विशिष्ट कहानीकार : अमरेंद्र सुमन

खामोशी
चार अलग-अलग कंधों के सहारे बेजान एक जवान युवक को शहर के मुख्य अस्पताल की ओर ले जाया जा रहा था। विकट उष्णता भरी रात में भी आने वाले कल की चिंता से बेपरवाह शहर कुंभकर्ण की भांति खर्राटे ले रहा था। विरान सड़क रोज की भांति आज भी अपने अकेलेपन से बातें करने में मशगूल था। यदा-कदा गली के कुत्ते भोजन की तलाश में रास्ता सुंघते हुए दिख जाया करते थे। पुलिस महकमें की चलन्त गाडियां कभी-कभार ही रास्ते की शोभा बढ़ा पा रही थीं। विद्युत विभाग जैविक हथियारों के बल पर उपभोक्ताओं को अपने विरुद्ध शिकायत से खबरदार कर रही थी। अस्पताल के आजू-बाजू गिनती की कुछ ढिबरियॉं ही अपने होने के अहसास से मरीजों को अवगत करा पाने में समर्थ हो पा रही थीं। पसीनें में नहाए अपने शीघ्रता के कंधों से चारों ढोने वालों ने अस्पताल के मुख्य दरवाजे पर जीवन-मृत्यु से जूझ रहे बेंगू को लिटा दिया। त्वरित स्वास्थ्य कार्रवाई के लिये आपातकालीन चिकित्सकों की सलाह ली जाने लगी। इधर-उधर की व्यवस्था में सभी एड़ी-चोटी एक किये हुए थे।
पिछले साल की ही बात है, जब बेंगू अपने गांव करणगढ़ से परिवार के जीविकोपार्जन के लिये सूरत की ओर कूच कर रहा था, उसके साथ सफर कर रहे थे ढेर सारे अबूझ और अनब्याहे सपने। उन सपनां की पोटली में बंद थीं माता-पिता के सुखमय जीवन की तस्वीरें। जवानी की दहलीज पर कदम रख रही गोंदली के हाथों की मेंहदी, उसका आसन्न भविष्य। व्यक्तिगत कोई ख्वाहिशें नहीं थीं उसकी। ‘हॉ’‘ विगत कुछ महीनों से मां एक ही रट्ट लगाए जा रही थी, वह अपना घर-गृहस्थी बसा ले। बुढ़ारी में (बहु) कनिया के रहने से बेटे की अनुपस्थिति कुछ हद तक कम खलती है। प्रस्थान के वक्त उसने कहा भी था, ‘बेटा‘…? मुझ बूढ़े मां-बाप के लिये कामिन घरवाली कर लेता तो एक तीरथ सम्पन्न हो जाता। पिता ने मौन स्वीकृति के साथ माँ का समर्थन किया था। ‘मां‘, तू चिन्ता मत कर ! पिरा रहे तेरी इन बूढ़ी हड्डियों के विश्राम का तत्परता से ख्याल रखॅूंगा। अपने स्वास्थ्य, देह पर ध्यान रखना। बेटे को उचित शिक्षा न दे सकने के अपराध बोध से गोवर्धन गड़ा जा रहा था। काश बेटे को पढ़ाया होता ? मजूरी के लिये परदेश जाने की नौबत तो नहीं आती उसकी। इधर-उधर की हम्माली से पेट तो पाला ही जा सकता है ? जहां दो जून रोटी की तंगहाली में सारा वक्त निकल जाता हो, वहां पढ़ाई-लिखाई की बात का कोई मोल नहीं। बेंगू की सूरत विदाई के वक्त गोवर्धन उसके जन्म की उलझन में खो गया। अल्पावधि में ही मौत से लड़ते हुए बेंगू को सही-सलामत बचा लेने की घटना का स्मरण उसे हो आया।
कपड़े की आयात-निर्यात फैक्टरी में अल्प वेतनभोगी कर्मचारी ही तो था गोवर्धन जो पिछले 5-6 वर्षों से एक ही न्यूनतम मुशहरे (वेतन) पर गृहस्थी की बैलगाड़ी खींच रहा था। उसने भविष्य के नाउम्मीदी वाले सपने नहीं देखे थे। एक तुच्छ चिंता सिर्फ आंगन में किलकारी मार रहे गीदड़-बुतरु के भविष्य संवारकर उसकी गृहस्थी बसा देने की थी। रोज की भांति आज भी हंसी-ठिठोली करता गोवर्धन अपने कार्यों में व्यस्त था, तभी उसके हाथों मेहरारु का संवाद प्राप्त हुआ। छमाही बेंगू गंभीर बीमारी के दौर से गुजर रहा था। फौरन गांव वापसी की हिदायत उसे दी गई थी। पत्र पढ़कर गोवर्धन की आंखों से ऑसू टपक पड़े।
नियमित तरीके से चल रहे कार्यों के यदा-कदा निरीक्षण के दौरान एक दिन अपने सबसे विश्वसनीय कर्मचारी गोवर्धन की आंखों में आंसू देखकर फैक्टरी के मालिक चॉंदमल पत्नी तानिया सहित उसके सामने आ खड़े हुए। अरे…..! यह क्या गोवर्धन ? तुम्हारी आंखों में आंसू ? सेठ जी के मुख से सहानुभूति के कोमल शब्द निकले। आखिर बात क्या है ? ‘‘यूं ही सरकार‘‘। अपनी परेशानी को छुपाने की कोशिशें करता हुआ उसने कहा। नहीं जरुर कोई बात होगी ? सेठजी के बाजू में खड़ी उनकी धर्मपत्नी तानियां झट बोल पड़ी। बोलो गोवर्धन….। आखिर किस-किस से छुपाओगे अपनी समस्या, अपनी परेशानी ? घर की याद आ रही थी माई-बाप। फिर एक मर्तबा साफ निकल जाना चाहता था गोवर्धन।
