सोना छोड़ दिए थे। गुलबिया और अन्य जानवरों को खुले मैदान में हाँककर आरी पर बैठ गए। बरसात का मौसम था। बाबा आरी पर आराम से बैठे हुए थे। वे सामने देख रहे थे। उनकी पीठ के पीछे क्या हो रहा है, ये कैसे देखते? एक लम्बा-सा करैत साँप हरहराते हुए उनकी ओर चला आ रहा था। गुस्से से फनफनाते हुए। बाबा से मात्र एक हाथ की दूरी पर। तभी घास चरती गुलबिया की नज़र बाबा के पीछे पड़ी। वह तेज़ी से दौड़ने लगी। जैसे ही साँप बाबा को डसकर भागता कि गुलबिया उसे अपने खुरों से कुचल चुकी थी। उसके खुरों के नीचे पड़कर साँप मर चुका था। वह जोर से चिल्ला उठी-
‘‘आं…आं…आं…आं…आं…!’’
बाबा पीछे मुड़े। अपने पीछे साँप देखकर उनकी रूह काँप गई। समझ गए कि आज क्या होने वाला था और किसके कारण जान बची। वे गुलबिया को प्यार से सुघराने लगे। वह भी बाबा को चाटने लगी। मानो दुलारते हुए समझा रही हो-‘‘बरसात का मौसम है। साँप-बिच्छ देखकर बैठना चाहिए न! आज काट देता तो…? बूड़बक हो, ठेहुना में बुद्धि है!’’ इस घटना के बाद दोनों के बीच का प्रेम काफी बढ़ गया। गुलबिया के रहते बाबा को कोई छू भी नहीं सकता था। आदमी से लेकर जानवर तक। यह बात साबित हो चुकी थी।
इधर बलई मिसिर लगभग ठीक हो चुके थे। लेकिन पूरी तरह ठीक होने का इन्तजार कर रहे थे। अब वे छोटका बाबा का दूरा और उसमें भी गुलबिया के खूँटे से दू पोरसा दूर रहने लगे थे। वे इस गली में आना नहीं चाहते थे। लेकिन एक मजबूरी थी जो उन्हें इस गली में खींच लाती थी। गाँव के अधिकांश लोग इसी गली से दिशा-मैदान करने जाते थे। सो, मिसिर को चौबीस घंटे में कम-से-कम एक बार तो इस गली में आना ही था। आज सुबह दायें हाथ में बैंडेज बाँधे और बायें हाथ में लोटा लिए हुए वे जा रहे थे। बलई को देखकर आज गुलबिया चुपचाप थी। वह नाद में मुँह डालकर चुभलाने लगी। जब मिसिर गुलबिया की पहुँच से दूर हो गए तो पीछे मुड़कर गरियाने लगे-‘‘स्साली भईंस है कि राक्षसी! देखिये तो, पटक-पटक कर उ मार मारी है कि आज तक बैंडेज नहीं खुला है। रुक-रुक भोंसड़ीवाली……एक दिन छोटका का दूरा नहीं छोड़वा दिये तो हमरा नाम भी बलई मिसिर नहीं।’’
बेचारी गुलबिया चुपचाप सुनती रही। लौटते समय भी गारी। कल भी गारी। परसो भी गारी। मिसिर अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे थे। गुलबिया चुपचाप सुनती रहती। उनको देखते ही उनकी तरफ पूँछ उठाकर गोबर करने लगती।…लगभग दस दिन के बाद मिसिर पूरी तरह ठीक हो गए। अब वे सुबह-सुबह लाठी लेकर मैदान जाने लगे। एक दिन वे गुलबिया के पास से गुजर रहे थे। वह बैठकर पगुरा रही थी। तब तक पीछे से चार लाठी तड़तड़ा दिये। बहुत दिनों के बाद गुलबिया का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसकी नाक से गरम हवा निकल रही थी। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। लेकिन बेचारी को मजबूत खूँटे से बाँधा गया था। रस्सी भी बहुत मजबूत थी। सुबह-सुबह पेट खाली था। उस दिन की तरह खूँटा उखाड़ने की कूबत भी नहीं थी। इधर मिसिर द्वारा, एकाध दिन बीच करके गुलबिया को दो-चार लाठी जमा देना उनकी आदत में शामिल हो गया था। उनका जब मन करता, मैदान करने के बहाने बाबा के घर की तरफ आते और पैना या लाठी चला देते। बाबा और उनके घरवाले देखकर चुप रह जाते। हर समय, अनजाने में गेहूँ चराने का अपराध बोध बाबा के मन में रहता, इसलिए कुछ कह नहीं पाते थे।
