विशिष्ट ग़ज़लकार : प्रसन्नवदन चतुर्वेदी

1

बताना है बहुत मुश्किल कि किसमें क्या निकलता है ?
नहीं मासूमियत जिसमें वही बच्चा निकलता है

यकीं जिसपर किया करते भला अक्सर नहीं होता,
नहीं उम्मीद जिससे की वही अच्छा निकलता है

कभी अनहोनियाँ होती तो उग जाता है वो वरना,
बबूलों में कहीं क्या आम का पौधा निकलता है ?

किसी को जानने में भूल अक्सर है हमें होती,
समुन्दर था जिसे समझा वो बस दरिया निकलता है

सुनाएँ दर्द अब किसको हुए रिश्ते सभी बहरे,
दिखाते अब जिसे छाले वही अंधा निकलता है

समझकर चाँद जिसको देखता रहता ‘अनघ’ अक्सर,
ख्यालों में कभी वो आपका चेहरा निकलता है

 

2

न्यायालय में न्याय नहीं है
दूजा और उपाय नहीं है

मत बाँधो इसको खूंटे से,
बेटी है ये गाय नहीं है

मोमबत्तियां जला रहे हैं,
न्याय भरा समुदाय नहीं है

निर्भयता से बेटी रह ले,
ऐसी एक सराय नहीं है

नेताओं की पुस्तक में क्यों,
सच जैसा अध्याय नहीं है

दौलत नित बढ़ती पर कहते,
राजनीति व्यवसाय नहीं है

खर्चे पर खर्चे करते हैं,
लेकिन कोई आय नहीं है

सच, ईमान जहाँ सब सीखें,
जग में वो संकाय नहीं है

अपराधी फल-फूल रहे हैं,
क्या अब लगती हाय नहीं है

जब अखबार नहीं; लगता है,
आज सुबह की चाय नहीं है

जयचन्दों से देश भरा है,
कोई पन्ना-धाय नहीं है

प्रतिभाओं का वंचित रहना,
क्या ये भी अन्याय नहीं है

तेरी-मेरी, इसकी-उसकी,
मिलती ‘अनघ’ क्यों राय नहीं है

 

3

बढ़े हम फासलों तक जा रहे हैं
हंसी से आंसुओं तक जा रहे हैं

सभी हैं दोस्त, ये जो काफिला है,
हमारे दुश्मनों तक जा रहे हैं

बहन, भाई के रिश्ते बचपनों तक,
बड़े, न्यायालयों तक जा रहे हैं

मुहब्बत दिल का रिश्ता अब नहीं  है,
सभी अब बिस्तरों तक जा रहे हैं

मतलबी लोग सारे हो गए हैं,
वो केवल दावतों तक जा रहे हैं

गिरावट आ रही है आदमी में,
भले ग्रह-उपग्रहों तक जा रहे हैं

न पाठक आ रहे हैं पुस्तकों तक,
न लेखक अब दिलों तक जा रहे हैं

पुरानी बात है बाजार जाना,
वो खुद चलकर घरों तक जा रहे हैं

नहीं अंतर है इनमें, मसखरों में,
ये कवि अब चुटकुलों तक जा रहे हैं

खबर अच्छी कहीं कोई न मिलती,
नगर बस हादसों तक जा रहे हैं

न गाँवों में दिखे पहले सी रौनक,
शहर की आदतों तक जा रहे हैं

ज़रा सा शेर कह सोचें ‘अनघ’ वो,
कि हम भी गालिबों तक जा रहे हैं

 

4

जब भी मन विचलित होता है

भावों से सिंचित होता है।

 

झूठ कहीं पर छिप जाता है,

जब भी सच मुखरित होता है

 

कुछ भी अच्छा काम करूँ तो,

क्यों अक्सर बाधित होता है ?

 

बीती बातें याद करूँ जब,

हर छण ज्यूं चित्रित होता है

 

सच्चे मन से काम करो तो,

मिलता जो इच्छित होता है

 

धारावाहिक अब हैं ऐसे,

कोमल मन दूषित होता है

 

कोई अच्छा काम करो तो,

हृदय ‘अनघ’ पुलकित होता है।

 

5

बिना इंसानियत इन्सान सच्चा हो नहीं सकता
हुआ अपना नहीं जो वो किसी का हो नहीं सकता

अगर तुलना करें इक घाव की पाया जो गैरों से,
मिला अपनों से उससे तो, वो गहरा हो नहीं सकता

यही हम सोचते अक्सर जो अनहोनी कभी होती,
सरासर झूठ है ये बात, ऐसा हो नहीं सकता

हमेशा लील जाते हैं बड़े अपनों से छोटों को,
गिरा सागर में दरिया तो, वो दरिया हो नहीं सकता

हुए जब भी अलग माँ-बाप बच्चों पर बुरी बीती,
पिता का हो नहीं सकता या माँ का हो नहीं सकता

जगह दिल में किसी के भी बड़ी मुश्किल से बनती है,
अगर दिल टूट जाए फिर, भरोसा हो नहीं सकता

न मानो तुम भले लेकिन सही ये बात है तो है,
गलत मंजिल अगर हो, ठीक रस्ता हो नहीं सकता

दिलों को जीत सकते हैं, पिघल सकते हैं पत्थर भी,
मुहब्बत की जुबां से ये कहो क्या हो नहीं सकता

कमी तो दौलतों की रौशनी में हो भी सकती है,
अगर हो इल्म की दौलत, अँधेरा हो नहीं सकता

सितारे अब कहे जाते यहाँ मशहूर कुछ चेहरे,
मगर जो रौशनी ना दे, सितारा हो नहीं सकता

सभी के वास्ते भगवान ने सौंपी अलग नेमत,
जो तेरा है वो तेरा है, ‘अनघ’ का हो नहीं सकता

…………………………………….

परिचय : प्रसन्नवदन चतुर्वेदी ‘अनघ’ की ग़ज़लें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशित होती रहती है.

संपर्क : S-26/151-D, मीरापुर बसहीं, वाराणसी

मो : 7007675218

 

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