विशिष्ट कवि :: अजय श्रीवास्तव

पुनरावृत्ति

  • अजय श्रीवास्तव

तरु का सालाना
जीवन-चक्र
पतझड़
और
गिरे पत्तों को इकट्ठा
करने के कुछ पहले ही
हरियाली का फिर
जीभ चिढ़ाना
ठगा-सा मैं
केवल एक जीवन-चक्र
के साथ
अब
जवान से बूढ़ी हुई
अम्मा को ही
देखो,
पहले से ज़्यादा गोरी
पहले से ज़्यादा छोटी-
खाना खाओगी-
हाँ
चाय पीना है-
पी लूँगी

सो जाओ-
ठीक है
अब उठो भी-
अच्छा,
आज्ञाकारी गुड़िया-सी
एक गठरी-सी
सोफे पर बैठी
मेरी दो बेटियों
के बीच
मेरी तीसरी
बेटी सरीखी
मेरी अम्मा,
जी करता है
भींच लूँ कसकर
ले जाऊँ
घुमाने, टहलाने
उँगली पकड़कर,
खिलाऊँ आइसक्रीम
और जी भरकर निहारूँ
अम्मा के
भोले चेहरे पर
कभी-कभी उभरती
आभा को
जो ओझल हो गई थी
बाबूजी के जाने के बाद,
ले लूँ बलैया
न्यौछावर हो जाऊँ
अब जिसकी आँखों से ओझल होने पर
बेचैनी होती है
और दिख जाने पर
ठण्ड पड़ जाती है
कलेजे पर
एक बाप की तरह
और
मन आशीष देता है
माँ !
मेरी बेटी !
तू ख़ुश रहे,
आबाद रहे
जुग जुग जिये ।
…………………………………..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *