श्रद्धांजलि :: अमन चांदपुरी की गजलें

श्रद्धांजलि :: अमन चांदपुरी की गजलें

(1)
दश्त में प्यासी भटक कर तश्नगी मर जाएगी
ये हुआ तो ज़िंदगी की आस भी मर जाएगी

रोक सकते हैं तो रोकें मज़हबी तकरार सब
ख़ून यूँ बहता रहा तो ये सदी मर जाएगी

फिर उसी कूचे में जाने के लिए मचला है दिल
फिर उसी कूचे में जाकर बेख़ुदी मर जाएगी

आँख में तस्वीर बनकर आज भी रहता है वो
आ गए आँसू तो ये तस्वीर ही मर जाएगी

बोलना बेहद ज़रुरी है मगर ये सोच लो
चीख़ जब होगी अयाँ तो ख़ामुशी मर जाएगी

नफ़रतों की तीरगी फैली हुई है हर तरफ़
प्यार के दीपक जलें तो तीरगी मर जाएगी

ख़त्म करना चाहते हैं आपसी रंजिश अगर
सबकी हाँ में हाँ मिलाएं दुश्मनी मर जाएगी

रंजो-ग़म से राब्ता मेरा न टूटे ऐ ख़ुदा
यूँ हुआ तो मेरी सारी शायरी मर जाएगी

दोस्तों से बेरुखी अच्छी नहीं होती ‘अमन’
दूरियाँ ज़िन्दा रहीं तो दोस्ती मर जाएगी

(2)
तीरगी से बच गए तो रौशनी लड़ने लगी
क्या बताऊँ मुझसे मेरी ज़िन्दगी लड़ने लगी

प्यार होता है अगर अंधा तो आख़िर बोलिए
हुस्न की चाहत में फिर क्यों आशिकी लड़ने लगी

मुद्दतों के बाद ले आई वहीं पर ज़िन्दगी
कमसिनी गुज़री जहाँ थी वो गली लड़ने लगी

जख़्म मेरी रूह को उसने अता जिस दिन किये
मैं रहा ख़ामोश मेरी शायरी लड़ने लगी

ज़ीस्त की लहरों से आजिज़ आ के जब इक रोज़ मैं
जा के कूदा हूँ नदी में, तो नदी लड़ने लगी।

जब भी दुनिया ने मुझे दी है नये चेहरों की खेप
हर मुखौटे से मेरी बे-चेहरगी लड़ने लगी

वस्ल की रातों का कड़वा सच हमीं से पूछिए
ज़िन्दगी तू मुझसे मिलने आई थी, लड़ने लगी

रक़्स करना फूल पर भँवरों का जब खलने लगा
टहनियों से, पत्तियों से तब कली लड़ने लगी।

आने का वादा किये बिन कृष्ण जब जाने लगे
राधिका की ओर से तब बाँसुरी लड़ने लगी

जंग ही हर मसअले का हल नहीं जब ऐ ‘अमन’
अम्न की चाहत में क्यूँ हर इक सदी लड़ने लगी

(3)
अब ज़मीं जैसे बँट रहे बादल
आसमाँ में सिमट रहे बादल

मेरे जैसा ही वो भी प्यासा है
अब है उससे भी कट रहे बादल

आज चमकेगी फिर कहीं बिजली
आज फिर से लिपट रहे बादल

तेरी तस्वीर बन भी सकती है
यूँ फ़लक पर है सट रहे बादल

दश्त की तश्नगी मिटानी है
एक मुद्दत से रट रहे बादल

आब ही आब चार सू है ‘अमन’
पाँच दिन से थे खट रहे बादल

(4)
रकीबों के ख़ातिर दुआ कर चले
मुहब्बत तेरा हक़ अदा कर चले

यही इश्क़ तेरा मुक़द्दर रहा
वफ़ा के सिपाही जफ़ा कर चले

वो जिनसे थीं रौशन मेरी महफ़िलें
वही दिल को मेरे बुझा कर चले

तुम्हीं तुम हो दिखते हमें चार सू
तुम्हें आँख में हम बसा कर चले

जली बस्तियाँ ढह गए सब मकाँ
ये दंगे सभी का बुरा कर चले

यहाँ कौन कब लूट ले क्या खबर
हर इक शख़्स ख़ुद को बचाकर चले

वो हाथों में ग़ज़लें लिए फिर रहा
कहो उससे ग़ज़लें छुपाकर चले

है नफ़रत की ज़द में ‘अमन’ का जहाँ
सकूं के पयम्बर दग़ा कर चले

 

