मां का आशीर्वाद
– ज्वाला सांध्यपुष्प
आज शहर के युवा चिकित्सक अमितशंकर के प्रथम पुत्र की छट्ठी की रस्म थी और वे खुद अनुपस्थित थे।शहर के सभी गणमान्य व्यक्ति पधारे और भोज खाकर चले भी गए। उपहारों से अमित का घर भर गया है मगर उनकी पत्नी अस्मिता के चेहरे पर मायूसी-सी छाई है, पति के पुश्तैनी घर से न लौट पाने को लेकर।रात के ग्यारह बज रहे हैं और डा अमित अभी तक न लौटे हैं। शहर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर देहात में मकान होने से तो ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वे स्कूटर से हैं और साथ में कंपाउंडर भी। अस्मिता अभी सोच ही रही है कि बाहर दरवाजे पर स्कूटर लगने की आवाज के साथ डा अमित का घर में आगमन होता है।
आते ही वे पत्नी से माफी मांगने के लहजे में बोलते हैं–जरा सी देर हो गई। मां तो पहले की तरह ही बीमार थी। ताबीज़ बनवाने में उसे कुछ देर हो गई। साथ ही रास्ते में एक पेसैंट को देखने में भी कुछ समय लग गए। सभी लोग ठीक से खा-पी लिए न। डा यू पी सिन्हा,डा के एन शर्मा,डा विजय वर्मा आदि आए थे न… कहते हुए उसने अपनी पत्नी की ओर ताबीज़ बढ़ाई। ताबीज़ क्या देखी , पत्नी का आक्रोश राकेट की तरह सातवें आसमान पर चढ़ गया।और जैसे ही उसने गुस्से में उसे फेंकना चाहा — यही दो पैसे की वस्तु … तांबे की ताबिज़। डा अमित इसके हाथ को रोकते हुए बोले- इसमें मेरी मां का आशीर्वाद है अस्मिता!इसे रुपए-पैसे से , सोने-चांदी व अन्य कीमती उपहारों से मत तौलो… आधुनिकता और भौतिकता ने हमें कृत्रिमता के जंगल में जीने को बाध्य कर दिया है और हम सहजता एवं प्रकृति को भूलते जा रहे हैं। नैसर्गिक संबंधों की अवहेलना कर हम कृत्रिम संबंधों की ओर आकृष्ट होते जा रहे हैं।हम डाक्टर हैं मगर रोगी का इलाज करते वक्त भी भगवान को ही याद करते हैं..। कहते हुए डा अमित की आंखें डबडबा आई थीं।
—मुझे माफ़ कर दो अमित… प्लीज़। कहती हुई अस्मिता ताबीज़ को अपने नवजात बच्चे को पहनाने लगी थी।
लघुकथा :: ज्वाला सांध्यपुष्प