रोज-रोज की पिटाई से गुलबिया की पीठ लाल हो गई थी। दिन में तो किसी तरह सह जाती, लेकिन रात को सहा नहीं जाता। मन करता था कि खूँटा तोड़कर बलई के घर पहुँच जाए। वहीं सींग से हुरपेटकर कसाई की जान ले ले। कुत्तवा कठकरेज है। निर्दयी की तरह मारता है। एक ही जगह। खून निकलने से कल शाम से ही कुकुरमाछी बैठ रही है। इनलोग भी न…काटकर बुखार लगवा दिया है। दो दिन से सोच रही थी कि शोख मिसिरवा को कैसे जवाब दिया जाए। तीन-चार घंटे दिमाग लगाने पर एक उपाय सूझ ही गया। रात-भर गले की रस्सी चबाती रही। चबाते-चबाते रस्सी कमजोर हो गई। अब थोड़ी-सी ताकत लगाने पर उसे तोड़ा जा सकता था। गुलबिया को मिसिर के मैदान जाने का टाइम पता था। आज वह पूरी तैयारी में थी।…सुबह पाँच बजे बलई बायें हाथ में लोटा और दायें हाथ में लाठी चटकाते हुए आए।…वह पहले की भाँति चुपचाप बैठी थी। मिसिर जैसे ही लाठी चलाने को हुए तब तक अपने दो पैरां पर खड़े होकर धारदार सींग उनके पेट में घांप दी। बलई मिसिर के पेट से खून की धार बहने लगी। लोटा दूर जा गिरा। पाँच बजे भोर में ही वे जोर-जोर से कराहने और चिल्लाने लगे। आवाज़ सुनकर बाबा परिवार के साथ बाहर निकले। गाँव-घर के चालीस-पचास लोग जमा हो गए। मिसिर औंधे मुँह पड़े हुए थे। बाबा को मामला समझ में आ चुका था। उन्होंने घर से डंडा निकाला और लगे गुलबिया की धुनाई करने। पे पीटते जाते और कहते जाते-‘‘बहुत आवारा हो गई है। एक बार से नहीं सीखी। घर-दूरा उजड़वाकर ही दम लेगी।…पता नहीं, किस जनम की दुश्मनी है, जब-तब निकालती रहती है।’’ गुलबिया शांत खड़ी थी। उस पर डंडे बरस रहे थे। जब मार बर्दाश्त के बाहर हो जाती तो ‘आं…आं…आं…’ करने लगती। आँखों से आँसू की धार बह रही थी और शरीर से लहू की धार। मार सहते-सहते बेहोश होकर गिर पड़ी।
दो महीने के अन्दर बलई मिसिर को सदर अस्पताल में दुबारा एडमिट करवाना पड़ा। पेट से खून निकलते देखकर डॉक्टर-नर्स दौड़ पड़े। इस बार पेट में मात्र दस टाँके लगे। तीस-चालीस हजार खर्च होने और डेढ़ महीना अस्पताल में बिताने के बाद मिसिर की घर वापसी हुई। इस बार घर आते ही वे सीधे थाना पहुँचे। दारोगा उनको देखकर खड़ा हो गया। रट से सलाम दागा। मिसिर की गिनती इलाके के प्रभावशाली लोगों में होती थी। दारोगा को देखकर बोले-‘‘एफआईआर लिखिए।’’
‘‘का बात है?’’
‘‘बोले न, एफआईआर लिखिए!’’
‘‘ठीक है, नाम बताइये।’’
‘‘छोटका!’’
‘‘पिता का नाम?’’
‘‘बबन सिंघ!’’
‘‘उमर?’’
‘‘लगभग पचास साल।’’
‘‘घर का पता बोलिए?’’
‘‘लोहरापर।’’
‘‘ठीक है, क्राइम बताइए।’’
‘‘साढ़े तीन महीना पहिले वह भैंस से मरवा दिया। उसकी भैंस पिछवाड़े में सींग भांक दी। फिर मुड़ी पर उठाकर जमीन पर पटकी। उससे मेरा हाथ टूट गया। अस्पताल में भरती होना पड़ा।’’
‘‘आगे बोलिए।’’
‘‘डेढ़ महीना पहिले पेट में सींग घुसेड़ दी। सिस्टम डैमेज हो गया है। ठीक से खाना नहीं पचता है।’’
‘‘और कुछ?’’
‘‘गैर इरादतन हत्या का दफा लगना चाहिए।’’
छोटका बाबा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हो गई। गाँव के लोग सुने तो कहने लगे कि मिसिरवा सनक गया है। खेत खाए गदहा मार खाए जोलहा! अरे, भैंस मारी तो उसपर न केस करना चाहिए! बेचारे छोटका को काहे फँसा रहे हो? फिर पुलिस के अगले क़दम का इंतजार करने लगे। इधर बलई मिसिर रोज थाना-कचहरी जाने लगे। बाबा के नाम गिरफ्तारी वारंट निकलवाने के लिए। या तो सरेण्डर करे या कुर्की-जब्ती हो। इस घटना से बाबा भयंकर तरीके से डर गए। वे दो-चार लोगां को लेकर सुबह-शाम मिसिर के घर का चक्कर लगाने लगे। बाबा किसी तरह समझौता करना चाह रहे थे। लेकिन बलई मिसिर की एक ही डिमांड थी। गुलबिया को मेरे हाथों में सौंप दो, नहीं तो कुर्की-जब्ती झेलो। मिसिर अपने फैसले से टस-से-मस नहीं हो रहे थे। बात का बतंगड़ बनता जा रहा था। घर, बाजार, दुकान आते-जाते, लोग गुलबिया का हाल-चाल पूछने लगे थे। उसे लेकर दो-चार बार पैदल थाना भी जाना पड़ा था। दारोगा सोच-समझकर कदम उठा रहा था। वह बोला कि बात डीएसपी तक पहुँच गई है। जब तब ऊपर से कुछ आदेश नहीं आ जाता तब तक गुलबिया को अपने दरवाजे पर ही ठीक से रखिए। खूब खिलाइए-पिलाइए। इस बीच अगर भैंस बियाई तो थाना को तुरंत सूचना मिलनी चाहिए। दूध-दही पर भी पुलिस-प्रशासन का हक है। बिना पूछे एक किलो दूध भी नहीं बिकना चाहिए।
लाख प्रयास के बाद भी बलई मिसिर से बाबा का समझौता नहीं हो पाया। गाँव के कई लोगों के प्रयास से पंचइती भी हुई लेकिन नतीजा शून्य रहा। मिसिर की एक ही माँग थी कि छोटका गुलबिया को सौंप दे। फिर उसके साथ जो करना होगा, मैं करूँगा। बाबा भैंस देने को तैयार नहीं थे। नाद में सानी देते समय लोर से डबडबाई गुलबिया की आँख देखते तो उनका मन भी रोने को करने लगता। गुलबिया दिनोंदिन कमजोर होती जा रही थी। उसका दाना-पानी कम होता जा रहा था। कई लोग राह चलते पूछते-
‘‘छोटका भाई! मिसिरवा से समझौता हुआ कि नईं?’’
‘न्ना!’’
‘‘लगता है, अब गुलबिया आपकी नहीं रह पाएगी।’’
‘‘कइसे नहीं रह पाएगी? इतना दिन पास रखे और खिलाए-पिलाए सो।’’
‘‘दिमाग से काम लीजिए भाई! गुलबिया अब आपकी नहीं है। दरोगवा का बोला है? दूध-दही नहीं बेच सकते हैं। खा भी नहीं सकते। सब पर थाना-पुलिस का हक है।’’
‘‘इ तो अन्याय है!’’
