डॉ. श्रीरंग शाही एक फक्कड़ व्यक्तित्व
- भावना
2 अगस्त 1999 सुबह आठ बजे मैं अपनी सहेलियों के साथ उनके निवास स्थान पर गयी। वे देख आहलादित हो उठे। ढेर सारी बातें की। मेरे हाथों में पूजन सामग्रिया थीं, जिन्हें देखकर उन्होंने कहा कि ये सब क्या है? मैंने कहा कि आज सोमवारी का व्रत है। अतः जल चढ़ाने शिव मंदिर गयी थी। वे ठठाकर हँस पड़े और दीवार पर टंगी लक्ष्मी-गणेश की मूत्ति को इंगित करते हुए कहा कि मेरी पत्नी पुत्र एव पुत्रवधू सोने से पहले इस तस्वीर को प्रणाम करते हैं और मैं यहाँ बैठा हँसता रहता हूँ। उन्होंने ढेरों पत्र दिखाये जिसे पोस्ट करना था। डॉ. शाही विगत कई महीनों से बीमार चल रहे थे इसी वजह से अपने ज्येष्ठ पुत्र डॉ. प्रकाश शाही के ‘दामुचक’ स्थित आवास पर ही रहते थे। उनका निवास स्थान मेरे छात्रावास से निकट ही था अतः अक्सर उनसे मुलाकात हो जाया करती थी। सच ही किसी ने कहा है-
“बड़ा वो आदमी जो जिन्दगी भर काम करता है
बडी वो रूह जो रोये बिना तन से निकलती है”
25 सितम्बर 1999। मैं छात्रावास से शिवहर आ गयी थी। शाम का समय था। मैं अपने बरामदे में प्रसिद्ध कवि श्री राम चन्द्र विद्रोही के साथ कविता का आनन्द ले रही थी। तभी टेलिफोन की घंटी बजी। मैंने उठाया। शाही मीनापुर से फोन था। मेरी ही तरह डॉ. शाही के व्यक्तित्व की अनन्य भक्त अंजलि ने बताया कि वे अब नहीं रहे। कहकर जल्दी से फोन रख दी। मेरे कानों को विश्वास न हो पाया, मेरी आंखे सजल हो आयीं एवं मेरा मस्तिष्क उनके साथ बिताये अदभुत क्षणों में विचरने लगा।
कुछ ही दिन पूर्व तो मैंने उन्हें दामुचक के सड़कों पर टहलते, मोहित दूर सचार में फोन करते, सविता स्टोर में अखबार पढ़ते एवं युनिवर्सिटी में पेन्सन के कार्यवश टहलते देखा था। क्या सचमुच इन जगहों पर उनको देखना संभव न होगा? मुझे याद आता है वह दिन जब उन्हें मैन आफ द ईयर’ मिला था। वे मुझे बताने मेरे रसायन शास्त्र विभाग में भी आये थे। मेरी सहेलियों ने जब इनके सम्बन्ध में जाना तो आश्चर्यचकित हो गयीं। धोती-कुर्त्ता, पुराना सा काला-जूता पहने लगभग पांच फुट चार इंच का वह मानव इतना ‘महान ‘है। सचमुच लिबास किसी के व्यक्तित्व को नहीं बनाता। उन्होंने सारी बाहरी दिखावा को तुच्छ माना था। वे आंतरिक सुन्दरता पर विश्वास करते थे। सादा जीवन उच्च विचार उनका गहना था। वे कम भोजन करने में विश्वास रखते थे। उनका कहना था पक्षी कम खाता है अतः उड़ता है। चाय उनका प्रिय पेय था, सिगरेट उनकी कमजोरी। यही वज़ह थी कि ब्रांकाइटिस से पीडित हो गये। अंतिम दिनों में सिगरेट तो छुट गया था, चाय भी कम कर दिये पर लेखनी गतिशील रही।
