दोहे – के. पी. अनमोल
जब-तब इसके वास्ते, युद्ध हुए अनमोल।
नक़्शा रोटी का मगर, रहा हमेशा गोल।।
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तन की सुंदरता जगत, करता है स्वीकार।
मन की सुंदरता लिये, बैठा मैं बेकार।।
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क्या उसके मन में कहीं, छिपी हुई है खोट।
लेकर आयी शाम क्यों, अँधियारे की ओट।।
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थीं छत की चालाकियाँ, या धरती का वैर।
उग आये दीवार में, जाने कैसे पैर।।
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छूटेंगे भण्डार सब, धरे रहेंगे कोष।
जीवन में जो प्राप्त है, उसमें कर संतोष।।
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जिसने सारी उम्र ही, माँगी केवल भीख।
कैसे स्वाभिमान की, देगा सबको सीख।।
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पल में खुलते हैं कई, उम्मीदों के द्वार।
माने भी तो किस तरह, यह मन माने हार।।