‘‘क्यूॅं’’, क्या हुआ ? घर के सारे लोग ठीक तो हैं न ? कंधे पर रखे गमछे चॉदमल के पैरों पर रखते हुए गोवर्धन अचानक भरभरा पड़ा। सेठ जी समझ चुके थे गोवर्धन पर जरुर कोई मुसिबत आन पड़ी होगी, अन्यथा वह इतना स्वाभिमानी है कि स्वयं की उसने कभी कोई परवाह नहीं की। मालिक…………ऽ….ऽऽ….? मेरा गीदड़….? कौन तेरा बेटा…? क्या हो गया उसे ? अपने थरथराते हाथों से गांव से आयी मेहरारु की चिट्ठी उसने सेठ जी के हाथों पर रख दिये। अपने वफादार कर्मचारियों के प्रति सेठ जी कम कृपालु नहीं थे। उन्होनें अपने कुरते की जेब से सौ-सौ के बीस-तीस नोट निकाले व गोवर्धन को थमाते हुए बेटे के ईलाज की हिदायत के साथ फौरन निकल पड़े। ‘‘कितने दयालु हैं मालिक‘‘ ईश्वर उनके वारे-न्यारे करें। रुपये को एहतियात से ड़ांड़ में खोंसते हुए बिना छुट्टी गोवर्धन निकल पड़ा करणगढ़ की ओर। छमाही बेंगू को गोद लिये कजरी पति के शीघ्र आने के इन्तजार में बैचेन थी। गमछा से हौले-हौले मुंह पोंछता थका-हारा गोवर्धन घर की ओर आता दिखा। उसके करीब आते ही कजरी आंचल में मुंह ढांपकर रोने लगी। कजरी कैसा है हमारा बेंगू ? देख लो जी, जब आप खुद आ गए। भगवान के लिये मेरे बच्चे को बचा लीजिये ? याचक भाव लिये कजरी तड़प उठी । गोद में बच्चे को लेकर गोवर्धन उसे पुचकारने लगा, और बच्चा था कि हिल-डुल नहीं रहा था। उसका शरीर पीला और कमजोर पड़ता जा रहा था। पल भर भी देर न किये गोवर्धन बच्चे को ईलाज के लिये शहर की ओर भागा। पीछे-पीछे मस्तिष्क में उभर रही शंकाओं से लड़ती-भिड़ती कजरी गोवर्धन के साथ साये की तरह चल रही थी।
डॉ0 कक्कड़ इस शहर के जाने-माने फिजिशियन हैं। शहर के अन्य डॉक्टरों का ईलाज बेअसर होने पर रोगी को उनकी ही शरण में लाना पड़़ता है। इनके ईलाज से मरीज जहां एक ओर नई जिन्दगी प्राप्त करता है वहीं दूसरी ओर मरीजों के रिश्तेदार भी काफी संतुष्टि का अनुभव करते हैं, पर महंगी ईलाज व कड़े शुल्क के कारण निर्धन और लाचार तबके के लोग उनकी दर तक आते-आते काल-कलवित हो जाते हैं। डॉ0 कक्कड़ के क्लीनिक पर मेले की तरह हुजूम देखकर गोवर्धन अपना धैर्य खोने लगा। बच्चे की हालात अब-न-तब की हुई जा रही थी। रोगियों की लम्बी कतार में इस बच्वे की बीमारी कोई खास अहमियत नहीं रख रही थी। ‘
‘‘अरे भईया‘…! जरा नम्बर तो लगा देना। नम्बर लगा दिया है, अगले सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार को आकर दिखला लेना। कम्पाउण्डर ने उसकी ओर देखे बिना कहा। ‘‘भईया जरा रहम करो‘‘, बव्वे की हालात पल-प्रतिपल नाजुक होती जा रही है। देखते नहीं……? लोग महीनें-दो महीनें से झख मारे बैठे हैं। रोज-रोज मरीजों की लम्बी कतार देखकर कम्पाउण्डर शायद बेरहम दिल हो गया था। चल कजरी चल। इन बड़े लोगों के दरबार में हम फटेहालों की उपस्थिति का कोई मोल नहीं। रुंधे गले से कजरी कम्पाउण्डर को मना रही थी कि तभी मरीजों के किसी रिश्तेदार ने गोवर्धन की कान में कुछ कहा। बिना देर किये अपनी जेबें टटोलने लगा वह।
‘‘भईया जरा जल्दी करना….?‘‘ अपने थैलेनुमा पॉकेट को गर्म होते देख कम्पाउण्डर के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभर आयी।कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा। पान मशाले की पीक गड़कते हुए डॉ0 कक्कड़ ने कहा । महीने भर की महंगी दवाईयां उन्होनें लिखी और पुनः अगले माह की इसी तारीख को आने की हिदायत देते हुए क्लीनिक से वे बाहर निकल पड़े। कीमती दवाईयों के लगातार सेवन से बेंगू के स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सुधार होने लगा। सेठजी के दिये पैसे धीरे-धीरे खत्म हो गए। इतनी महंगाई में इन तुच्छ रुपयों का मोल ही क्या ? गोवर्धन की अपनी जमा-पूंजी भी नहीं थी जो वह खर्च करता । बाप-दादों की विरासत में बची कुछ जमीन थी, उसपर भी गांव के शैतानों की गिद्ध नजरें हर वक्त चौकसी कर रही थीं। भलुआ भूईयां तो एक नम्बर का राड़ था जो सारी की सारी जमीन ही हड़प जाना चाहता था। किसी तरह उसने गांव वालों को बहला-फुसला कर पंचायती में बैठाया। मोट तीन कट्ठा जमीन ही उसके हाथ लगी जिसने उसे गांव के मुखिया के हाथों बेच डाला। मुखिया ने भी गरजू समझकर उसे खूब लूटा। जहां वर्तमान भाव के मुताबिक जमीन के अच्छे पैसे उसे मिलने चाहिए थे, न्यूनतम मूल्य उसे हासिल हुआ। खाने के लाले के बीच बच्वे का ईलाज ? कहते हैं जब मुश्किलें आती हैं अपने आक्टोपस रुपी पंजे से दबोच लेती है मनुष्य को। तब उसे न निगलने में बनता है और न ही उगलने में। नून-रोटी पर पेट को संतुष्टि की लोरियां सुनाते हुए गोवर्धन अपने बच्चे का ईलाज करवाता रहा। उसके अथक प्रयास से बच्चा स्वस्थ होने लगा। गरीब मां-बाप के भविष्य की आंखों की रोशनी लौट आई। वक्त अपने मस्त चाल में बिना किसी की सलाह और सहायता के आगे बढ़ता जाता है। उसी वक्त की लापरवाह गोद में बेंगू कुलांचें भरता हुआ बड़ा होने लगा। इधर गोवर्धन के काम छोड़े कई माह बीत गए। वापस फर्म में उसे अपनी उपस्थिति भी दर्शानी थी, पर घर का मोह ही कुछ अजीब होता है, उस पर बच्चे की ओर से चिन्ता भी। कजरी का मन मान नहीं रहा था। गोवर्धन को वापस ड्यूटी की ओर लगातार ठेलती जा रही थी। अरे कब तक यूं ही पैर पर पैर धरे बैठे रहोगे ? अपनी फटी साड़ी को टांकते हुए एक दिन कजरी ने गोवर्धन से कहा। अपने अव्यवस्थित घर का निराशा पूर्वक मुआयना करते हुए गोवर्धन ने जबाब दिया-‘‘चला जाउॅंगा, कल सुबह की ही बस से। गांव की मिट्टी अपनी सोंधी महक से मोटे भोजन में भी उवर्रक का लेप लगा देती है, उसी भोजन का डटकर उपभोग करता हुआ बेंगू बड़ा होने लगा। करीब चार-पॉच वर्ष का होगा बेंगू जब अकेलेपन की झोली में खुशियां भरने एक नन्हीं सी बच्ची ने कजरी के गर्भ से जन्म लिया। कजरी के जन्मते ही कजरी अपने कपार पर हाथ धर कर बैठ गई। ‘‘अरि दरिदर‘.. इतना बड़ा दुःख देखते रहने के बाद भी तुझे यहीं आना था ? अभी-अभी जन्म लेने वाली गोंदली मां की बातों का आशय समझ चुकी थी, तथापि उसके चेहरे पर मुस्कान की लकीरें उभर आयी। मां की इन बातों से बेंगू तनिक उदास दिखा। कजरी समझ गयी, बेटे की छोटी उम्र की गंभीर सोंच को। अपने स्नेहांचल में उसने दोनों को ढक लिया।
कव्ची ईंटों की दीवार ढंके खपरैल छानी के अन्दर दोनों बच्चे बढ़ते गए। लड़कियॉं किन खाद की वस्तुओं के सेवन से कम उम्र में ही जवान हो जाती हैं, पता नहीं चलता। गोंदली के साथ भी ऐसा ही हुआ। नीलगिरि के पेड़ की भांति सनसनाती गांदली बारह वर्ष में ही जवान हो गई, जबकि बेंगू अभी भी बच्चों सी ही हरकतें करता। गांव के उसठ माहौल में पढ़ाई की अपेक्षा गिल्ली-डंडे को ही अहमियत दी जाती है। बेंगू उसमें महारथ हासिल किये था। मां से पिट जाने का खतरा उसे जरा भी न था, यही कारण था कि इस उम्र में भी वह सिर्फ अपना नाम तक ही लिखना सीख पाया था। 10 वर्ष की उम्र में ही पिता के साथ नोंक-झोंक कर फरार हुआ मुखिया का बेटा सरयू इन दिनों गांव वापस आया हुआ था। उसने अपने साथ लाये थे गंदी आदतों के टोकरी भर जैविक हथियार । यूॅं कहा जाय कि गांव के मूढ़-अनपढ़ नौजवानों के लिये उसके द्वारा लाये गए शैतानी तोहफे उनके उन्मादी हृदय की संजीवनी सिद्ध होने लगे। हूट-देहाती नौजवानों के जमघट से उसका दरबार सुशोभित होने लगा। इतनी उम्र तक गांव के बाहर रहकर भी वह इन्सान नहीं बन पाया। आखिर बिगड़ा बाप का बिगड़ा औलाद जो ठहरा। जहां बाहर की दुनिया की खाक भविष्य में सुधरने के उपाय सुझाती है, वहीं सरयू की बुरी आदतें उसके दोयम दर्जे के व्यक्तित्व में चार चांद लगा रही थी। बाप के पास पैसे की कमी थी नहीं जो वह निर्धनता की आग में पक कर सोना बनने का प्रयास करे। नशे की लत ऐसी लग चुकी थी कि सुधरने की कोई गुंजाइश ही न रही। भदरु तो इसका जैसे दाहिना अंग ही हो, जिसकी सलाह के आगे किसी का मोल ही नहीं।