बाबा के एक करीबी रिश्तेदार ने एकान्त में उन्हें सलाह दी। सलाह सुनकर बाबा काँप गए। घरवालों ने सुना तो कोहराम मच गया। घर का कोई भी सदस्य गुलबिया से दूर नहीं रहना चाहता था। लेकिन बाबा क्या करते! समय की माँग यही थी। गुलबिया पर कसाइयों की नज़रें पड़ चुकी थीं। योजना के मुताबिक शाम को ही बाबा गुलबिया को लेकर घर से निकल गए। शहर में ईलाज करवाने के नाम पर। बात फैलाई गई कि गुलबिया को बुखार है। कुछ खा-पी नहीं रही है। बाबा रात-भर पैदल चलने के बाद सुबह पशु मेले में पहुँच गए। बेचने के लिए। गुलबिया जानवर होते हुए भी सब कुछ समझ रही थी। वह इन दिनों अपना सिर झुकाए रहती थी। मुड़ी उठाती तो टप-टप लोर चूने लगता। बाबा से उसकी तरफ देखा नहीं जाता। गुलबिया की ओर ताकने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। दिन भर गुलबिया बाज़ार में खड़ी रही। सैकड़ों ग्राहक आ-जा रहे थे। लेकिन सब गुलबिया को सस्ते भाव में खरीदना चाह रहे थे। भीतर से, उसे बेचने का मन भी बाबा का नहीं था। दिन-भर के मोल-भाव के बाद गुलबिया नहीं बिकी। वे उसे लेकर घर आ गए।
इधर रात को नाद पर बैठकर गुलबिया सोच रही थी-‘‘आदमी जब निष्ठुर हो जाता है तो लोग जानवर कहने लगते हैं। कभी-कभी बैल-गदहा कहकर गाली भी देते हैं। लेकिन जब जानवर आदमी हो जाए तो?’’ यह सवाल उसके मन में उमड़ता-घुमड़ता रहता। बाबा भी यह तय नहीं कर पा रहे थे कि गुलबिया जानवर है कि आदमी। अगले सप्ताह उसे फिर बाज़ार ले जाया गया। दिन-भर के मोल-भाव के बाद वह दूसरे प्रयास में भी नहीं बिकी। तीसरी बार बाबा देवता-पितर को मनाकर घर से निकले थे। पन्द्रह दिनों के बाद। इस बार हाथ उठाकर उन्होंने कहा था-‘‘हे भगवान! इस बार खाली हाथ मत लौटाइयेगा। हम तो रखना चाह रहे हैं लेकिन इसका मेरा साथ ईहईं तक है। आज चाहे कल, वह पुलिस या मिसिर, किसी-न-किसी के हाथ में आ ही जाएगी। फिर उसकी दुर्गति हमसे देखी नहीं जाएगी। इसलिए आज खाली हाथ मत लौटाइयेगा भगवान! हाथ जोड़ रहे हैं।’’
आज गुलबिया को लाल कपड़ा ओढ़ाकर, माथे पर टीका लगाकर और मुँह में गुड़ खिलाकर विदा किया गया। वह अपने खूँटे से टस-से-मस नहीं हो रही थी। बहुत दुलारने-पुचकारने पर भी एक क़दम भी नहीं बढ़ाई। वह बार-बार मुड़ी नीचे गाड़ देती। फिर उठाती ही नहीं। गुस्से में आकर बाबा आठ-दस पैना जमा दिए। फिर बोले-‘‘सबको जेल भेजवाएगी? केस हो गया है हम पर, तुम्हारे चलते! जिन बाल-बच्चों को बीस-पच्चीस साल से अपना खून पिलाकर पोस रही हो, उनको जिन्दा भुनवाएगी। यहाँ रहेगी तो किसी-न-किसी बहाने मिसिरवा तुमको हमसे लूट लेगा। फिर…’’ इसके बाद बाबा बोल न सके। हहर कर रोने लगे। धीरे-धीरे गुलबिया मुड़ी उठाई। वे हारकर पास ही बैठे हुए थे। वह अपनी जीभ से उनका कपार चाटने लगी। छतर चाचा बोले-‘‘बाउजी, एकर आँख से तो लोर झरझराइत हव! मत बेच एकरा के।’’
