प्रेरणा की लौ बुझ गई :: डॉ. वीरेन्द्र कुमार वसु

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स्मृति के वातायन से

प्रेरणा की लौ बुझ गई

  • डॉ. वीरेन्द्र कुमार वसु

प्रोफेसर श्री रंग शाही के असामयिक अकस्मात् निधन से हिन्दी साहित्य जगत् मर्माहत हो गया है। हिन्दी एवं बज्जिका के समर्पित रचनाकार के रूप में वे सदैव कार्य करते रहे। प्रेरणा की एक प्रदीप्त लौ बनकर वे निरंतर अपने पत्र-व्यवहार से सबके मन-प्राणों में रमे बसे रहे। किसी की कोई रचना कहीं छपती, तुरंत अपनी प्रतिक्रिया, मत. टिप्पणी उसपर अवश्य भेज देते।जिसमें प्रोत्साहन एवं प्रेरणा के शब्द सटे रहते थे। उनके व्यक्तित्व की यह विलक्षण बात थी।

मुझे स्मरण है सन् 1965 ई. से वे निर्बाध रूप से मेरे साथ पत्र-सम्पर्क बनाये रहे। चूंकि मैं बराबर लेखनरत रहता आया हूँ प्रत्येक विधा में, इसलिये जब भी मेरी रचना कहीं छपती. ठीक तीसरे चौथे दिन उनकी प्रतिक्रिया तो अवश्य पहुँच जाती मेरे पास, जिसमें उनकी पाठकीय प्रतिक्रिया तो रहती, साथ ही प्रेरणा के स्वर भी रहते। स्वयं भी वे निरंतर लेखन में लगे रहे और हिन्दी तथा बज्जिका में लिखते रहे। गद्य हो अथवा पद्य, आलेख हो या आलोचना, गीत हो या गज़ल अथवा और भी कुछ, सबों में वे रमते थे। अपनी साहित्यिक मण्डली के वे उज्जवल नक्षत्र रहे। उनके सैकड़ों पत्र मेरे पास एकत्र हैं। जिन्हे बार-बार पढकर उत्प्रेरित होता रहता हूँ। मृत्यु की सूचना के एक सप्ताह पूर्व ही उनका पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने अपनी रुग्णावस्था एवं सेवा निवृत्ति के पश्चात् पेंशन नहीं सेट्ल होने का अवसाद प्रकट किया था। पढकर अवसन्न हो गया था मैं। पत्रों के माध्यम से जो कुछ भी जाना-बूझा मैंने, लगा कि उनके भीतर साहित्य-सेवा की दीपशिखा सदैव प्रज्जवलित थी। जैसे भीतर ही भीतर एक तरंग परिव्याप्त हो लेखन में भावनाओं के पिरोने की। यह भी मेरे लिये एक दुर्भाग्य की बात रही जो बार-बार मुझे खलती रहती है और मन में कचोट होता रहता है कि मैं उनके दर्शन से वंचित रहा अबतक। यह बात कितनी अजीब लगती है कि बिन मिले ही इतना नैकट्य हो गया. बिन देखे ही दरस-परस की इतनी तीव्र अनुभूति जाग्रत रही। होता है. ऐसा होता है कि कभी-कभी बिना कुछ हुए ही बहुत कुछ हो जाता है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार बिना आँखों से निरखे ही बहुत सारी बातें जान ली जाती है उस अदृश्य को।

नियति बडी प्रबल है। प्रियजनों को असमय ही काल-कवलित हो जाना पड़ता है। शरीर से तो कोई भी अमर नही, किन्तु उनकी यादें तो सदा बनी ही रहती है। श्रीरंग शाही की यादें सदा ताजे गुलाब की तरह ताजा ही रहेगी। उनके अक्षर, उनकी लिखावट, उनके उद्‌गार सब कुछ इस बात के साक्षी रहेंगे कि प्रेरणा की एक लौ तो अवश्य बुझ गई किन्तु जब जब पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने उलटे जायेगें ,जब जब साहित्यिक चर्चायें होंगी और जब जब अवसर आयेगें श्रीरंग शाही के रंग उभरेंगे और पूरी लालिमा के साथ। उनके साहित्यिक अवदान उद्धरणों में प्रकट होंगे।

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एल के काॅलेज, सीतामढ़ी, बिहार

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