गोवर्धन की नौकरी के लगभग उन्नीस वर्ष हुए जा रहे थे। इन उन्नीस वर्षों में जहॉ महंगाई आसमान छू रही थी, वहीं उसके मासिक पगार की अर्थव्यवस्था दिवालिया हुई जा रही थी। बच्चे जब तक छोटे थे वह खींचता रहा उन सबों के व्यवस्थित जीवन की बैलगाड़ी ।इन दिनों उनकी व्यक्तिगत जरुरतों में आश्चर्यजनक इजाफा हो चुका था। गोंदली के सलवार-जम्फर और टू-पीस कुछ ज्यादा ही पैसे खा जाते। बेंगू भी अच्छे खाने-पीने का कम शौकिन नहीं था, किन्तु वह पिता की माली हालत से अज्ञात भी न था। मस्तिष्क में एक निश्चित परिपक्वता के पश्चात विकास के फूल खिल ही जाते हैं। बेंगू चाहता था काम करके पिता के बोझ को हल्का किया जाय, किन्तु घर की ओर से अभी तक इसकी कोई इजाजत प्राप्त नहीं हुई थी। मासिक पगार से दुगुने खर्च के कारण गोवर्धन की व्यक्तिगत परेशानियां दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। वेतन वृद्धि की सिफारिश उसने कभी न की थी। इतने बड़े लोगों के समक्ष कुछ देर आंखों में आंखे डाले दो टूक बात कर लेना ही स्वयं में एक खिताब है, फिर भी अपने कलेजे के ट्यूब में साहस की हवा भर कर वह पहुॅचा सेठ चांदमल की दर पर। उसने अपनी व्यथा-कथा सुनाई किन्तु वे न पसीजे। सिर्फ गोवर्धन के पगार की बात न थी, पूरे फार्म के सारे कर्मचारियों की बात थी। सेठ जी ने दो टूक में जबाब दे दिया।
कितने खोखले विचारों वाले होते हैं ये अमीर लोग ? जब तक मजदूरों में कार्य करने का अदम्य साहस एवं क्षमता विद्यमान होती है, ये उनके दीवानें होते हैं। ज्योंहि उनके स्वाभिमान का शुक्राणु जन्म लेना प्रारम्भ कर देता है उनके अरमान फेंक दिये जाते हैं कुड़ेदानां में सब्जियों के बासी छिलके की तरह। गोवर्धन इस मायावी दुनिया की दिखावटी दांतों की हंसी से परिचित हो चुका था। मतलबी लोगों से मतलब भर ही वार्ताऐं उचित है, गोवर्धन अपनी मांगों पर अड़ा रहा। मालिक और मुलाजिम के बीच शब्दों की उठापटक चलती रही। अंत में अब तक के जमा-पूॅंजी का हिसाब कर गोवर्धन को फार्म के कार्यों से बरी कर दिया गया। अचानक में लिये गए सेठ चॉंदमल के इस निर्णय से गोवर्धन बौखला गया। अपने परिवार के भविष्य के उदर पोषण के स्वादहीन आसार दिखने लगे उसे, किन्तु इतनी जल्दी समस्याओं से हार मान लेना भी कोई मर्दांगिनी नहीं हुई। बड़ी हिफाजत से रकम संभाले बोझिल मन गोवर्धन करणगढ़ की ओर रवाना हुआ।
सरयू जो पिछले कई महीनों से गांव में धुनी रमाए बैठा था, हरकट बरजात था। यत्र-तत्र लोगों के समक्ष बद्तमीजी कर उनकी इज्जत का कचूमर निकाल देना उसके निरर्थक उद्देश्यों की प्रथम वरीयता थी। इतना मन चढ़ा लौंडा उसके सड़क छाप चमचों के अलावा करणगढ़ में और कोई न था। दुःखद बात तो यह थी कि जन्म से ही जिस गांव की लड़कियों के साथ उसने अपने बचपन के अधिकांश वक्त खेल कर गुजारे थे, उन्हीं लड़कियों का जीना दुश्वार कर डाला था। रोज अभिभावकों के शिकायतों के पुलिन्दे उसके मुखिया पिता तक पहुंचते पर उन शिकायतों पर कार्रवाई की बात तो दूर की बात, उल्टे शिकायत कर्ताओं को ही डॉट का सामना करना पड़ता। उनकी लड़कियों की बद्चलनी का उल्टा भोजन उन्हें ही परोस दिया जाता। ग्राम के संभ्रांत लोग चुप रहने में ही खुद की भलाई समझते। इनारे पर रोज सुबह-शाम पानी भरती लड़कियों की हंसी से जहां करणगढ़ चहकता था, वहीं इन दिनों कौओें की करकस ध्वनि ही उनके कानों की शोभा बढ़ाती। एक रोज तो उसने हद ही कर दी। गंजेड़ी भदरु की सहायता से पड़ोस में रहने वाली गोंदली पर ही अपनी हवस का झंडा गाड़ दिया। किसी तरह उनसे स्वयं को छुड़ाती गोंदली भाग पाने में कामयाब हुई। घटना भी ऐसी कि किसी को सुनाने पर खुद ही सूली पर लटकना हुआ, सो