कुछ देर बाबा का कपार चाटने के बाद गुलबिया एक कदम बढ़ा चुकी थी। फिर दूसरा, तीसरा, चौथा…! बाबा साथ चलने लगे। आगे-आगे गुलबिया चल रही थी, पीछे-पीछे बाबा। आज उसे हाँकना नहीं पड़ रहा था। रास्ते में एक जगह रुककर नाश्ता-पानी करने लगे। गुलबिया के लिए हरी घास घर से ही लेकर आए थे। उसके आगे डालकर खाने को बोले। गुलबिया पहले घास को देखकर उस पर टूट पड़ती थी। उसे सफाचट करने में पाँच-सात मिनट से अधिक नहीं लगते थे। आज वह घास की तरफ देख भी नहीं रही थी। बाबा सोचे कि प्यास लगी होगी। एक बाल्टी पानी उसके आगे रख दिए। वह मुँह तक नहीं उठाई। पीना तो दूर की बात थी।…चार-पाँच घंटे के बाद बाबा बाज़ार में थे। दोपहर दो बजे के आसपास गुलबिया का सौदा तय हो गया। दस हजार में। बाबा खरीददार से बोले कि उसके सामने पैसा मत गिनना। न ही देना। गुलबिया जहाँ खड़ी थी, उसके आधा किलोमीटर दूर जाकर पैसे गिने जा रहे थे। बाबा कुर्ते की जेब में पैसा रख चुके थे।…इधर गुलबिया मुड़ी उठाकर ‘भंकर’ रही थी। बाबा को न पाकर पूँछ उठाकर दौड़ रही थी। उसकी आँखों से गिरते आँसू बंद नहीं हो पा रहे थे। नथुनों से जोर-जोर से साँस ले रही थी। जोर-जोर से आगे-पीछे के पैरों को पटक रही थी। उसके गले की रस्सी नई थी। नये मालिक की। बाबा गुलबिया की जोरी (रस्सी) खोलकर अपने रख लिए थे। कहा जाता है कि मीरा(मालिक) को गाय-भैंस बेचना चाहिए लेकिन उसकी जोरी बेचने से पाप लगता है।
बाबा जेब में पैसा रखकर घर की ओर क़दम बढ़ा चुके थे। उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था। बहुत मन कर रहा था कि एक बार गुलबिया की सूरत देख लें। कम-से-कम ज़िन्दगी भर के लिए करेजा जुड़ा जाए। आवेश में पीछे मुड़े भी, लेकिन अपनी कमजोरी वे जानते थे। एक कदम भी पीछे बढ़ाने का मतलब था कि बढ़े हुए क़दम कभी लौट नहीं सकते थे। वे आँसू पोंछते हुए बाजार से निकल गए। …रात को ग्यारह बजे घर पहुँचे तो देखा कि दरवाजे पर भीड़ लगी है। आठ-दस पुलिसवाले भी हैं।
‘‘कहाँ गए थे साहेब?’’ दारोगा पूछा।
‘‘गुलबिया भाग रही थी। उसको पकड़ने गए थे।’’
‘‘अकेले?’’
‘‘जी!’’
‘‘पकड़ने गए थे कि बेचने गए थे।’’
‘‘किसी से भी पूछिए, का करने गए थे।’’
‘‘इ पाकिट में का है?’’
‘‘पइसा!’’
‘‘इतना पइसा भईंस पकड़ने में नहीं गिरा?…चलिए थाना!’’
‘‘किसलिए?’’
‘‘क्रिमनल भईंस को बेचने के आरोप में। पता है, उसी के चलते आप कर केस हुआ है।’’
‘‘आप किसलिए आए हैं?’’
‘‘भईंस पकड़ने और कुर्की-जब्ती करने।’’
‘‘तो लिखिए कि भईंस फरार हो गई।’’
‘‘आपके घर का कुर्की-जप्ती होगा!’’
‘‘केस हम पर था, भईंस पर नहीं।
‘‘जादे मत बोलो छोटका!’’
‘‘भईंस तुम्हारा था इसलिए तुम्हारे घर का कुर्की होगा।’’
‘‘ठीक है, करिए कुर्की लेकिन हम फरार हैं इसका का सबूत है? ले चलिए थाना, चलते हैं।’’
दरोगा भक्क! उसके पास तो बाबा के फरार होने का कोई सबूत नहीं था, न हीं फरारी वारंट। फिर भी थेथरई करता रहा। दो घंटे तक हुज्जत करने के बाद दस हजार लेकर ही विदा हुआ। पुलिस के जाने के बाद घर के लोग गुलबिया का हाल-चाल पूछने लगे। बाबा खटिया पर निढाल पड़े थे। तीन बजे उठकर भजन गाने वाले बाबा आज दस बजे दिन तक सोये थे। अगले दिन से कुछ-कुछ बीमार भी रहने लगे थे।…इधर मिसिर के सपने में रोज रात को गुलबिया आती है। वे आधी रात को पेट पकड़कर चिल्लाने लगते हैं। वे सपना देखते हैं कि कभी गुलबिया उनके पिछवाड़े में सींग घुसेड़ रही है तो कभी अपने माथे पर उठाकर घूम रही है।
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परिचय : धर्मेंद्र कुमार की कई कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी
संप्रति : सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, राम जयपाल महाविद्यालय
डाक बंगला रोड, छपरा (बिहार)
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