दोहा
भूख, गरीबी, बेबसी, पीड़ा औ संत्रास।
यही आज उपलब्धियाँ, कृषक-जनों के पास।।
नई सभ्यता ने जने, ऐसे आज उलूक।
संस्कृति के नभ पर रहे, मुख ऊपर कर थूक।।
जबसे इंटरनेट ने, जमा लिया व्यापर।।
सन्नाटे से भर गया, उछल-कूद-त्योहार।
कैसे रिश्तों की बुझे, वहाँ बताओ प्यास।
कैक्टस हैं देते जहाँ, फूलों का अहसास।।
जप, तप, पूजा-पाठ सब, लगने लगे फिजूल।
जबसे हमने प्रेम की, शीश लगा ली धूल।।
अधिवक्ता हैं भेडिये, औ जज हैं जल्लाद।
ऐसे में मासूम की, कौन सुने फरियाद।।
अपने दुख पर औरतें, वर्षों से हैं मौन।
ऐसे में तू ही बता, है अपराधी कौन??
खूनखराबा, गालियाँ, विज्ञापन, व्यभिचार।
सुबह-सुबह ये सब लिये, आता है अखबार।।
मौत दवा जैसी हुई, मिला उसे आराम।
फसलों पर भारी हुआ, जब बीजों का दाम।।
कैसे संसद को दिखे, आह! स्वेद-अवसाद।
सच है, उसने कब चखा, दोपहरी का स्वाद।।
जैसे तपती रेत पर, बूँद पड़े दो-चार।
रोजगार को बाँटती, वैसे ही सरकार।।
विमल खेतिहर कर रहा, दो दिन से उपवास।
देता नहीं उधार है, अब कोई सल्फास।।
जंगल कब डरता कहो, देख बाघ, सिंह, साँप।
लेकिन मानव देखकर, थर-थर जाता काँप।।
रिश्तों के ताबूत पर, ठोका अंतिम कील।
अपना बनकर घात ही, करता रहा वकील।।
मैं खुद सा बन कर रहा, बदल न पाया रंग।
इस कारण मैं हो गया, भूला हुआ प्रसंग।।
जो था उसका मोहरा, वह अब उसकी ढाल।।
सत्ता उत्तर की जगह, करने लगी सवाल।।
मेरे मालिक भूख को, होता नहीं बुखार।
यह कह रामू हो गया, खटने को तैयार।।
जनमत की खुरपी बिकी, हुई भोथरी धार।
तब तो संसद उगे, इतने खरपतवार।।
धन-अर्जन से खींच ली, उसने ऐसी लीक।
मैं बोलूँ तो वह गलत, वह बोलो तो ठीक।।
धर्मांधों ने जब किया, धर्मों का जयकार।
हमें विरासत में मिले, तब-तब नरसंहार।।
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परिचय : स्वतंत्र लेखन, सम्पादन और शिक्षण
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