विशिष्ट ग़ज़लकार :: विजय कुमार स्वर्णकार

1
अपने मित्रों के लेखे- जोखे से
हमको अनुभव हुए अनोखे -से
हमने बरता है इस ज़माने को
तुमने देखा है बस झरोखे से
ज़िन्दगी से न यूँ करो बर्ताव
जन्म जैसे हुआ हो धोखे से
हम तो टूटे हैं और मैले भी
कैसे तुम बच गए हो चोखे – से
इक महल खा गया है जागीरें
एक घर चल रहा है खोखे से
एक दीवार – सी है यह दुनिया
और उसमें हो तुम झरोखे – से
2
कोहरा है कि धुँधला – सा सपन ओढ़ रखा है
इस भोर ने क्या नंगे बदन ओढ़ रखा है
आ छत पे कि खींचें कोई अपने लिए कोना
आ सिर्फ़ सितारों ने गगन ओढ़ रखा है
कुछ खुल के दिखा क्या है तेरे नीलगगन में
कैसा ये धुँधलका मेरे मन ओढ़ रखा है
क्या बात है क्यों धूप ने मुँह ढाँप लिया और
आकाश ने बरसा हुआ घन ओढ़ रखा है
धुन क्या है तुम्हें बूझ के लगता है कुछ ऐसा
जैसे किसी नग़मे ने भजन ओढ़ रखा है
लाशों की है ये भीड़ ज़रा ग़ौर से देखो
ज़िंदा कई लोगों ने कफ़न ओढ़ रखा है
ऐ सर्द हवाओ ! इसे चादर न समझना
फ़ुटपाथ ने मुफ़लिस का बदन ओढ़ रखा है
3
समझ के सोच के ढर्रे बदल  दिए जाएं
अब इंक़लाब के नुस्खे बदल दिये जाएं
अब अपनी अपनी किताबें संभाल कर रखिये
कहीं ये हो न कि पन्ने बदल दिये जाएं
अब इनमें कुछ खुली आंखें दिखाई पड़ती हैं
पुराने पड़ चुके पर्दे बदल दिये जाएं
तुम आदमी हो ये ऐलान क्यों नहीं करते
उन्हें सनक है कि खूंटे बदल दिये जाएँ
तमाम लोगों के चेहरे बदलना मुश्किल है
तो हल यही है कि चश्मे बदल दिये जाएं
4
बेजान जानकर नहीं गाड़ा हुआ हूँ मैं
बाक़ायदा उमीद से बोया  हुआ हूँ मैं
कोई नहीं निगाह में जिस ओर देखिये
सहरा में हूँ कि शहर में अंधा हुआ हूँ मैं
माना कि आप जैसा धधकता नहीं मगर
छू कर मुझे भी देखिये तपता हुआ हूँ मैं
बिस्तर से अपने रब्त नहीं है कि पूछ लूँ
ये ओढ़ कर पड़ा हूँ कि ओढ़ा हुआ हूँ मैं
ऐ टूटने वाले मैं समझता हूँ तेरा दर्द
साबुत नहीं हूँ तोड़ के जोड़ा हुआ हूँ मैं
मालूम है उसे मैं उभरता ख़याल हूँ
फिर भी वो सोचता है कि सोचा हुआ हूँ मैं
5
नारे बाजों     में    गूंगे   ग़म   जैसे
शोर   में   क्या  कहेंगे   हम   जैसे
कैसे  छू  कर  हों  धन्य   हम  जैसे
आप   हैं   चाँद   पर   क़दम  जैसे
हम  तो  हैं कर्म  लीक  से  हटकर
और   वे    धर्म   के   नियम   जैसे
ख़ुद  को  हम  दूसरे – से  लगते  हैं
भाव   मत   दो   हमें   प्रथम  जैसे
हमसफर   सुर  में  सुर  मिला  देना
चल   पड़े  हम  अगर   रिदम  जैसे
सृष्टि    में   हर   कोई   अनोखा   है
किसलिये    ढूँढिये     स्वयम   जैसे
हम को  रास  आती  है  नई  दुनिया
आपके     शौक    म्यूज़ियम   जैसे
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परिचय :  विजय कुमार स्वर्णकार ग़ज़ल के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम है. हाल ही में इनका ग़ज़ल संग्रह “शब्दभेदी” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है.  विदेशों में भी काव्य-पाठ का संयोग मिला है. कई संस्थाओं से सम्मानित हो चुके हैं.
संप्रति :केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता
वर्तमान पता : फ्लैट न.-45 कादम्बरी अपार्टमेंट्स ,सेक्टर 9 ,रोहिणी ,दिल्ली 110085
मोबाइल:09958556141

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