1
नोंक है टूटी क़लम की,
भाव मन के सब उपासे।
चीख का मुखड़ा दबा है,
और सिसकती टेक है।
शब्द हैं बनवास पर,
शून्यता अतिरेक है।
सर्जना का क्या सुफल जब,
गीत के हों बंध प्यासे।
छप रहे हैं नित धड़ाधड़,
पृष्ठ हर अखबार में।
क्षत-विक्षत कोपल मिली है,
फिर भरे बाज़ार में।
और फिर हम हिन्दू-मुस्लिम,
के बजाते ढोल ताशे।
दूर हैं पिंडली पहुँच से,
ऊँचे रोशनदान हैं।
कैद दहलीज़ों के भीतर,
पगड़ियों की शान हैं।
जन्म पर जिनके बँटे थे,
खोंच भर भी न बताशे।
प्रश्न तुझसे है नियंता,
क्यों अभी तक मौन है।
बिन रज़ा पत्ता न हिलता,
बोल आखिर कौन है।
मरघटी मातम न दिखता,
छाये क्या ऊपर कुहासे!
2
उम्मीदों के कैसे होंगे,
भारी फिर से पाँव।
धँसी आँख ज़िंदा मुर्दे की,
मिली पेट से पीठ।
आज़ादी भी प्रौढ़ हो चली,
हुई भूख अति ढीठ।
बंजर धरती बनी बिछौना,
सिर सूरज की छाँव॥
कड़वा तेल नहीं शीशी में,
ख़त्म हो गया नून।
दो टिक्कड़ अँतड़ियाँ माँगें,
हुआ है गीला चून।
जा मुंडेर से कागा उड़ जा,
लेकर कर्कश काँव॥
मौला मेरे रख दो काला,
पथवारी ताबीज़।
गाँव की मुनिया आ पहुँची
यौवन की दहलीज़।
पहन मुखौटे फिरें भेड़िये,
कब लग जाए दाँव॥
3
बाकी सब शुभ-समाचार है।
मिथ्या नव अध्याय गढ़े हैं,
अवनति के सोपान चढ़े हैं।
उन्नति का आलेख मृषा है,
क्षुधा बलवती तीव्र तृषा है॥
कृषि प्रधान देश है भूखा,
अन्नपूर्णा शर्मसार है।
काल पृष्ठ पर आहत अंकन,
विरुदावली छद्म का मंचन।
प्रतिभायें नेपथ्य विराजित,
झूठ-सत्य में सत्य पराजित॥
चढ़ी मुखौटों मंद हँसी है,
रुदन हृदय में जार-जार है।
बोनसाई नित महिमा मंडित,
तुलसी चौरे हुये विखंडित।
अपसंस्कृति का गर्दभ गायन,
संस्कारों का हुआ पलायन॥
आलेखों में साफ दिख रहा,
चाटुकारिता कारगार है।
है अवाम गांधारी खाला,
स्वविवेक पर ताला डाला।
वैमनस्यता का नित पोषण,
निज बांधव नव दोषारोपण॥
हम मंगल पर जा पहुँचे हैं,
समरसता बस तार-तार है।
बाकी सब शुभ-समाचार है॥
4
रंगमंच पर सभी जमूरे,
आह! ज़िन्दगी बनी नटी.
बाखर-बाखर ईंटें उखड़ीं,
एक मकां दो मकीं हुये।
तर्पण करने गया चल दिये,
अम्मा के दुख किसे छुये।
वही पूत है जिसके खातिर,
अकुलायी दिन-रैन खटी.
अंतड़ियों का प्रणय निवेदन,
ढीठ भूख अनसुनी करे।
भूखी सोयी भूखी जागी,
भूखों मरे न भूख मरे।
क्षुधा सघन सम सुरसा है,
रट रोटी की सघन रटी.
खेत रहन पर हुरिया का है,
संतो का क्यों फटा दुकूल।
शोषण शक्ति का है जारी,
गिद्ध दृष्टि अवसर अनुकूल।
पाँव भारी हुये पीर के,
गति श्वासों की तीव्र घटी.
दीनों को हक़ नहीं निवाला,
धनिक और भी हुये धनी।
ता-ता थैया नाच नचाये,
नीति डोर बेशर्म तनी।
सत्ता ओवरवेट हुयी है,
दीन पेट से पीठ सटी ।
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परिचय : अनामिका सिंह अना की कई रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं
संप्रति -शिक्षिका, शिकोहाबाद फिरोजाबाद