ख़ास कलम :: डाॅ.अफ़रोज़ आलम

तग़य्युर
ज़माना जब ख़ामोशी से नये तेवर में ढलता है
तो मौसम ख़ुश्क होता है, शजर कपड़े बदलता है
कभी तो भीगी शाख़ें आग के गोले  उगलतीं हैं
कभी तो बर्ग-ओ-गुल तिरयाक़ के असबाब बनते हैं
शजर की मुख़्तलिफ़ शाखें
हमेशा साथ रहतीं हैं
समर भी साथ देती हैं
वही साये कि ज़ामिन हैं
शजर की शाख़ों की है अहमियत
मौसम बदलने में
यही शाख़ें
जो अक्सर मौसमों का रूख़ बदलतीं हैं
जो शाख़ें
सूख भी जायें तो ये ईंधन भी होती हैं
ये शाख़ें ख़ुद कभी आपस में लड़ने पर उतर आएं
कभी दस्त-ओ-गरेबां हों तो अक्सर अपनी उलझन से
नया माहौल देतीं हैं
ज़रूरी ये नहीं कि
वो नया माहौल सब के मनमुवाफ़िक़ हो
सभी को रास आ जाए
न जाने क्यों मुझे कुछ अरसे से अब ऐसा लगता है
नया मौसम लहु की झील में गोते लगायेगा!!!
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डाॅ.अफ़रोज़ आलम
जिद्दा (सऊदी अरब)

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