डॉ. शाही एक निर्भीक व्यक्तित्व :: डॉ. शान्ति कुमारी

डॉ. शाही एक निर्भीक व्यक्तित्व

– डॉ. शान्ति कुमारी

” जो नर आत्मदान से अपना जीवन घर भरता है ,
वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरता है ।
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में , जहाँ कही उजियाला
वहाँ खड़ा है कोई अन्तिम मोल चुकाने वाला
रामधारी सिंह दिनकर ‘

सामान्य कद क्षीण काया , भव्य ललाट , सादा जीवन ऊँच विचार कुल मिलाकर यही था उनका व्यक्तित्व ।हिन्दी साहित्य जगत का एक भी विधा को इन्होंने अछूता नहीं छोड़ा। साहित्यकार साहित्य का सृजन करता है। परन्तु , विधाता मानव का सृजन और संहार दोनों करता है । विधाता के कालचक्र के घेरे में जो फँसा वह कब निकला ? ऐसे ही कालचक्र के घेरे में फँसे डॉ . शाही। विधाता के इस क्रूर मजाक को मैं नहीं समझ पायी । कुछ दिन पूर्व कहलगाँव से ( भागलपुर ) पत्र आया था , जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं स्वास्थ्य लाभ लेने के लिए कहलगांव आ गया हूँ । महीनों से अस्वस्थ थे ,परन्तु बिस्तर नहीं पकड़ पाये थे ।दिनांक 25 .9.99 को फोन की घंटी बजी। शाम के चार बजे थे । मैं बरामदे पर आगन्तुकों से बातें कर रही थी । मेरी बेटी फोन उठायी। क्या बातें एक मिनट में हुई ,मैं नहीं जान सकी । आगन्तुकों से विदा लेने के उपरान्त मैं कमरे में गई, तो वह फूट – फूट कर रो रही थी । मेरा मन आशंकित हो उठा। मैंने रोने का कारण पूछा तो वह फफक पडी …. शाही नानाजी अब नहीं रहे । मैं उस महापुरुष की महायात्रा को सुनकर अवाक रह गई । मेरा मन पत्र में लिखी बातों में समा गया । क्या यही स्वास्थ्य लाभ हुआ है ? मेरे शुभ चिन्तक कविवर श्री जयप्रकाश जी हैं ,जिनके माध्यम से मैंने 26.9 .99 को शोकसभा का आयोजन किया । शिवहर के सभी साहित्यकार तथा उनसे सम्बन्धित इष्ट मित्र, जिनसे उनका पत्राचार अक्सर ही हुआ करता था ,सुनते ही दौड़ पड़े । मैं इस बात को यही विराम देती हूँ ।
मृत्यु शाश्वत सत्य है । रामचरित मानस में इसी को संत शिरोमणि तुलसीदास ने लिखा ” हानि लाभ जीवन – मरण , ‘ यश – अपयश विधि हाथ। डॉ . शाही के जीवन का तीन पक्ष देखने को मिला । समाजसेवी , शिक्षाप्रेमी प्रख्यात लेखक।
समाजसेवी से पहले मैं उनके जन्मभूमि की चर्चा करना उपयुक्त समझती हूँ । इनका जन्म 7 फरवरी 1936 ई . को बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिला के औराई प्रखण्ड के शाहीमानापुर गाँव में हुआ था । औराई प्रखण्ड ने बेनीपुरी जी जैसे महान समाज सेवी एवं शब्द शिल्पी को जन्म दिया है । डाॅ शाही बेनीपुरी जी
के शिष्य थे । उनके पदचिन्हों का अनुगमन किया । संस्था के प्रति बाल्यावस्था से ही रूझान थी।
शाहीमीनापुर में डॉ . शाही ने 1948 में एक संस्था की स्थापना की थी, जिसका नाम था – बालकन जी बाड़ी छात्रगण पुस्तकालय ।इनकी संस्था में बेनीपुरीजी भी आते थे । ये पुस्तकालय संघ के सचिव भी थे और बिहार राज्य बाल कल्याण परिषद , राजभवन की कार्य समिति के सदस्य भी थे । पुस्तकालय संघ के सचिव होने के नाते इन्होंने अपने क्षेत्र के पुस्तकालयों को पुस्तक से समृद्ध बनाया । आज भी इनके छात्रगण पुस्तकालय में दस आलमारियाँ हिन्दी एवं अंग्रेजी पुस्तकों से सजी- संवरी हैं । देश क्या विदेशों से भी पत्राचार द्वारा पुस्तकें मंगवाते रहे । मेरा अपना विचार है कि इन्हीं रूझानों के कारण रामदयालु सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर में इन्होंने लाइब्रेरियन के पद पर कार्य किया ।इससे पूर्व ये दलसिंहसराय कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक पद पर कार्यरत थे। पुस्तक इनके प्राण थे । कलम की शक्ति के बदौलत ये बिहार गिने चुने साहित्यकारों के कतार में खड़े हैं । पुस्तक छपवाने की लालसा थी परन्तु, कहते थे कि इस गन्दे माहौल की भीड़ मेरे पुस्तक के लिए नहीं है । इनकी भाषा में दुरुहता की झलक नहीं थी । भाषण कला में ये बहुत दक्ष थे ।श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की अदभूत क्षमता थी । समाज सेवा को इन्होंने चादर की तरह ओढ़ लिया था । युवा पीढ़ी को काफी प्रोत्साहित करते थे । मुजफ्फरपुर से साप्ताहिक गाँव ( शाही मीनापुर ) आना होता था । छात्रगण पुस्तकालय में युवकों को एकत्रित कर वाद – विवाद प्रतियोगिता आयोजित करते। वे उनकी बातें बड़े चाव से सुनते थे। समाप्तोपरान्त युवकों को प्रोत्साहन पुरस्कार भी देते थे । ग्रामीण बच्चों को बाल – वाड़ी के माध्यम से पर्यटन भी करवाते थे । नारी शिक्षा की महत्ता को समझते थे । इन्होने वयस्क शिक्षा के माध्यम से संक्षिप्त पाठ्यक्रम चलाया, जिसमें मध्य विद्यालय तक अध्ययन होता था । इस कार्य में अच्छी सफलता मिली । पुनः समाज कल्याण बार्ड पटना ने इन्हें माध्यमिक पाठ्यक्रम चलाने की अनुमति दी । ग्रामीण महिलाओं को मैट्रिक तक की शिक्षा दिलायी । एक बार 1972 में अपनी जन्मभूमि में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोल दिए । गाँव और जवार के हजारों से अधिक युवक – युवतियों को शिक्षक पद पर नियुक्त करा दिया । इन्होंने किसी से पारिश्रमिक नहीं लिया ।
इनके जीवन की एक रोचक घटना आँखों देखी बता रही हूँ । दो शिक्षक अपनी नियुक्ति के बाद श्रद्धा स्वरुप कुछ भेंट देना चाह रहे थे । महामानव ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा मुझे यश की कामना थी , वह मुझे मिल गया । कृपया आप इसे यथा स्थान ले जाएँ । वे ईमानदारी के प्रतिमूर्ति थे ।शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय की मान्यता परीक्षा के लिए मिल गई तो क्षेत्रीय शिक्षोपनिदेशक तिरहुत ने कहा कि डॉ शाही ने पृथ्वी
पर भागीरथ पुनः ला दिया । दूसरों से कहते धुम्रपान निषेध है परन्तु स्वयं अपने लिए कहते “मेरी सरस्वती सिगरेट की धुएँ पर निकलती है “। चौबीस घंटे में मात्र चार घंटे ही सो पाते थे । कभी पत्र लिखना कभी निबन्ध , तो कभी पुस्तक तो कभी किसी की जीवनी। लिखने का कार्य अबाध गति से अन्तिम क्षण तक चलता रहा ।
उनका हृदय हिमालय की तरह विशाल था। विपत्ति में कभी पथ से विचलित होना नहीं जानते थे । सोहनलाल द्विवेदी की कविता उनके जीवन में अक्षरशः सटीक लगती है
” खड़ा रहा जो अपने पथ पर लाख मुसीबत आने में
मिली सफलता जग में उसको जीने या मर जाने में

