मालिनी गौतम
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कहा-अनकहा
कुछ आँसू
अपने सर्वाधिक प्रिय
व्यक्ति से भी छुपा लिए गये,
निविड़ अंधकार के
प्रगाढ़ क्षणों में
अधरों पर फैली
हल्की स्मित रेख के पीछे
वे कसमसाते रहे…छटपटाते रहे।
दुःख जितने थे
कभी कहे नहीं गये
वे खाते रहे हिचकोले
उन्हें समझे जाने
और न समझे जाने की
कवायदों के बीच ।
ढेरों शिकायती पत्र
तुड़े-मुड़े
फड़फड़ाते रहे
अधखुले होठों पर
चुम्बनों ने दबा दी
उनकी सरसराहट ।
सिर्फ एक हँसी ही थी
जो झर गई हरसिंगार की तरह
अंधकार को भेदते हुए ।
इस हँसी को ही तुमने मान लिया
उन मुलाकातों का
कुल जमा-हासिल
आँसुओं, शिकायतों और दुःखों को
अनावृत्त होने से बचाकर
औरत अक्सर बचा लेती है
अपने होने को
अनावृत्त होने से ।
ठंडे और गर्म के बीच
कामवाली के हाथों
धुला हुआ आख़िरी बर्तन
अनायास ही ज़रा जोर से पटका गया ।
पटकने से हुई
इस तेज़ आवाज़ में निहित था
शायद बीती रात बेवजह ही
अपने शराबी पति से खाई हुई मार का दर्द,
एक घर का काम निपटाकर
जल्दी-जल्दी दूसरे घर का
काम निपटाने की हड़बड़ी,
छाती पर पहाड़ हुई जाती
लड़कियों के शादी-ब्याह की चिंता,
बाप के नक्शे-कदम पर
आवारा हुए जाते लड़के के प्रति रोष
या और भी बहुत-बहुत कुछ …..
गृहिणी अब अक्सर ऐसी आवाज़ों पर
नाराज़ नही होती
बल्कि मुस्कराते हुए
कामवाली के सिर या कंधे पर
अपने हाथ का स्नेहिल दबाव बनाते हुए
उसके हाथ में थमाती है
गर्म चाय का प्याला ।
गर्म चाय और ठंडी जीभ के बीच
संतुलन साधने के समयांतराल में ही
आँख, मुहँ और मन को भी
मिल जाता है वक्त
खुद को साधने का ।
जीवन ऐसे ही सधता है
ठंडे और गर्म के बीच ।
चाकू-छुरी तेज़ करा लो
गली-मोहल्लों में
जब-तब गूँजती
“चाकू-छुरी तेज़ करा लो” की आवाज़
लोगों के मन में
बनाये रखती थी ख़याल “धार” का ।
तेज़ धार लोहे की छुरियों से
मैथी-बथुआ, पालक-सुआ के साथ
कभी-कभी अनायास ही कट जाती
उँगली की पीड़ा
निरन्तर बनाये रखती थी चिंता
कि ज़िंदगी में
ठीक-ठीक धार का होना जरूरी है ।
नये ज़माने की
स्टील की छुरियों को
बार-बार धार की दरकार नहीं होती
तभी तो भूल जाती हैं औरतें
धार का ख़याल
और हो जाती हैं कुंद ।
किसान-मज़दूर
अब भी बचाये हुए हैं अपनी धार
क्योंकि स्टील की छुरियों से
नहीं कटती घास
और खेत में खड़ी फसलें ,
वहाँ तो तेज़ धार हँसियो की ही दरकार है ।
किसान मेहनत के पत्थर पर
घिस-घिस कर
तेज़ करते हैं हँसिये की धार ,
और जरूरत पड़ने पर
दिखाते रहते हैं उसकी चमक
कुंद और भोथरे हो चुके लोगों को ।
वे जानते हैं कि धार तेज़ करने के लिए
हमारा, लोहा होना जरूरी है
कि लगती रहे हमे जंग,
बदलता रहे हमारा रंग ,
भीगते रहें हम संवेदनाओं के पानी में
और वक्त की पीठ पर
खुद को घिस-घिसकर
बनाये रखें अपनी धार ।
बरसों बाद आज अचानक ही
दिखाई दिया गली में
“चाकू-छुरी तेज़ करा लो” वाला
मेरे यह कहने पर कि-
अब कहाँ कोई करवाता है
छुरियों की धार तेज़,
क्या हो जाता है गुज़ारा
इतने भर से?
वह बोला-
गुज़ारा चलाने के विकल्प ढूँढे जा सकते हैं ,
यह तो खुद की धार
बचाये रखने की कवायद है
कर दूँ आपकी भी धार तेज़ ?