गोंदली को अपना मुंह बन्द कर लेना ही उचित प्रतीत हुआ। गदराई गोंदली की कद-काठी उसकी एकान्त उत्तेजनाओं का सर्वप्रमुख कारण थी। एक दिन बेंगू ने खुद अपनी ऑखों से गोंदली के साथ छेड़-छाड़ करते हुए सरयू को देख लिया था। उसके उबलते क्रोध का नतीजा यह हुआ कि सरयू औरा-बौरा कर उससे पिट गया। भदरु बेंगू के विकराल रुप को देखकर पूंछ पर पेट्रोल पड़े कुत्ते की तरह भाग निकला। दुबारा उसकी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह वापस आकर सरयू को संभाले। देखते ही देखते मधुमक्खी की तरह भीड़ इकट्ठा हो गयी। मुखिया के लहराते पगड़ी का रंग अचानक उदास हो गया था। मन में बदले की भावना लिये सरयू इस पीड़ा को सह गया। हां इतना अवश्य बदलाव आया कि वह अब ऐसी हरकतों से दिखावटी परहेज करने लगा
सेठ चॉंदमल के फॅार्म की नौकरी छोड़े गोवर्धन के कई माह गुजर गए। इन गुजरे महीनों में उसने अपने संचित पैसों का उपयोग बड़े ही संयमित तरीके से किया। अब नौबत यहां तक आन पहुॅची कि घर के बासन-बर्तन तक बिकने शुरु हो गए। उम्र भी ऐसी नहीं रह गयी थी कि इधर-उधर मजूरी करें। बेंगू घर की इन स्धितियों से हैरान-परेशान था। एक तो पेट पोसने की चिन्ता, दूजा जवान गोंदली के ब्याह की। जिन परिवारों की लड़कियां जवान हो जाती हैं, अभिभावकों की रातों की नींद उड़ जाती है। सबसे बड़ी समस्या उनके पैर फिसलने की बनी रहती है। बार-बार पैसे कमाने के लिये परदेश जाने के बेंगू के आग्रह पर आखिर एक दिन सपत्निक गोवर्धन को गंभीरता से विचार करना पड़ा। न चाहते हुए भी बेटे को नजरों से दूर भेजने के निर्णय लेने पड़े उन्हें। जन्म से आज तक आंखों के करीब रहा बेंगू आज उनकी आंखों से ओझल हो रहा था। उसकी अनुपस्थिति की बात गोंदली को भी सता रही थी, किन्तु उसके मन में एक प्रसन्नता थी वह यह कि पिता के बुढ़ापे की लाठी और उसकी राखी का धागा उसके बेहतर भविष्य के सुनहरे सपनों का राजकुमार अवश्य ही ढूंढ़ लाएगा। बेंगू के परदेश गए कई माह गुजर गए। इस बीच उसके खोज-खबर की एक भी चिट्ठी गांव नहीं आयी। गोवर्धन चिंतित था। आखिर हो भी क्यों न, एक बाप ही तो ठहरा ? दूसरी बात यह थी कि उसने घर की दहलीज से प्रथम मर्तबा ही अपने पांव निकाले थे। इन परिस्थितियों में अक्सर मां-बाप बुरे अंदेशे ही पाल बैठते हैं। गोवर्धन की चिंता दिन-ब -दिन बढ़ती ही जा रही थी। एक बार लड़के को देख आने में ही उन सबों की भलाई थी पर सूरत के पैसे का जुगाड़ वह लगा पाने में समर्थ न था। कौन देगा इतना सारा पैसा बतौर कर्ज ? पहले ही लोगों से लिये कर्ज वह लौटा नहीं पाया था। कितनी बड़ी विवशता थी उसके पास। वह ऐसे खांसते हुए कमरे की बीमार खाट पर बैठा था जहां सिर्फ निराशा के बिस्तर ही बिछे थे। रोज की भांति आज भी वक्त उर्घ्व दिशा की ओर अग्रसर सूर्य को अपनी अंजुलि में ढक लेने को आतुर था। टाट की अस्थिर खिड़कियों के पीछे अपने टुकड़े-टुकड़े के सपनों को उम्मीद की सूई से टांकती गोंदली स्वयं में खोयी थी कि तभी दूर से आती सायकिल की धंटी की मद्धिम आवाज उसके कानों से टकरायी। कोई उसकी ही ओर आता दिखाई दिया। शायद यहीं आ रहा हो, वह दरवाजे से बाहर निकली। उसका अनुमान सच ही था। पोस्टमेन ही था वह व्यक्ति। भैया का कोई समाचार होगा ? उसने गोवर्धन को सूचित किया। एक झटके में ही सभी बाहर निकल पड़े। बेंगू का पत्र था जो सूरत से आया था। साथ में मनीआर्डर के कुछ पैसे थे। गोवर्धन हाली-हाली पत्र पढ़ने लगा। लिखा था, ‘‘मां-बापू को गोड़ लगूॅ‘‘, मैं ठीक हॅूं । काम की ओर से कोई चिन्ता नहीं। फूर्सत मिलते ही घर आउॅंगा। अंत में उसने गोंदली को ढेर आशीष लिखा था। जहां एक ओर सपत्निक गोवर्धन की खुशियों की अंत्येष्ठि हो चुकी थी, वहीं बेंगू के भेजे पत्र और पैसे उनकी बची उम्र की संजीवनी बन गए।