(5)
अपनी लाश का बोझ उठाऊँ, नामुमकिन
मौत से पहले ही मर जाऊँ, नामुमकिन

दुनिया ने इतने खानों में बाँट दिया
फिर ख़ुद को यकजा कर पाऊँ, नामुमकिन

अपने दिल की बात तो मैं कह सकता हूँ
उसके दिल की बात बताऊँ, नामुमकिन

दुनिया तेरे कहने से नामुमकिन को
मैं मुमकिन मुमकिन चिल्लाऊँ, नामुमकिन

प्यार में ये सब कहना है आसान बहुत
लेकिन तारे तोड़ के लाऊँ, नामुमकिन

भूल गया हूँ उसको मैं सच है लेकिन
ये जुमला उससे कह पाऊँ, नामुमकिन

दुनिया छोड़ के जिस दुनिया में आया हूँ
उस दुनिया से बाहर आऊँ, नामुमकिन

उन आखों के नश्शे में हूँ चूर ‘अमन’
मैखाने की जानिब जाऊँ, नामुमकिन

(6)
दश्त में प्यासी भटक कर तिश्नगी मर जाएगी
ये हुआ तो ज़ीस्त की उम्मीद भी मर जाएगी

रोक सकते हो तो रोको मज़हबी तकरार को
ख़ून यूँ बहता रहा तो ये सदी मर जाएगी

फिर उसी कूचे में जाने के लिए मचला है दिल
फिर उसी कूचे में जाकर बेख़ुदी मर जाएगी

बोलना बेहद ज़रुरी है मगर ये सोच लो
चीख़ जब होगी अयाँ तो ख़ामुशी मर जाएगी

नफ़रतों की तीरगी फैली हुई है हर तरफ़
प्यार के दीपक जलें तो तीरगी मर जाएगी

रंज-ओ-ग़म से राब्ता मेरा न टूटे ऐ ख़ुदा
यों हुआ तो मेरी पूरी शायरी मर जाएगी

दोस्तों से बेरुखी अच्छी नहीं होती ‘अमन’
दूरियाँ ज़िन्दा रहीं तो दोस्ती मर जाएगी

(7)
जब यादों के अक्स उभरने लगते हैं
हम किस्तों में जीने मरने लगते हैं

मीरा की नज़रों से गर देखा जाये
प्याले में भी अक्स उभरने लगते हैं

हमको जब भी याद तुम्हारी आती है
आईने से बातें करने लगते हैं

जादू करती है जब दुआ बुज़ुर्गों की
हर मुश्किल से आप उबरने लगते हैं

दर्द-ओ-ग़म की भट्टी में तप-तप कर हम
कुंदन बनकर रोज़ निखरने लगते हैं

दिन भर आती रहती है बस उसकी याद
रात आँखों में ख़्वाब ठहरने लगते हैं

पहले चढ़ता है इक चेहरा आँखों में
फिर काग़ज़ पर शेर उतरने लगते हैं

धीरे-धीरे मंजिल आती है नज़दीक
‘अमन’ क़दम जब आगे धरने लगते हैं

(8)
आदमी चेहरे बदलता जा रहा है
आइना ये देखकर भरमा रहा है

हैं सियासत ने जहाँ भी पाँव रख्खा
झूठ का परचम वहीं फहरा रहा है

ख़ामुशी पसरी थी अंदर मुद्दतों से
इसलिए गूंगा भी अब चिल्ला रहा है

क़त्ल करके ख़ुश नहीं सैयाद मेरा
अपनी ग़लती पर बहुत पछता रहा है

कैसे समझाऊँ भला दिल को मैं ये अब
दिल सज़ा अपने किये की पा रहा है

झूठ की बेवज्ह मैंने की वकालत
सच मुझे अंदर ही अंदर खा रहा है

त्याग कर केंचुल ‘अमन’ नफ़रत की आख़िर –
कौन अम्नो-चैन से अब गा रहा है

(9)
