1
सगुन पांखी
अब नहीं इस तरफ आते।।
जि़न्दगी जकड़ी हुई है
हादसों मे।
खून बन कर
बह रहा है भय नसों मे।
स्वस्ति-वाचक शब्द
फिरते मुँह चुराते।।
हाथ खाली, पेट खाली,
मन दुखी है।
मुश्किलों का
फूटता ज्वालामुखी है।
प्राण-पंडुक
देह मे हैं कसमसाते।।
काल की
विकराल गति को थामना है।
ज़िन्दगी जीते
यही शुभकामना है।
दिन फिरें फिर मृदुल
खुल कर खिलखिलाते।।
2
मानव की साँसों से देखो
यह कैसी हो रही शरारत।।
नियमों की धज्जियां उड़ा कर
बना रहे हैं घर को ही रण।
भीड़ जुटा कर दिया जा रहा
काल देवता को आमंत्रण।
तवारीख की छाती पर है
लिखी जा रही क्रूर इबारत।।
बेहूदी तकरीरें करके
भ्रम की जड़ें जमाते मन में।
कोरोना के घातक विष को
फैलाते हैं जन-जीवन मे।
यह कैसी मजहब की खिदमत
यह कैसी हो रही इबादत?
3
घबराये पाँव मुड़े
माटी की ओर।।
हाथों से काम छिना है
मुँह से कौर।
महानगर छीन रहा
रहने का ठौर।
त्राहि माम्-त्राहि माम्
मचा हुआ शोर।।
वक्त की जरूरत है
रहें दूर-दूर।
नेह गाँव-घर का पर
करता मजबूर।
निकल पड़े लोग
पकड़ आशा का छोर।।
भूख-प्यास ने कर दी
बहुत कठिन राह।
कोरोना ने
सब कुछ कर दिया तवाह।
काँप-काँप जाती है
साँसों की डोर।।
4
काल देवता
काली आँधी लेकर आये।
जिधर देखिए,
उसी तरफ कोहराम मचा है।
जिसे लाँघ पाना मुश्किल,
वह व्यूह रचा है।
शक्ति-स्रोत थे जो,
उनके भी स्वर थर्राये।।
कोरोना का कहर
पड़ रहा सब पर भारी।
खौफ मौत का है
सारी दुनिया पर तारी।
बन्द घरों मे
निर्धन-धनी सभी घबराये।।
फेल हुआ विग्यान
महामारी के आगे।
मरते हैं हर रोज
सहस्रों लोग अभागे।
मृत्यु घूमती फिरती
पूरा मुँह फैलाये।।
5
“कालदूत” बन घूम रहा है
धरती पर कोरोना।।
बस्ती बस्ती
बहुत ठाठ से
पसरा है सन्नाटा।
क्रुद्ध प्रकृति ने
मानव के मुँह
ऐसा जड़ा तमाचा।
सर्वशक्तिशाली
होने का भ्रम
बिल्कुल मत ढोना।।
छोटा सा जीवाश्म
कहर वरपा
सकता है कितना।
नहीं प्रकृति से
जीत सकोगे
कोशिश कर लो जितना।
संयम -नियम अगर त्यागे तो
सब कुछ होगा खोना।।
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परिचय : साहित्य की विभिन्न विधाओं में मृदुल शर्मा की 17 पुस्तकें प्रकाशित
संपादक : चेतना स्रोत (काव्य त्रैमासिकी)
सम्पर्क :- 569 क/108/2, स्नेह नगर आलमबाग, लखनऊ-226005
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गीतों को पत्रिका में स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।
मृदुल शर्मा