मन की स्लेट
औरतों के दुःख
बड़े अशुभ होते हैं
और उनका रोना
बड़ा ही अपशकुन
दादी शाम को
घर के आंगन में
लगी मजलिस में ,
बैठी तमाम बुआ ,चाची ,दीदी ,भाभी
और
बाई से लेकर
हजामिन तक की
पूरी की पूरी
टोली को बताती
औरतों के सुख
और दुख का इतिहास
समझाती सबर करना
अपने भाग्य पर ..
विधि का लेखा कौन टाले
जो होता है
अच्छे के लिए होता है
सुनी थी
उसने अपने मायके में
कभी
भगवत कथा
थोड़ा बहुत पढ़ा
रामायण और गीता भी ..
फिर
पढ़ने से ज्यादा
सुनने लगी
क्योंकि
ज्यादा पढ़ लेने से
बुद्धि खराब हो जाती है
मर्दों की नहीं
पर औरतों की
पूछा था
उसने भी कभी
अपनी दादी से
की ज्यादा पढ़ के
खाली औरतों की
बुद्धि ही
क्यों खराब होती है ?
मर्दों की काहे नहीं
तभी डपट के
खिंचे गए कान
और फूँका गया था
एक मंत्र
औरतों को नहीं पूछने चाहिए
कोई भी सवाल ..
ज़िन्दगी खराब होती है
नहीं पूछने चाहिए
“क’ से शुरू होता
कोई भी प्रश्न
जैसे
क्यों गए ?
कहाँ गए ?
क्यों नहीं बताया ?
कब आओगे ?
ऐसे हर सवाल से
लगती है
अच्छे भले घर में आग
औरत को मुंह बन्द
और
दिमाग खाली रखना चाहिए
इससे होती है बरकत
बसता है सुखी संसार
आते हैं देव
विराजती है लक्ष्मी
दिमाग के सांकल बन्द रखो
सारे सवाल
मन के ताल में ड़ूबा दो
सारी शिकायतें
दिमाग की देहरी पर छोड़ दो
और हाँ ..
मन की कुन्डी भी
लगा लियो जोर से
ना सुनना
कभी सपनों की कोई आहट
सफेद रखो मन की स्लेट
ना गढ़ो कोई तस्वीर
और कभी किसी अभागी रात
जो देख लो
कौई चेहरा तो
तुरंत मिटा दो
क्योंकि
हमेशा कोरी रहनी चाहिए
औरत के मन की स्लेट
प्रेम
गीली आँखों
और सूखी प्रार्थनाओं के बीच
एक समंदर
एक सहरा और एक जज़ीरा है
प्रार्थनाएँ तपते सहरा सी हैं
बरसों बरस
चुपचाप
तपती रेत पर चलते हुए
मुरादों के पाँव आबला हुए जाते हैं
और
फिर सब्र का छाला फूटता है,
रिसती है
हिज्र की एक नदी
और उमड़ता है आँखों से
एक सैलाब
सबकुछ डूबने लगता है
बची रहती हैं
दो आँखें
नहीं डूबतीं
किसी नदी,
किसी समंदर,
किसी दरिया में
वो
तैरती रहती हैं लाश की मानिंद
और आ पहुँचती है
उस जज़ीरे पर
जहाँ प्रेम है।
प्रतीक्षाएं
कई
प्रतिक्षाएँ
होती हैं अंधी
अंतहीन सुरंग-सी,
जिनमें
आँख की कोर से
प्यार के मौसम में खिले ढ़ेर सारे ख्वाबों के फूल
और
ख्वाहिशों के दस्तावेज
गिर जाते हैं,
ऐसे कि
फिर कभी नज़र नहीं आते
और
बरसों बाद
जब
बरसता है याद का कोई सिरा
जब
डूबने लगता है सारा अस्तित्व
तब
कहीं अचानक से
उस गहरी
अंतहीन सुरंग के
मुहाने पर दिखते हैं
मुरझाए ख्वाबों के फूल
और
आधी-अधूरी इबारत वाली
ख्वाहिशों के दस्तावेज
जिन्हें,
जैसे ही
वक्त की नाज़ुक उँगलियाँ
सहेजना चाहती हैं
वे
हो जाते हैं चिन्दी चिन्दी
झड़ जाती है
उस फूल की हर सूखी पंखुड़ी
पर
कुछ खुश्बू
कुछ स्याही बची रहती है
एक
प्रमाण पत्र की तरह
कि
कभी किया था
मैंने तुम्हारा इंतज़ार
उतनी ही शिद्दतों से
जितनी
शिद्दतों से भूले थे तुम मुझे।
मौन
तुमने
जब से
मेरा बोलना
बन्द किया है
देखो
मेरा मौन
कितना चीखने लगा है
.गुँजने लगी है
मेरी असहमति
और
चोटिल हो रहा है
तुम्हारा दर्प l
………………………………………………………………………………
परिचय : कवियत्री कवि-कुंभ पत्रिका की संपादक हें