उसके इतने क़रीब हैं हम तो
अब तो ख़ुद के रक़ीब हैं हम तो

शेर कहते हैं छोड़कर सब काम
यार सचमुच अजीब हैं हम तो

ये दुआ है नवाज़ दे या रब
इल्मो-फ़न से ग़रीब हैं हम तो

इब्ने मरियम से अपना रिश्ता है
आशना-ए-सलीब है हम तो

अब तलक इश्क़ से है महरूमी
अब तलक बदनसीब हैं हम तो

हम तो शायर हैं ऐ! अमन गोया
इस सदी के अदीब हैं हम तो

(10)
सोने की कोशिशें तो बहुत की गईं मगर
क्या कीजिए जो नींद से झगड़ा हो रात भर

मैंने ख़ुद अपना साया ही बाँहों में भर लिया
उसका ख़ुमार छाया था मुझ पे कुछ इस कदर

आँखों में चंद ख़्वाब थे और दिल में कुछ उमीद
जलता रहा मैं आग की मानिंद उम्र भर

क्यूँ कोई उसपे डाले नज़र एहतेराम की
कहलाये इल्मो फ़न में जो यकता न मोतबर

पल में तमाम हो गया क़िस्सा हयात का
उसकी निगाह मुझ पे रही इतनी मुख़्तसर

दुश्वारियों से ज़िन्दगी आसाँ हुई मेरी
दुश्वारियों का ख़ौफ़ गया ज़ेह्न से उतर

हमने सुख़न में कोई इज़ाफ़ा नहीं किया
गेसू ग़ज़ल के सिर्फ़ सँवारे हैं उम्र भर

इल्मो हुनर मिले हैं मगर तेरे सामने
पहले भी बेहुनर थे ‘अमन’ अब भी बेहुनर

(11)
तू जो काँटों पे चल नहीं सकता
ख़्वाब सच में बदल नहीं सकता

ये ही अच्छा है मैं रहूँ बचकर
तू तो ख़तरा है टल नहीं सकता

दिल के बदले है संग शीशे का
आँसुओं से पिघल नहीं सकता

चाँद आता है मेरे कमरे में
मैं ये कमरा बदल नहीं सकता

छल कपट का शज़र जमाने में
बढ़ तो सकता है फल नहीं सकता

घर बदलना है उसकी फितरत में
साँप केचुल में पल नहीं सकता

शेर कहने की उसको आदत है
वो ये आदत बदल नहीं सकता

(12)
तू जो तनके खड़ा नहीं होता
मैं भी इतना बुरा नहीं होता

मंज़िलें पा चुके हैं हम, फिर भी
ख़त्म यह हौसला नहीं होता

काम तो सिर्फ़ काम होता है
काम छोटा-बड़ा नहीं होता

शोर करतीं नहीं ये दीवारें
कुछ बुरा गर सुना नहीं होता

रोज़ की तरह आज आता वो
हाँ, अगर कुछ हुआ नहीं होता

मुझमें भी होतीं ख़ूब कमियाँ गर
घर में यह आइना नहीं होता

दिल से दिल ही तलक तो जाना है
ख़त्म क्यों रास्ता नहीं होता

शाइरी ही ‘अमन’ का सब-कुछ है?
उससे अब वो जुदा नहीं होता

(13)
किसी भी शे’र में अच्छा बुरा क्या
बस इतना देखिए किस ने कहा क्या

अभी इंसाँ तो बन पाए नहीं हो
बनोगे आदमी से देवता क्या

सितारों में ये कैसी खलबली है
फ़लक पर आ गया सूरज नया क्या

किताबों से उसे फ़ुर्सत नहीं थी
वो पढ़ता आप का चेहरा भला क्या

तुम्हारी ही तरह हो जाऊँ या’नी
बदल लूँ मैं भी अपना रास्ता क्या

तरक़्क़ी कर रहा है मुल्क बे-शक
