विशिष्ट ग़ज़लकार : प्रेम किरण

1
हसीं मंज़र सलामत है
ये दुनिया ख़ूबसूरत है

नदी में चांद उतरा है
क़यामत की अलामत है

तुम्हारी झील सी आंखें
हमारी प्यास बरकत है

इधर है आग का दरिया
उधर मेरी मुहब्बत है

हमें नफ़रत की दीवारें
उठाने में महारत है

इसे काटो उसे जोड़ो
अदब मेंभी सियासतहै

हरइक चेहरा मुखौटा है
दिखावे की शराफ़त है

तुम्हे कैसे कोई चाहे
न सूरत है न सीरत है

किरन जी ख़ैरियत से हैं
मगर यारोंको दिक़्क़त है

2
शजर एक ऐसा लगाया गया
बहुत दूर तक जिसका साया गया

दुआएं बुज़ुर्गों की फूली फलीं
तमाम उम्र फल उसका खाया गया

हमेशा उसे मुंह की खानी पड़ी
कई बार तूफ़ान आया गया

तसव्वुर में उसके मेरा ख़ौफ़ है
मगर हाले-दिल को छुपाया गया

उसे इल्म है मैं उभर आऊंगा
किसी दिन जो पर्दा हटाया गया

मैं इक आग दिल में दबाये रहा
कोई घर न मुझसे जलाया गया

ये तहज़ीब यूं ही नहीं आयी है
मुझे मदरसे में पढ़ाया गया

 

3
जो परीशान फ़सीलों के उधर है कोई
तो कहां चैन से इस ओर बशर है कोई

कौन ख़ुशियों के निबालों को उड़ा लेता है
साफ़ दिखता तो नहीं चेहरा मगर है कोई

ज़ख़्म की एक सी तहरीर रक़म है दिल पर
पढ़ने वाला न इधर है न उधर है कोई

शह्र वीरान हुआ कैसे यह ख़ामोशी क्यों
लोग गूंगे हैं कि मुरदों का नगर है कोई

हम सफ़ीने को किनारे से लगायें कैसे
तेज़ तूफ़ान है दरिया में भंवर है कोई

चाहते हैं कि मुहब्बत से मिलें हम लेकिन
अपनी परवाज़ में थोड़ी सी कसर है कोई

छू के गुजरी हैं अभी ठंडी हवाएं मुझको
इसका मतलब कहीं सरसब्ज़ शजर है कोई
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परिचय : वरिष्ठ ग़ज़लकार, पटना

 

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