सिर्फ़ पाँच रुपये लगेंगे …
पिता का होना
पिता और बेटे के लिए
सूक्ति रूप में प्रचलित हैं कई वाक्य
मसलन एक उम्र के बाद
बाप और बेटे हो जाते हैं दोस्त,
मसलन जब पिता के जूतों में
समाने लगे बेटे का पैर
तो दोनो को दोस्त हो जाना चाहिए ।
संभव है कि लम्बे समय तक
तमाम बेटियाँ भी
तलाशती हों
ऐसे ही प्रचलित वाक्य अपने लिए ।
लेकिन इस तलाश के दरमियाँ ही
वे जान पाती हैं
कि पिता की आँखों में आ जाती है चमक
जब अनायास ही बेटी
किसी खास अवसर पर
माँ की प्रिय साड़ी पहनकर
उनके सामने आ खड़ी होती है,
कि बेटी के हाथ से बने
आटे के हलवे को
मुँह में रखते ही
तमाम पिता संतृप्त भाव से
बोल उठते हैं
“तुम्हारी माँ भी ऐसा ही बनाती थीं” ।
बेटियों के लिए दूर रहकर भी
पिता का चिंतित होना,
लम्बे अंतराल पर ही सही
उनका सुख-चैन जानने के लिए
उनके घर जाना,
बेटियों के लिए और कुछ नहीं
बल्कि वक्त के थपेड़े खाकर
बरसों से छीजती जाती जिंदगी के
निविड़ आसमान में
चमकता चाँद है ।
चाँद के इस उपमान को सुनकर
संभव है हँस पड़ेगा किसी भी पिता का मन,
पर पिता तुम्हारे स्नेह की चाँदनी से ही
झिलमिल होते हैं बेटियों के मन
तुम्हारे नेह का धागा लिए
बेटियाँ सिल देती हैं
जिंदगी के न जाने कितने ही सूराख ।
पिता,बेटियों को नहीं है दरकार
ऐसे किसी जूते की
कि, जिसमें समा सके उनके पैर
वे हमेशा अपने कदमों का माप
तुम्हारे जूतों से छोटा रखना चाहती हैं
कि एक वक्त के बाद
बेटियाँ घर भर की
माँ होती हैं ।
इतना सा मनुष्य होना
शहर की बड़ी सब्जी मंडी में
एक किनारे टाट का बोरा बिछाकर
अपने खेत की दो-चार ताज़ी सब्जियाँ
लिए बैठी रमैया
अक्सर छुट्टे पैसों के हिसाब में
करती है गड़बड़ ।
न…न….यह समझ लेने की भूल मत करना
कि रमैया को नहीं आता
इतना भर गणित,
हाँ बेशक, दो-पाँच रुपए बचाकर
महल बाँधने का गणित
नहीं सीखा उसने ।
घर में काम करती पारबती
मालकिन के कहने पर
सहर्ष ही ले आती है
दो-चार किलो मक्की
अपने खेत से
और महीने के हिसाब में
उसका दाम भी नहीं जोड़ती ।
उसे मूर्ख समझकर
एक तिर्यक मुस्कान
अपने होठों पर मत लाना,
अनाज की कीमत जानती है वह
लेकिन मालकिन के कोठार में
उसके अनाज का भी हिस्सा है
यह भाव सन्तोष से भर देता है उसे ।
सफाई वाले का लड़का विपुल
अच्छे से जानता है कि
कोने वाले घर की शर्मा आंटी
उसे एक छोटा कप चाय पिलाने के बहाने
अपने बगीचे की सफाई भी
करवा लेती हैं उससे,
ये मत समझ बैठना
कि कॉलेज में बी.ए. की पढ़ाई करता विपुल
परिचित नहीं है
“शोषण” की शब्दावली से,
लेकिन खुश होता है वह कि
सुबह-सुबह की दौड़-भाग के मध्य
आंटीजी का एक काम
उसने निपटा दिया ।
आप बेशक इन्हें कह सकते हैं
निपट मूर्ख, गंवार, जाहिल और अनपढ़
लेकिन बोरा भर किताबों की पढ़ाई
अगर सिखा न सके मानवता की ए बी सी डी
अगर सीख न सकें हम दु:ख को मापने की पद्धति
अगर गहन न हो संवेदना हमारी
अगर समझ न सकें हम
सामाजिक ताने-बाने का मनोविज्ञान
तो कम पढ़ा-लिखा होने में
क्या बुराई है?
कम से कम बचे रहेंगे मानवीय मूल्य
बचा रहेगा प्यार, स्नेह, सौहार्द
बचे रहेंगे रिश्ते
बचा रहेगा विश्वास
और बचा रहेगा
हमारा इतना-सा मनुष्य होना ।
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परिचय : मालिनी गौतम चर्चित कवयित्री हैं.