बेटे के जन्म की सार्थकता को और अधिक बेतरतीवी से महसूसने की आवश्यकता न थी। वास्तव में पिता का योग्य उत्तराधिकारी था बेंगू जो घर की जटिल समस्याओं को वखूबी समझ रहा था। बचपन के उदण्ड भाई की वर्तमान समझदारी पर गोंदली भी कम गर्व नहीं कर रही थी। मात्र 9 माह की रही होगी सुरजि, जब किसी संपन्न घराने की उसकी कुंवारी मां ने, घर की नौकरानी गुलबिया के हाथों सौंप दिया था उसे। नारी के इस विकृत निर्णय से गुलबिया विस्मित हुए बिना नहीं रह पायी। आखिर अपनी गलती पर पर्दा डालने के लिये महिलायें क्यों इतनी शर्मनाक हरकतें करती हैं ? खैर मसोमात गुलबिया को इससे क्या । उसने ईश्वर को साक्षी मानते हुए उस नन्हीं सी बच्ची को छाती से लगा लिया। गुलबिया के रेतीले जीवन की हरियाली लौट आई। उस नन्हीं सी बच्ची ने उसके जीने के इरादों का पुनर्जन्म कर दिया। मां शब्द सुनी हो उसे याद नहीं। जबसे सुरजि ने उसे मां कहा उसे अपने कर्तव्य का बोध हुआ। दुगुने उत्साह से वह सुरजि के लालन-पालन में भिड़ गई। कितना सुकुन मिलता है, जब कोई अपना होता है ? गुलबिया हर वक्त बच्ची की देख-रेख में व्यस्त रहने लगी। पौधों के विकास में माली की अहम् भूमिका होती है। गुलबिया के लाड़-प्यार से सुरजि बड़ी होने लगी। जब वह मात्र 6 वर्ष की थी, गुलबिया की इच्छा हुई गंगा सागर तीरथ करने की। जीवन का क्या भरोसा ? कब मौत अपना करतब दिखा जाए। अकेली वह कहां छोड़ती सुरजि को। उसने बच्ची को भी साथ कर लिया। तीरथ के दौरान ही न जाने सुरजि गुलबिया के हाथों से कहां छिटक गई। उसके तो प्राण ही सूख गए। कहां-कहां नहीं ढूढ़ा उसने सुरजि को । थाना-पुलिस सभी किया पर सब व्यर्थ। अंत में थक-हार कर अधुरे तीरथ से ही वह लौट आयी अपने गांव पीरपैंती। गांव आकर वह ऐसी बीमार पड़ी कि फिर उठ नहीं पायी। सुरजि के गम ने उसे मौत के आगोश में ला खड़ा कर दिया था। इधर सुरजि एक बार फिर बीच सड़क पर आ गई। उसने भी गजब के भाग्य पाए थे। छोटी सी उम्र में ही पहाड़ जैसी मुसिबतों का सामना करना पड़ रहा था उसे। दो-चार दिनों तक तो टपरियों के साथ उसने अपने वक्त गुजारे। कितनी आत्मियता थी उनमें । दिन भर खाक छानने के बाद जो कुछ भी रुखा-सूखा उन्हें प्राप्त होता सभी मिल-बैठकर बांटते-खाते । जीवन के इन अनुभवों का भी कम महत्व नहीं। एक दिन रास्ते में गुजरते वक्त पुलिस की चलन्त गाड़ियों की निगाहें सुरजि पर पड़ी। वे उसे उठाकर चलते बने। इस मर्तबा वह बालगृह की चौखट पर छोड़ दी गई। बालगृह में सुरजि ने अपने जीवन के बेशकीमती 10 साल गुजारे। इन 10 वर्षों में उसे बालगृह की चहार दीवारी के अन्दर की दुनिया की वास्तविकता का कटु अनुभव हुआ। सुरजि इन वर्षों के दरम्यान जवान और खुबसूरत भी हो चुकी थी। जीवन के अच्छे-बुरे कार्यों का निर्णय वह ले सकने में सक्षम थी। गृह में तमाम लोग उसे बेहद चाहते थे। हो भी क्यों न ? टुअर बच्चों में शिष्टाचार का अभाव रहता है, लेकिन सुरजि में यह बात न थीं ।
मुसीबतों को झेलकर भी उसमें संतुष्टि का अभाव न था। बालगृह की चौखट से अब वह बाहर निकलना चाहती थी। उसने वार्डन से अपनी मुक्ति की प्रार्थना की। कोर्ट-कचहरी के इस मामले में अंततः उसे जीत हासिल हुई और वार्डन की अनुमति प्राप्त कर गृह की एक सहेली के पते पर सूरत प्रस्थान कर गई। जीवन के सुख-दुःख से आत्मा का साक्षात्कार हुआ। सूरत पहुंच कर उसने एक फर्म में काम पकड़ लिया, इस तरह उसने प्राप्त किये स्वतंत्र जीवन जीने के औषधीय साधन। जिस फार्म में सुरजि कार्यरत थी संयोग से बेंगू भी उसी फार्म में अपना भाग्य आजमा रहा था। नौकरी पक्की हुई और कार्य प्रारंभ। दोनों के काम करने के तरीके एक समान थे। प्रतीत होता था दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हां, इतना फर्क अवश्य था कि जहां एक ओर बेंगू गंभीर स्वभाव का था वहीं सुरजि चुलबुली थी। धीरे-धीरे दोनों का आपसी आकर्षण बिल्कुल करीबी की सीमाऐं छूने लगा, किन्तु चुप्पी पूर्व की तरह अभी भी बनी हुई थी। मर्द कितना ही कठोर ह्दय क्यों न हो, औरत का आकर्षण उसे जज्बाती बना ही डालते हैं। सुरजि के क्रिया कलाप उसे मुख खोलने पर विवश कर रहे थे। एक दिन संकोच की सारी सीमाओं का उल्लंधन करता बेंगू करीब पहुॅुच गया सुरजि के। आंखों से आंखें मिली और धीरे-धीरे दोनों की निकटता बढ़ती चली गई। साथ-साथ जीने-मरने के मूल्यवान सपने भी देखे जाने लगे। स्ुरजि मन ही मन स्थायी सुख की नींव तैयार करने में जुट गई, बेंगू अपने विश्वास के ईंट-गारे से भरपूर साथ देने लगा।
पटरी पर से उतर गए जीवन की बैलगाड़ी को पुनः पटरी पर पाकर गोवर्धन धन्य-धन्य हो गया। एक साथ कई मिटते अस्तित्व को बेंगू ने बड़े ही सलीके से सलटाया। समस्याऐं ज्यों-ज्यों एक-एक कर हल होती जातीं हैं, दूसरी समस्याऐं पुनः अपनी उपस्थिति दर्जा जाती हैं उन्हीं में से एक थी गोंदली की शादी। हाल ही में बेंगू ने पिता के नाम एक खत लिखा था ’’गोंदली के हाथ पीले करने हैं, पैसे की जुगाड़ में लगा हुआ हूॅं , एक अच्छे से दूल्हे की तलाश करेगें । आगे लिखा था आवश्यक हुआ तो पहुंच जाउॅंगा। खत के अंत में उसने सुरजि का भी जिक्र किया था। ’’मॉं’’, तू चाहती थी न कि एक सुन्दर सी बहु तेरे घर आए ताकि तेरी दिल्लगी होती रहे और घर की सारी जवाबदेही भी अपने उपर ले। यदि आ सको तो खुद अपनी आंखों से देख लोगी।
बीच सड़क पर ग्राम वासियों की मौजूदगी में बेंगू द्वारा पिटे जाने की धटना से सरयू अभी भूला नहीं था। हर वक्त वह मौके की तलाश में रहता। बेंगू न सही, गोंदली को सबक सिखाने की बैचेनी में वह पागल हुआ जा रहा था। सरयू के फेंके रोटी के टुकड़े पर पलने वाला भदरु आग में घी का काम कर रहा था। बेंगू के गॉंव से अनुपस्थित रहने के कारण गांदली भी घर से निकलती न थी। उसे ज्ञात था शिकारी भेड़िये उसकी टोह में अवश्य ही धुम रहे होंगे। रोज कुछ-न-कुछ अप शगुन सुनने को मिल भी जाता। आज फलां की बेटी बहियार शौच करने निकली थी जो वहीं लूट ली गई,तो आज फलां की बहु ………….। इस विरोध का सामना करने की हिम्मत किसी में न थी । ़ लौंडों के इतने बडे गेंग की मनमानी पर आपत्ति भी करे तो कौन ? अपनी जान किसे प्यारी नहीं ? सरयू व उनके दोस्तों के इस रवैये से गोवर्धन की रातों की नींद उड़ चुकी थी। उसका सोना-बैठना दूभर सा कर दिया था उसने। वक्त -बे-वक्त चंडाल-चौकड़ियों के साथ वह चंगेज खां की तरह गांव का गुरिल्ला परिक्रमा कर बैठता। उसकी दुष्टता से पूर्ण परिचित था गोवर्धन। उसने गोंदली को चौखट से बाहर कदम न निकालने की कड़ी हिदायत दे रखी थी। भविष्य का कोई नहीं जानता, किसके उपर कब कौन सी आफत आन पड़ेगी। उपर वाला भी कभी क्या इस रहस्य से रुबरु हो पाया है ? गोवर्धन जिस अनहोनी के काले फंदे से बच निकलना चाहता था, उसने उसका थोड़ा भी साथ नहीं दिया।
कई दिनों की लगातार कोशिशों के पश्चात आखिर एक दिन सरयू और हत्यारे मित्रों ने फॉक पाकर सबसे पहले गोंदली का शीलहरण किया और फिर उसकी हत्या कर दी। कजरी इस खूंखार और बहशी दृश्य को देखकर घटना स्थल पर ही मूर्छित हो गिर पड़ी। एक मात्र बेटी की डोली सजाने के जो सुखद सपने गोवर्धन ने देखे थे, शीशे की तरह पल भर में चकनाचूर हो गए। किसी ने ठीक ही कहा है………. सपने कभी हकीकत नहीं हुआ करते’’, आदमी मृगतृष्णा में सफर-दर-सफर यूं ही भटकता रहता है और जीवन की अंतिम परिणति मौत चुपके से उसे अपने आगोश में भर एक अनचिन्हें, अनजानी दिशा की ओर ले जाती है।