मैं अब उनके कर्म क्षेत्र जहाँ से सेवा निवृत्त हुए उसकी चर्चा करना चाहती हूँ ।
गोपालगंज जिला के गोपेश्वर कॉलेज , हथुआ में हिन्दी के प्राध्यापक के पद पर कार्यरत थे । आश्चर्य की बात तो यह है कि फिर भी वे हर रविवार को अपने गाँव में रहते थे । अध्यापन कार्य में भी उतने ही दक्ष थे । 28/2/98 को सेवा निवृत्त हुए । परन्तु इनकी लेखनी अनवरत चलती रही । लेखन कार्य के माध्यम से वे लेखक एवं पाठकों के अभिन्न मित्र बने हुए थे । इनको वाह्य आडम्बर में विश्वास नहीं था । इनके हजारों पत्र मित्र थे । इनका पत्रांक वर्षान्त तक २५०० से भी अधिक हो जाता था । खर्चीले स्वभाव के व्यक्ति थे । कुछ आर्थिक परेशानी में पड़ जाते थे । परन्तु कहते आज की चिन्ता करना चाहिए कल के लिए भगवान हैं ।
1999 में इन्हें अमेरिकन वायो ग्राफिकल सोसाइटी ने मैन ऑफ द इयर का सम्मान दिया था । इतना ही नहीं कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने डिक्शनरी ऑफ बायो ग्राफीज में इनका नाम अंकित किया है । इस विश्वकोश के बीसवे संस्करण में पाँच सौ विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय है । इन्होंने बज्जिका लोक साहित्य अध्ययन पर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की ।
बज्जिका भाषा के प्रथम बिगुल फूँकने वाले डॉ . शाही ही थे । इसलिए इन्हें बज्जिका का जनक कहा जाता है । बिहार विश्व विद्यालय में बज्जिका भाषा की अध्ययन की व्यवस्था हो, इसके लिए इन्होंने आन्दोलन किया था। सन् 1963 में इन्होंने बज्जिका जनभाषा में बज्जिका मासिक पत्रिका का सम्पादन किया था। जो 1984 तक प्रकाशित होती रही । मस्तमौला, निर्भिक , फक्कड़ और अल्हड़ की तरह रहना इनके स्वभाव में था । ये गोपालगंज मेंश ( दादा ) बंगाली के होटल में रहते थे । एक पलंग जिसके चारों तरफ लाल बस्ते में बंधी पुस्तकें रखी हुयी रहती । पलंग पर डायरी, सादा कागज ,कलम और सिगरेट का डिब्बा ।ये सभी इर्द-गिर्द बिखरे पड़े रहते । इनको इस रूप में देखकर भगवतीचरण वर्मा की ये पंक्तियों याद आ गई जो डॉ . शाही के जीवन में अक्षरश सही प्रतीत होता है।
“हम भला बुरा सब भूल चले ,
नत मस्तक हो मुख मोड़ चले
अभिशाप उठाकर होठों पर
वरदान दृगों से छोड़ चले

ऐसे ही व्यक्तित्व के पुरूष थे डाॅ शाही।इनके महायात्रा प्रयाण से साहित्य जगत एवं बज्जिकांचल की अपूर्णीय क्षति हुई है।इसके साथ ही विधाता ने मुझसे मार्गदर्शक अभिभावक को छीन लिया,जिसकी पूर्ति संभव नहीं।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे ,यही प्रार्थना है।

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साभार स्वातिपथ, जनवरी-जून 2000

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