विशिष्ट ग़ज़लकार :: वशिष्ठ अनूप

ग़ज़ल

  • वशिष्ठ अनूप

तिनके तिनके हमेशा जुटाती रही
एक घर अपने मन में बनाती रही

दूध और भात हर दिन कहाँ था सुलभ
किंतु मां चंदा मामा बुलाती रही

नेह का एक सागर उफनता रहा
सबपे हर वक्त ममता लुटाती रही

बर्तनों में कई बार ठनगन हुई
फिर भी मां घर में चूल्हा जलाती रही

आंधियां तेज आईं बहुत बार पर
हौसले वह दियों के बढ़ाती रही

फीस कपड़े किताबें कलम- कॉपियां
कैसे-कैसे कहां से जुटाती रही

वक्त ने राह रोकी कई बार पर
वो तो मां थी जो पहिया घूमाती रही

मुश्किलों ने भी कम आजमाया नहीं
दर्द मन में लिए मुस्कुराती रही

कोई भूखा कभी दर से लौटा नहीं
कैसे-कैसे सभी को खिलाती रही

घर को मंदिर का आकार उसने दिया
देवता- देवियों को मनाती रही

गांव से मेरे सरयू बहुत दूर है,
रोज पैदल ही जाकर नहाती रही

One thought on “विशिष्ट ग़ज़लकार :: वशिष्ठ अनूप

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *