विशिष्ट कवि : अशोक सिंह

क्या होता है प्रेम ?
(अपनी उम्र से पाँच वर्ष बड़ी एक दोस्त से
जब मै आठवें का छात्र था।)

क्या होता है प्रेम ?
मैंने उससे पूछा

उसने किताब की तरह मेरे चेहरे को
अपनी हथेलियों में थामा
और गौर से देखते हुए मुस्कुराकर
अपने कंधे पर टिका लिया

कुछ दिन बाद मैंने फिर पूछा

वह फिर मुस्करायी
और मेरी कमीज के अधखुले बटन को
सलीके से लगाकर
नाक पकड़ कर हिला दी

मैं उत्तर जानने के लिए बेचैन था
सो कुछ महीने बाद एक दिन
सर्द चाँदनी रात में उसे छत पर अकेले
टहलता देख करीब गया
और फिर जैसे ही पूछना चाहा वही सवाल
उसने झटके से मेरे होठ पर अंगुली रख दिया
और अपनी चादर उतार मेरे वदन पर रखते हुए,
चाँद की ओर इशारा कर दिया

लगातार जबाव न पाकर मैं तंग–तंगा गया
और इस बार गुस्से में झल्लाकर पूछा
वह आदतन फिर मुस्कुरायी
फिर अचानक गुस्से में झल्लायी
और गाल पर एक चपत लगाकर
चली गयी, कभी न वापस आने के लिए
यह कहकर कि अभी तुम बच्चे हो
यह सब नहीं समझोगे

आज जबकि मुझे पता नहीं
उसके बारे में कुछ भी
कि वह कहाँ, कैसी है, किसके साथ है

उम्र के इस चालीसवें पड़ाव पर खड़ा
मैं ढूढ़ रहा हूँ उसका कंधा।

प्रेम

थककर चूर
शिथिल पड़ी काया के सिरहाने
तकिया बढ़ाते हाथ हैं प्रेम

एक कंधा है
दुख के क्षणों में
लरजते हुए सिर टिकाने को

मेहनत और थकान से
माथे पर उभरी
पसीने की स्वेत बूंदों पर
शीतल अंगुलियों की छुअन है

स्याही–सोखता की तरह
पीड़ा और थकान सोखती
आँखें हैं पे्रम

प्रेम
रात के अंधेरे में
सूनसान सड़क पर खड़ा लेम्पपोस्ट है

एक छायादार पेड़ है प्रेम
दोपहर की चिलचिलाती धूप में

जाड़े की सर्द रातों की गर्म लिहाफ
सुबह की गुनगुनी धूप है प्रेम

और तो और
जिन्दगी की रूखी सुखी रोटी पर
चुटकी भर नमक है प्रेम

पीले पड़ते प्रेम–पत्र

जैसे–जैसे उधर
पड़ते जा रहे हैं पीले
तुम्हारे पास रखे मेरे प्रेम–पत्र
वैसे–वैसे इधर
आने लगी है मेरे बालों में सफेदी

जैसे–जैसे उधर
धुंधली पड़ती जा रही है उसकी लिखावट
वैसे–वैसे इधर
धुंधलाने लगी हैं मेरी स्मृतियाँ

जैसे–जैसे उधर
टूटने लगे हैं उसके तह
वैसे–वैसे इधर
टूटने लगा हूँ अंदर से मैं भी …..

जब तक वो बचे रहेंगे तुम्हारे पास
शायद तब तक मैं भी बचा रहूँ इस धरती पर !

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *