श्रद्धांजलि अमन :: अमन के नाम शिवम का पत्र
भाई अमन, १२ अक्टूबर, ०१:११ बजे
अभी २४ सितंबर को ही तो बात हुई थी तुमसे। मेरी कॉल रिसीव करते ही तुमने सबसे पहले मम्मी के बारे में पूछा कि ‘भाई, मम्मी की तबियत कैसी है अब? क्लोटिंग और स्वेलिंग ख़त्म होने में कितना वक्त लगेगा? डॉक्टर क्या बोल रहे?’ मैंने भी आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘अमन भाई, परेशान न होइए, मम्मी अब ठीक हो रही हैं। बस दो-तीन महीने का कोर्स है, वो पूरा करना होगा।’
इससे आगे तुम कोई सवाल करते; उससे पहले ही मैंने टॉपिक बदल दिया और कहा- ‘अमन, यार! प्रयास के चौथे सीजन के पहले क़दम के लिए गीत हुआ है। ज़रा देखो, कोई कमी हो तो बताओ। वैसे मुझे इसमें एक संबोधन खटक रहा। तुम भी अपनी राय दो!’ गीत की उसी पंक्ति में जो बात मुझे परेशान कर रही थी, वह तुम्हें भी खटकी। तुमने भी तुरंत बोला- ‘भाई, आपको सही खटक रहा था।’ कोई दूसरा संबोधन देखो। मैंने बोला- ‘वीर! कैसा रहेगा?’ तुमने प्रतिउत्तर दिया- ‘एकदम बढ़िया रहेगा भाई।’ साथ ही बधाई के साथ मेरी बढ़ाई करने में भी पीछे नहीं रहे। बोले- ‘यार! तुम अब इतने सिद्धहस्त हो गए हो कि तुम्हें मशविरा देने के क़ाबिल नहीं समझता हूँ ख़ुद को। मैं गीतों में तुमसे सीख रहा हूँ, लो, अब मेरा भी एक गीत इस्लाह कर ही लो।’ फिर एक ताज़ी ग़ज़ल सुनाऊँगा। आशा है पसंद आएगी।’ तुम्हारी कोई भी रचना सुनने की मेरी जिज्ञासा दोगुनी ही रहती है। मैंने भी बोला- ‘इरशाद! इनायत! स्वागत है भाई!’
वही एक अकेली और आख़िरी ग़ज़ल है जो मेरे फोन के कॉल रिकॉर्डर में बची है। तुम्हारी ग़ज़ल, तुम्हारी आवाज़ में और साथ ही मेरी ज़ुबाँ से वाह! वाह! और वल्लाह! के स्वर अब भी मेरे ज़ेहन में गूँज रहे हैं। आज भी जब घर से आगरा आ रहा था तो उसी ग़ज़ल को सुना, तो आँसू के अलावा एक शब्द मुँह से नहीं निकला। अमन! तुम्हारे जाने की बात मैंने नहीं स्वीकारी है। तुम मेरे लिए ज़िंदा थे, ज़िंदा हो, ज़िंदा रहोगे। तुम दिलो-दिमाग़ में हो यार! ये ज़माना चाहे कुछ भी बोल ले पर तुम मेरे लिए आज भी मेरे साथ हो भाई।
बस कुछ अफ़सोस पोटली में बाँध कर रख लिए हैं, जिनमें तुमसे ५ सितंबर को किया मेरा एक वादा और था। यही कि ‘शेषामृत- गीत विशेषांक’ तुम्हें हरि दादा की बिटिया की शादी में भेंट करूँगा। साथ ही वो एक मुखड़ा जो तुमसे बतियाते-बतियाते अनायास ही ज़ुबाँ पर आ गया था, पूरे गीत का आकार ले चुका था। बस तुम्हारे इंतज़ार में था कि जब तुम आओगे, तब फ़ोन पर सुनाऊँगा। पर तुम न यार! तुमने मौका ही नहीं दिया। वो गीत बिल्कुल भी अब किसी को नहीं सुनाऊँगा। कभी नहीं गाऊँगा। इसी अफ़सोस की पोटली में बंद कर दिया है यह गीत।
