ग़ज़ल
- रवि खण्डेलवाल
घर के अंदर माँ रहती है, माँ के अंदर घर
बिन माँ के सूनी दीवारें, सूना घर का दर
माँ ही ऐसी होती जो दुनिया के दुख सहकर
खुशियाँ बच्चों को देती है आँचल में भर-भर
सत्कर्मों पर देती है माँ यदि शाबासी तो
दुष्कर्मों के प्रति भी मन में पैदा करती डर
लाख जमाना पीछे छूटे आगे जाएँ हम
याद सदा ही रहता है माँ का अक्षर-अक्षर
अति का सुखकारी लगता है तन-मन दोनों को
सोना, माँ की गोदी में ‘रवि’ रखकर अपना सर