जब भारत माता पराधीनता की बेड़ी में जकडी हुई थी ,उसी वक्त सन् 1936 में श्री राजेन्द्र शाही के घर एक बालक पैदा हुआ। उस समय पिता स्व. श्री राजेन्द्र शाही ने कभी सोचा भी न होगा कि यही बालक बड़ा होकर मीनापुर की धरती को पवित्र करेगा एवं साहित्य जगत का जगमगाता नक्षत्र बन जायेगा। बड़ी बहन श्रीमति अनूठा देवी एवं छोटी बहन श्रीमति मदन देवी के बीच जन्मा था यह दुलारा भैया। बड़े ही प्यार से लालन-पालन हुआ था इनका। इनके चाचा डॉ. यू.एन. शाही बड़े ही मशहूर सर्जन हैं। डॉ. शाही का ब्याह दरभंगा जिले के कमतौल गांव में हुआ। उन दिनों वे एम.ए. के छात्र थे। इनकी धर्म पत्नी का नाम श्रीमती वीणा देवी है। उनका वैवाहिक जीवन काफी सुखमय था। इनको पांच पुत्र एवं एक पुत्री रत्न है। सभी बच्चे उच्च प्रतिभा के धनी हैं। प्रथम पुत्र डॉ. प्रकाश शाही मशहूर चिकित्सक हैं तो द्वितीय पुत्र विनोद कुमार शाही अभियंता, तृत्तीय पुत्र जयशंकर शाही प्राध्यापक हैं तो चतुर्थ पुत्र प्रभाशंकर शाही विद्वान शिक्षक । पंचम पुत्र अमिताभ शाही भी शिक्षक हैं । एक मात्र पुत्री श्रीमती इन्दिरा बी.एस.सी. की डिग्री पूजा एग्रीकल्चर कॉलेज से प्राप्त करने के उपरांत हिन्दी से एम ए ,पी एच डी किया ।फिलहाल एम पी एस महाविद्यालय में हिन्दी की प्राध्यापिका हैं ।इनके दामाद इनके मृत्यु के समय सहरसा में बी.डी.ओ. के पद पर कार्यरत थे फिलहाल मुजफ्फरपुर में आपदा विभाग के ए डी एम हैं । वे अपने पीछे हंसता-खेलता परिवार छोड़ गये हैं।
एक फक्कड़, एकान्त साधक, पत्र सम्राट, साहित्य मर्मज्ञ साहित्यकार हमारे बीच नहीं हैं पर, उनके बताये रास्ते हमें आज भी जीने की राह बताती हैं। सत्य ईमानदारी का पाठ पढ़ाती है। वे समय के पक्के एवं धुन के सच्चे थे। साहित्यकार युग द्रष्टा होता है वह कभी मरता नहीं। वे अक्सर ही कहा करते थे कृतस्य सः जीवति ।
उन्होंने हमेशा ही साहित्य के क्षेत्र में मेरा मार्गदर्शन किया है। उन्हीं का प्रभाव है कि मैं साहित्य सृजन में संलग्न हूँ। मुझे याद है जब मैं मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी हेतु पटना रोड न.-11 में रहा करती थी। आकाशवाणी पर वार्त्ता रिकार्ड कराने वे पटना आये थे। मुझसे मिलने छात्रावास में आये। सफलता न मिलने की वज़ह से मैं कुंठित रहा करती थी। उन दिनों मेरे छात्रावास के सामने शाही मीनापुर की ही लेडी डाक्टर अनमोला सिन्हा का क्लीनिक था। उन्होंने मुझे उनके भव्य इमारत को दिखाते कहा कि महादेवी बड़ी है या अनमोला। आप में लेखन प्रतिभा है आप महादेवी बनने की चेष्टा करें। उनका यह वाक्य मुझे हमेशा साहित्य-सृजन को प्रेरित करता है।
वैसे तो मैंने उनके जीवन के कई पक्ष देखे हैं। बचपन में लेमनचूस बांटते श्रीरंग नाना को देखा है ,तो युवावस्था में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित निबंधकार, लेखक, एवं प्राध्यापक डॉ. श्रीरंग शाही को। जब मैं बी.एस.सी. में थी तो मेरा परीक्षा केन्द्र गोपाल गंज था। उन दिनों मेरे पिता श्री राम राज राय गोपाल गंज में ही पुलिस डिपार्टमेन्ट में कार्यरत्त थे। मेरे पिताजी से उनका विशेष लगाव था।