आज सुबह इतना विचलित था तुम्हारी ख़बर पढ़कर और सुनकर कि भगवान के साथ तुम पर भी गुस्सा आया फिर ख़ुद पर गुस्सा भी आया। भगवान पर इसलिए क्योंकि उसने किसी की दुआ कुबूल नहीं की और न ही मेरी मन्नतें कुबूल कीं। तुम पर इसलिए आया क्योंकि तुमसे सबकी आस बँधी थी। अगर हॉस्पिटल में तुम लड़ रहे थे तो बाहर इस समय और नियति से हम सब लड़ रहे थे। नियति को मैंने कई बार बोला कि अमन वापस आएगा, देख लेना। तुम्हारा कोई ज़ोर नहीं चलने वाला। मेरा भाई इन टुच्ची-मुच्ची परिस्थितियों से हार मानने वाला नहीं है। पर जब तुमने हार मानी तब हम सब नियति के आगे ये कड़वा सच स्वीकार करने के लिए घुटने टेक दिए। तीसरा, ख़ुद पर गुस्सा इसलिए आया कि मैं अपनी दुआओं और मन्नतों के दम पर नियति को बदलने तो चला था पर असफल रहा। अब भी लग रहा है कि कहीं न कहीं तुम्हारे जाने का एक कारण मैं भी हूँ। ईश्वर से कुछ ज़्यादा ही आस कर ली मेरे भाई। भले ही मैं आगरा और एटा में था पर दिलो-दिमाग़ तुम्हारे साथ ही थे। समय का एक-एक क्षण ऐसे कट रहा था जैसे मानो एक साल से भी लंबा हो। बार-बार हरि दादा, भरत भैया, और कई लोगों को फोन या मैसेज करके यही पूछता था कि अब अमन कैसा है? सुधार की ख़बर सुनता हो प्रफुल्लित हो उठता था और अगर सुधार न होने की ख़बर सुनता था तो दिल दहल जाता था। कल रात में भी मेरा मन बहुत डर रहा था किसी भी अनहोनी को लेकर। इसलिए फोन साइलेंट करके उल्टा कुर्सी पर रख दिया। साढ़े ग्यारह-पौने बारह बजे फोन की लाइट जली पर हिम्मत नहीं हुई फोन उठाकर देखने की। साढ़े तीन-चार बजे तक जागता ही रहा फिर पता नहीं कब आँख लग गयी। सुबह उठकर देखा तो शुचि दीदी का कॉल शो हो रहा था नोटिफिकेशन बॉक्स में। उसी वक़्त अनहोनी की आशंका हुई। डरते हुए फेसबुक खोल कर देखा तो मन धक्क! कर गया यार! आशा खत्री आंटी की पोस्ट मेरी आँखों के सामने थी जिसे पढ़कर यक़ीन ही नहीं हुआ। फिर और पोस्ट भी देखीं, व्हाट्सएप्प खोला तो हरि दादा और भरत भैया का मैसेज मिला कि शिवम! हम हार गए, अमन नहीं रहा। बस मेरे हाथ पैर काँप रहे थे यार! कुछ समझ नहीं आ रहा था। आँखों से निकलते आँसुओं के आवेग में तुम्हें न जाने मैंने कितना भला-बुरा कह दिया। मुझे माफ़ कर देना अमन! माफ़ी के क़ाबिल तो नहीं हूँ पर हो सके तो माफ़ कर देना मेरे भाई! ये साढ़े चार साल का भाईचारा और दोस्ती ताउम्र ज़िंदा रहेगी। एक वाक़या मुझे अब भी याद है, तुम्हारे MA के पेपर चल रहे थे और मैंने तुम्हें कुछ नए दोहे सुनाने के लिए फोन किया था। दोहबाज़ी के दौर का तुम्हारा आख़िरी दोहा जो तुमने मुझे कॉमेडी वाले ‘तन्ज़िया’ लहज़े में सौंपा था उस पर मैंने न जाने कितनी वाह-वाही की थी। पर वही दोहा जब यथार्थ की परिपाटी पर समय के साथ परिपक्व हुआ, तो उसने मेरा अमन मुझसे छीन लिया। तुम्हारा ये दोहा ज़िन्दगी में कभी ज़ेहन में नहीं लाऊंगा।
अपना राग अलापिये, ‘शिवम’ कहीं अन्यत्र।
अभी हमारा चल रहा, मौन व्रतों का सत्र।।
पर तुम यूँ मौन नहीं हो सकते भाई। अमन, तुम्हें हमेशा इसी तरह अपने मन की किताब में सहेज कर रखूँगा। शारीरिक रूप से भले ही तुम साथ नहीं हो पर तुम जीवित हो, कम से कम मेरे लिए तो अब भी तुम जीवित ही हो। ढेर सारा स्नेह अमन। ज़िंदाबाद मेरे भाई।
तुम्हारा भाई:
शिवम ‘खेरवार