बाज़ारी अजगर
बेच रहा
जंगल अब
शावक की खाल
माँ अपने
लालों को
रख तू सम्भाल
नयी-नयी विज्ञप्ति
नये-नये रूप
छाया तक बेच रही
अब तीखी धूप
फाँस रहा
जीवन को
यह अंतरजाल
खेत, हाट निगल गये
निगल गया गाँव
बरगद भी खोज रहा
गमले में ठाँव
बाज़ारी
अजगर का
रूप है विशाल
चन्दन-सा महक रहा
काग़ज़ का फूल
कृत्रिमता झोंक रही
आँखों में धूल
जान रहे
फिर भी हैं
मौन हर सवाल।
हम सब का इतवार
एक चाय के
इंतज़ार में
बैठा है अख़बार
खोज रही हैं
कलियाँ कब से
प्यारा-सा स्पर्श
कैरी के पत्ते
रचने को
व्याकुल स्वाद-विमर्श
धीमे-धीमे
बीत रहा है
हम सब का इतवार
खिड़की के
पर्दाें से तय थी
आज तुम्हारी बात
मिलने को
आतुर है छत पर
तुमसे नवल प्रभात
ताक रही हैं
पंथ तुम्हारा
आँगन, छत, दीवार
इस घर के
कोने-कोने में
पाया तुमने मित्र
पर मेरी इन
आँखों में भी
जीवित एक चरित्र
मेरी छुट्टी
का भी तुमपर
थोड़ा है अधिकार।
हम मिट्टी के शेर
हमने सत्ताएँ
बदली हैं
हम कब बदले?
बख्तियार
मन का नालंदा
रोज़ जलाता है
फूट डालकर
हमपर कोई
राज चलाता है
सदियों से कुछ
बात नहीं
आई है पल्ले
वैशाली के
वैभव पर
इतराने वाले
दुनिया को
गण का शासन
समझाने वाले
एक तरह से
गिरे निरंतर
पर कब सँभले?
पाटलिपुत्र
घनानंदों को
पाल रही है
अपनी कायरता में
ख़ुद को
ढाल रही है
हम मिट्टी के शेर
सिर्फ़ मिट्टी
ही निकले।
गमलों में जंगल
गमलों में
जंगल को बोना
चाह रहे हैं
महानगर ने
फिर से अपना
पाँव बढ़ाया
नया ट्रेंड,
बाज़ारों में
लकड़ी का आया
और अधिक
कुछ विकसित होना
चाह रहे हैं
खेत जी रहे
वर्षों से
सूखे की चिंता
तापमान
भी आगे रोज़
पहाड़ा गिनता
और चैन से
हम सब सोना
चाह रहे हैं
आसमान से
सुबह-सुबह की
चहक छीनकर
हम मिट्टी से
उसकी सौंधी
महक छीनकर
कुदरत के दिल में
इक कोना
चाह रहे हैं।
तब क्या थे, अब क्या हैं
नहीं ज़रूरत रही
शहर को मज़दूरों की
अब लौटे हैं गांव, वहाँ पर
क्या पायेंगे?
छोड़ गांव की खेती-बाड़ी
शहर गये थे
दिन भर की मजदूरी में
दिन ठहर गये थे
सपनों से कैसे
सच्चाई झुठलायेंगे?
शहरी जीवन के शहरी
अफसाने लेकर
त्योहारों में आते थे
नज़राने लेकर
तब क्या थे
अब क्या हैं
कैसे समझायेंगे?
टीस रहे हैं कबसे
उम्मीदों के छाले
पूछ रहे हैं प्रश्न भूख
से रोज़ निवाले
कहाँ आत्मनिर्भर होंगे
कैसे खायेंगे?
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परिचय : लेखक राहुल शिवाय की 12 मौलिक व 9 संपादित कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. साथ ही कविता कोश के उपनिदेशक का दायित्व भी संभाल रहे हैँ.