गोंदली की निर्मम हत्या से सब कुछ खो चुका गोवर्धन अपनी किस्मत पर आंसू बहाने के सिवा और कुछ कर भी नहीं सकता था। पैसे और पैरवी से संपन्न मुखिया के बेटे के विरुद्ध पुलिस भी रपट दर्ज करने से हिचकती थी, इससे सरयू का हौसला और भी बढ़ा रहता। गोवर्धन प्रयास करता ही रह गया जंजीरों में उसे जकड़वाने की पर सब व्यर्थ। पैसे की ढकार में पुलिस, कानून, न्याय सभी गुम हो जाते हैं। किसी तरह स्वयं को संभाले उसने गोंदली की हत्या के तार बेंगू तक भेजे। इस समाचार के सुनते ही मानो उसके पैरों के नीचे की धरती खिसक गई हो। वह सन्न रह गया। जिन हाथों से डोली उठाने की तैयारी की जा रही थी, उन्हीं हाथों को इस वक्त अर्थी तक नसीब नहीं थी। कितने क्रुर होते हैं इन निर्जीव पत्थरों के सजीव देवता ? क्या दलितों को सता कर ही इन अमीरों की आत्मा तृप्त होती है ? इस मायावी संसार में क्या सिर्फ दौलतमंदों का ही सिक्का चलता है ? मुझ जैसे लोगों का समाज में जीने-रहने का कोई अधिकार नहीं ? प्रश्नों की लम्बी श्रृंखला उसके दिमाग को झकझोर रही थी। बेंगू का माथा इन सब सोचों से फटा जा रहा था। प्रतिशोध के गर्म लहु उसकी आत्मा को अपमानित कर रहे थे। पल भर के लिये भी यहां रुकना अब मुमकिन नहीं था उसके लिये। बेंगू के मानसिक संतुलन से सुरजि परेशान थी। एक हप्ते के प्रतिशोध में सारा का सारा वजूद कब्रिस्तान में तब्दील हो जाने के बुरे अंदेशे को वह अपने मन से निकाल नहीं पा रही थी। वह कैसे संभाले बेंगू को ? बेंगू उसके सलाह-मशवरे का मोहताज नहीं था। उसके अक्खड़ स्वभाव से सुरजि खूब परिचित थी। साथ गांव जाने की उसकी दलील को वह कदापि स्वीकार नहीं करेगा। उसने सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। बेंगू चल पड़ा एक अंतहीन कुरुक्षेत्र की ओर जहॉं एक ओर वह था शस्त्रविहीन और दूसरी तरफ थी झूठ, फरेब ,अधर्म और अन्याय की एक बड़ी सी हथियार बंद फौज।
गोंदली की हत्या से उत्पन्न दहशत से सारा गांव खामोश था। बेंगू के वहां पहुंचते ही एक कान से दूसरे कानों तक फुसफुसाहटें तेज हो गई। निर्जीव मां-बाप के सब्र के बंध अचानक टूट पड़े। बेंगू उन्हें खामोशी के साथ संभाले जा रहा था। उसकी अचानक की चुप्पी में एक कठोर निर्णय जन्म ले रहा था, और वह था ’’खून के बदले खून’’। सरयू अब उसके हाथों से बचकर ज्यादा दूर भाग नहीं सकता था। हर बुरे कर्म का नतीजा बुरा होता है। बेंगू के गांव पहुॅच जाने से सरयू बौखला गया था। वह गांव से फरार हो जाना चाहता था, लेकिन अपनी ही आंखों से अपनी मृत्यु देख रहे सरयू की हिम्मत जवाब दे रही थी। पैसे की चकाचौंध में अंधा हुए उसके मुखिया पिता को यह ज्ञात हो चुका था कि जीवन की वास्तविकता क्या होती है। जिन्दगी भर दूसरों को लूटने-खसोटने वाले के उपर जब विपदा आती है, तभी वह समझ सकता है जीवन कितना मूल्यवान और उद्देश्य परक होता है। अपने बेटे के कुकर्मों से उत्पन्न हो रहे परिणामों की चिन्ता में मुखिया दुबला हुआ जा रहा था।
किसी ने ठीक ही कहा है’’जब काल मनूज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है’’। बेंगू खुफिया तरीकों से सरयू के पल-पल की खबरें रख रहा था। उसने मौका पाते ही काली रात की आंखों के सामने सरयू का काम तमाम कर डाला। मृत्यु पूर्व की उसकी डरावनी चीख से करणगढ़ का जर्रा-जर्रा थरथरा गया। जिन्दगी के हंसते-खेलते माहौल से बेदखल कर दिया गया था सरयू। गोंदली की हत्या के एवज में बेंगू के खाये कसम अब पूरे हुए ,लेकिन यह क्या ? बेटे की मौत के गम में पागल हुआ मुखिया पिता यह सब कहां तक सहन कर पाता ? उसके लटैठों ने भी बेंगू को वापसी की इजाजत नहीं दी। बेंगू भी उनके आक्रमणों से वहीं ढेर हो गया। सिर्फ फुकफुकी बची थी उसकी। उसके चाहने वालों ने जिसे अस्पताल पहुंचाने का प्रयास किया जहॉं डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। भीषण रंक्तिम अंत इससे पूर्व करणगढ़ के इतिहास में कभी नहीं घटित हुआ था।
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परिचय : लेखक की कई कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.
सम्पर्क : ‘‘मणि बिला’’ द्वारा :- डॉ0 अमर कुमार वर्मा, केवट पाड़ा (मोरटंगा रोड) दुमका, झारखण्ड।
मो0ः – 9431779546 एवं 8409718050

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