तरक़्क़ी ने ग़रीबों को दिया क्या

‘अमन’ हम तो फ़क़ीर-ए-इश्क़ ठहरे
फ़क़ीरी में ख़सारा फ़ाएदा क्या

(14)
ख़ुद भी सय्याद इम्तिहान में है
एक ही तीर अब कमान में है

धूप अब आ गई मुंडेरों पर
सुब्ह का शोर मेरे कान में है

दिन मिरा ढल गया तो ग़म कैसा
धूप अब भी बहुत सी लॉन में है

उस को मुझ पर यक़ीं नहीं होता
जाने वो कौन से गुमान में है

आसमाँ की तरफ़ है उस की नज़र
जो भी अब उम्र की ढलान में हैं

जो मकीं था कभी मिरे दिल का
आज-कल ग़ैर के मकान में है

(15)
क्यूँ अबस जान मेरी रोती हो
आँसुओं में मुझे डुबोती हो

अपनी क़ीमत बता रही हो जो
सोना-चाँदी कि हीरा-मोती हो

रात भर जागते हैं ये तारे
और तुम सुब्ह तलक सोती हो

ये नए दौर का करिश्मा है
जीत के ख़्वाब तुम सँजोती हो

अश्क बेवजह मेरे बहते हैं
अश्क से तुम ग़ज़ल पिरोती हो

इश्क़ में धोखे बारहा खाकर
इश्क़ की लाश को अब ढोती हो

(16)
वस्ल क्या शय है और फ़ुरकत क्या
तुमको मालूम है मोहब्बत क्या

मेरी आँखों ने तुमको देख लिया
अब है बीनाई की ज़रूरत क्या

अब उसे घर की याद आयी है
ढह गई इश्क़ की इमारत क्या

वस्ल से दूर हो गया भौंरा
फूल से उड़ गई है निकहत क्या

कितने बेजार हो गए हो तुम
इश्क़ में हो गई थी उजलत क्या

कितनी रौनक है बज़्म-ए-फ़ुरकत में
है ‘अमन’ आपकी सदारत क्या

(17)
जब दुनिया से थक जाता हूँ
तब मैं अपने घर आता हूँ

पल भर की ख़ुशियों से पहले
मैं सदियों का ग़म पाता हूँ

उसकी यादों के सागर से
अश्कों के मोती लाता हूँ

दोस्त कोई हो या हो दुश्मन
इन दोनों से कतराता हूँ

कौन-सी मंजिल है ये ग़म की
अब तो मैं हँसता गाता हूँ

नया-नया हूँ ‘अमन’ सुख़न में
इसीलिए कुछ हकलाता हूँ

………………………………………………..

गीतिका

पेट की भूख से रात भर जागकर
अनगिनत स्वप्न नैनों में जाते हैं मर

चूमकर पुष्प को है मुदित इक भ्रमर
देखकर उसको कलियों ने खोले अधर

मृत्यु तो सत्य है इससे बचना है गर
पुण्य कर्मों से कर लें स्वयं को अमर

हर तरफ़ द्वेष है, हर तरफ़ है जलन
भूल बैठा मनुज नेह की अब डगर

आस नैनों में थी, प्यास होठों पे थी
इक पुजारन तड़पती रही रात भर

रूप की धूप का खेल है चार दिन
किस नदी में है उठती निरन्तर लहर

प्रीत के पंथ पर लोग चलते तो हैं
क्या किसी को कभी आई मंज़िल नज़र

नभ को छू लूँगा मैं, मुझको विश्वास है
इसलिए भाग्य रथ से गया हूँ उतर

प्रेम तो प्रेम है, प्रेम छुपता नहीं
प्रेम-नदिया ‘अमन’ बह रही है निडर

 

 

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