1
बहुएँ-बेटे आये घर गुलजार हो गया !
आँगन खिल-खिल बच्चों से इस बार हो गया !
अधिक रौशनी दीपों में दिख रहा बंधु है
पुलकित होता रह-रह कर हृद-प्यार -सिंधु है
घर -दरवाजे भरे-भरे से आज हमारे
अपना मन तो हरा-हरा इतवार हो गया !
बहुओं की पायल से रुनझुन घर-आँगन है
बेटे बैठे साथ हृदय का खिला सुमन है
पोते -पोती खेल रहे किलकारी दे- दे
मित्र ! हमारा स्वर्गिक यह संसार हो गया
छठ की रौनक और गयी बढ़, पुलकित है मन
माताएँ आनंदित हो व्रत करतीं पावन
हम भी संततिवाले हैं अहसास हो रहा
बहुत दिनों पर आनंदित परिवार हो गया !
2
सारी नदियाँ रेत-रेत हैं
जल का नहीं पता है
कंठ-कंठ सब प्यासे-प्यासे
कितनी हुई खता है
कल-कल, छल-छल लोल लहर
अब सपनों-जैसी लगती
कहाँ गयी हहराती गंगा
रह-रह और उमगती
है भविष्य कैसा संतति का
चिंता रही सता है
मात्र नदी सुरसरि को समझा
गंगाजल को पानी
रिक्त-रिक्त होने की तबसे
है प्रारंभ कहानी
सूखे पेड़ करोड़ों-लाखों
मूर्छित हुई लता है
हम ऐसी संतान कि जिसको
कब चिन्ता पूर्वज की
हमें अंधेरी रात चाहिए
नहीं चाह सूरज की
नहीं भगीरथ अब आयेंगे
पीढ़ी रही बता है
3
केश-कुंतल में उलझकर रह गया
नयन सारी बात खुलकर कह गया
याचना के वे गजब अंदाज थे
पंख अपने तौलते परवाज थे
देखता भर आँख केवल रह गया
कर सका कुछ भी न ,सबकुछ सह गया
नाक सुतवाँ का हृदय में बैठना
श्यामली ! भाया तुम्हारा ऐंठना
नयन नीले, गाल गड्ढे में फँसा
रूप का मदिरा हृदय में बह गया
सृष्टि की रचना मनोहर पास हो
दृष्टि से संपन्न हो, अहसास हो
चाहना दिल की अगर इतरा रही
आदमी उस गंध पर मर-मर गया
4
यह उजाला ला रहा संसार में
अर्थ गहरा भर रहा है प्यार में
रूप कितने प्यार के होते सखे!
रूप कितने यार के होते सखे!
जिंदगी भर तो जुदाई सह लिये
भीतरी जज्बात को हम ही लखे
जिन्दगी तो कट रही आभार में
अर्थ गहरा भर रहा है प्यार में
वह पुरा दर्शन अभी तक आँख में
शक्ति भरता है हमारी पाँख में
उड़ चलो आकाश को अपना बना
प्यार अपना एक ही है लाख में
नेह ज्यादा मानसिक अभिसार में
अर्थ गहरा भर रहा है प्यार में
दूर रहकर भी निकट का बोध है
जिन्दगी अपनी सखे!अनुरोध है
मानना ना मानना मन में रखो
पंछियों-हित नभ कहाँ अवरोध है
दीखता है हित गगन के पार में
अर्थ गहरा भर रहा है प्यार में
5
मुखर निमंत्रण सुना नहीं तब,
अब क्यों पछताता
अमलतास को छोड़ तुम्हें तो
कीकर ही भाता
फिर भी वर्षों इंतजार में
मैं तो पड़ी रही
मुझे चाहिए केवल तुम ही
जिद पर अड़ी रही
पर, तुम तो थे अपर डगर पर
तोड़ चुके नाता
पिंजरे में अब तोता कुहके
मैना विवश हुई
चिड़िया के पर शक्तिहीन अब
वह तो अवश हुई
प्रेम-प्रसंग न भूला अबतक,
सपनों में आता
ओह! हृदय की गहराई में
बैठ गया कोई
नहीं निकाले निकल रहा है
कितना भी रोई
मन के चाहे इस दुनिया में
क्या कुछ हो पाता
6
कौओं को सम्मान
और कोयल को मिलते ताने
सिंहासन पर उल्लू बैठा,
हंसा चुगते दाने
समय बड़ा विकराल हुआ है,
कुछ भी समझ न आता
साधु-पुरुष को दस्यु पुरुष है
रह-रहकर धमकाता
उसकी ही चलती समाज में,
वे जो कहते मानें
जायेगा यह देश किधर
राजा को पता नहीं है
जानकार को घर बैठाया
क्या यह खता नहीं है ?
दिव्य अंग वाले बन बैठे,
जिसको कहते काने
विवश प्रजा है
लोकतंत्र का अद्भुत् यहाँ नजारा
लाठीवाले भैंस ले गये
उनका ही धन सारा
शेष बचे का क्या कब होगा ,
नहीं स्वयं ‘हरि ‘ जाने
7
मित्रो! शहरों के बाबू से बचकर रहना
शहरों वाले सारे गुण इनमें होते हैं
मूर्ख बूझते गाँवों में रहनेवाले को
झूठा साबित करते सच कहनेवाले को
चिकनी-चुपड़ी बातें करते,हटकर रहना
राहों में केवल काँटे-काँटे बोते हैं
अपना स्वार्थ सधे इसकी हैं जुगत भिराते
नल में जल हो ,वे कुओं की जगत गिराते
टीमटाम इंग्लिश की करते, डटकर रहना
गाँवों -हित घड़ियाली आँसू ले रोते हैं
गाँव – गाँव हो रहे शहर, इनकी मर्जी है
कागज में योजना चली,बाकी फर्जी है
ग्राम्यगीत हो रहे बेसुरे , सटकर रहना
हाय लगाते पाॅप गीत में अब गोते हैं
8
अब किसान के बेटे मजदूरी करते हैं
यह विकास या इसको मजबूरी कहते हैं
बाँट-बाँट कर खेत हुए टुकड़े -पे-टुकड़े
जो किसान रह गये, बाल-बच्चे नित हुकड़े
जाॅब लगे भाई भी अब दूरी करते हैं
बेटी का हो ब्याह, पुत्र का हो यदि मुंडन
नहीं सहायक कोई, घर में हुआ विखंडन
खेत बेचकर श्राद्ध -कर्म पूरी करते हैं
सरकारी विद्यालय बेटे पढ़ने जाते
मिड-डे-मिल का भोजन खाकर खुश हो जाते
शिक्षा भी वे प्राप्त अधूरी ही करते हैं
अगर, गये परदेश कमाने की लाचारी
मिली नौकरी मिल में भइया आठ हजारी
फांके -के-फांके मिहनत पूरी करते हैं
9
एसी में बैठ-बैठ के’ लिखते हो मीत , गीत
मिट्टी की गंध चाहते औ’ गाँव के संगीत
करते हो ये कि तय तुम्हीं कविता है क्या बला
प्रतिबद्ध वाद तयशुदा या छंद की कला
क्षोभित हृदय का प्रस्फुटन या प्राणियों से प्रीत
हो दूर देश-प्राण से अनजान जमीं से
अनभिज्ञ जनों की खुशी से और कमी से
हो अलहदा समाज , इसे मानते हो जीत
मजदूर मर रहे, किसान जल रहे यहाँ
कवि! घूमते शहर-शहर कि गीत है कहाँ
तुम भी गगन-विचर रहे होता यही प्रतीत
साहित्य-लक्ष्य प्राणियों में कुशल-क्षेम हो
हो दूर द्वेष , घुटन , रुदन और प्रेम हो
हाँ, वैर छोड़-छाड़ बनें हम सभी के मीत
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हम सीधे हैं, हम अभिधा में बात करेंगे
नागर बनकर नहीं कभी आघात करेंगे
गाँव हमारा अब भी रिश्ते पाल रहा है
आपस का संबंध सदा चौपाल रहा है
मन में रखकर घाव नहीं हम होने देंगे
खोल दिलों को सारे ही जज्बात कहेंगे
नहीं लक्षणा, नहीं व्यंजना घुमा-फिराकर
नहीं विदेशी लेखन से कुछ भाव चुराकर
नहीं अलग दिखने की कोशिश होगी मित्रो!
हम हैं देशी, देशी को अहिबात करेंगे
ये उत्तुंग हैं , इनको दिखते शाम सुनहरे
शब्दों के अर्थों पर होते इनके पहरे
वाद चलाकर पूरब को पच्छिम कहते हैं
हम दिन को दिन औ रजनी को रात कहेंगे
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परिचय : हिंदी और बज्जिका में लेखक की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.
संपर्क : हरिद्वार भवन, जौनापुर , मोहिउद्दीन नगर, समस्तीपुर (बिहार)