कारवां गम का चल रहा होगा दर्द अश्कों में ढल रहा होगा धूप की बेवफाई के कारण हाथ सूरज भी मल रहा होगा उसकी सूरत बसी है आंखों में दिल यक़ीनन मचल रहा होगा देखना उसकी सूरत आप तब जब वो पाला बदल रहा होगा जिसने जैसे कर्म किये हैं "कर्ण" उनका वैसा ही फल रहा होगा | मेरे दिल मे उतरना चाहती है ग़ज़ल बनकर संवरना चाहती है किसी दिन वो निगाहों में बसाकर मेरा भी क़त्ल करना चाहती है ये कैसा दौर आया है फिज़ा में मेरी धड़कन बिखरना चाहती है नहीं आया नदी के पास कोई नदी हद से गुजरना चाहती है सियासत का तमाशा भी लगा अब घरों पर चोट करना चाहती है | प्यार से जो डरा सा लगता है ज़ख़्म उसका हरा सा लगता है जिसकी आँखें बहुत छलकती है वो गमों से भरा सा लगता है थक गया बोझ ढो के जीवन का इसलिए अधमरा सा लगता है हर कदम सोच के उठाता है ठोकरों से गिरा सा लगता है "कर्ण" ने चोट खाई अपनों से इसलिए वो खफा सा लगता है |
जब तलक ये सांप पाले जायेंगे तब तलक पत्थर उछाले जायेंगे अब मशीनों से करेंगे प्यार सब दिल के मंदिर तोड़ डाले जायेंगे आपने उड़ने की जुर्रत की अगर आपके पर नोंच डाले जायेंगे बात जो खुलकर नहीं तुम कह सके हाथ उठ्ठेगे बगावत को "करण" जब गरीबों के निवाले जायेंगे | जब मैं बेघर होता हूँ दिल के अंदर होता हूँ उड़ जाता हूँ बादल- बादल मैं कब बेपर होता हूँ अपने गम को साथ लिये मैं खुद ही लश्कर होता हूँ रोते - रोते तन्हाई में रोज समंदर होता हूँ वो दर्पण से रूठ गए तो उनका पत्थर होता हूँ |
परिचय— साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन
पता -फल मंडी, गुलज़ार पोखर, मुंगेर, बिहार