मैं परीक्षा देने गोपालगंज गयी तो पिताजी मुझे उनसे मिलाने ले गये। वे बंगाली दादा के होटल में रहते थे। जब से उन्होंने गोपेश्वर कॉलेज हथुआ में हिन्दी के प्राध्यापक का पद संभाला था, यहीं रहा करते थे। बंगाली दादा से उनका अच्छा बनता था। वे यदा-कदा उनके होटल का हिसाब भी देख लिया करते थे। समाचार सुनना, डायरी लिखना एवं पांच-छह पत्र लिखना उनकी दिनचर्या थी। वे प्रत्येक वर्ष लगभग दो हजार से अधिक पत्र लिखा करते थे, जो रजिस्टर में अंकित है। उनके कमरे में जाने पर जो दृश्य मैंने देखा उसे अक्षरशः लिखने की कोशिश करती हूँ।
प्रथम मंजिल, एक छोटा-सा कमरा। किनारे से एक पलंग उस पर विछावन लगा हुआ, आधे से अधिक भाग पत्र-पत्रिकाएं एवं निबंधों से आच्छादित। तकिये के पास डायरी, कलम और रेडियो। फर्श पर लाल बस्ते में बँधे ढेरों पत्र-पत्रिकाएं। इतनी सारी पत्रिकाएं देखकर एकबारगी चहक पड़ी मैं । तभी मेरी निगाह छत पर गयी जहाँ कई वर्षों से मकड़ियों ने अपना घर बना रक्खा था। बुनती जा रही थीं जालें दिवारों से होते हुए मच्छरदानी के डंडा तक वहीं दूसरी ओर वह तपस्वी अपनी तपस्या के उत्तरार्द्ध में पहुँच चुका था।
मैंने उनके संदर्भ में बगल के कमरे में रहने वालों से बातचीत की। उन लोगों ने बताया कि प्रो. साहब की अजीब दुनिया है। जब भी देखा कुछ लिखते रहते हैं। बिजली नहीं रहने पर बाहर अखबार बिछा के बैठ जाते हैं फिर मोमबत्ती की रोशनी में चल पड़ती है उनकी लेखनी अनवरत्। उनको सोते जागते किसी ने नहीं देखा। वे वहाँ पर रहने वालों में आश्चर्य के विषय थे। गोल-गला और धोती पहने, गोपालगंज की सड़कों पर सिगरेट पीते लोग अक्सर देखा करते थे। यहां के कई लोग इन्हें शिवपूजन सहाय कहा करते थे।
परीक्षा के दौरान उनसे मेरा हमेशा सम्पर्क बना रहा। उन्हीं के पास मैंने सर्वप्रथम पत्रिका स्वाति देखा एवं श्रद्धेय मनु जी के कर्म पत्र भी। उन्होंने श्रद्धेय मनु जी की काफी प्रशंसा की और कहा कि कर्मठ साहित्यकार हैं ये। इन्होंने स्वाति पत्रक को पत्रिका बना दिया। इसके बाद ही मैंने आदरणीय मनु जी को जाना एवं अपनी रचनाएं भेजी जो प्रकाशित भी हुईं। आज जब उस महापुरूष का महाप्रयाण हो चुका है श्रद्धेय मनु जी जैसा निस्वार्थ, कर्मठ साहित्य सेवी संपादक ही अपनी पत्रिका में विशेषांक निकाल सच्ची श्रद्धांजलि दे सकता है।
डॉ. शाही अद्भुत व्यक्तित्व के थे उनके बारे में लिखना आसान काम नहीं। अनेक यादें हैं मेरी जेहन में। ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ क्या लिखूँ? क्या न लिखूँ? हिन्दी साहित्य का विशाल वट वृक्ष जिसकी छाया तले अनेक छोटे-बड़े साहित्यकार के साथ मैं भी पनप रही थी ,अचानक ही विलीन होने पर अकेली हो गयी हूँ। मैं उन्हें अपनी अश्रूपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ।
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(यह आलेख डाॅ प्रोफेसर श्रीरंग शाही के निधन के बाद डाॅ भावना के द्वारा स्वाति पथ के लिए लिखा गया था । उस समय भावना बिहार विश्वविद्यालय से एम. एस. सी. कर रही थीं )