श्रीरंग शाही एक स्मृति चित्र
- राकेश बिहारी
वर्ष 1987 में दशम् वर्ग का छात्र था। पहली बार अनुमंडल की सीमा लांध कर मैं, जिला स्तर पर आयोजित भाषण प्रतियोगिता में भाग लेने जिला मुख्यालय डुमरा गया था। प्रतियोगिता स्थल था एम.पी. हाई स्कूल। उस दिन जम कर वर्षा हुई थी। पूर्व निर्धारित निर्णायक मंडल के एक भी सदस्य नहीं आ सके थे। उनकी प्रतीक्षा में काफी बिलम्ब हो गया था। अंततः दोपहर बाद नवगठित निर्णालय मंडल के समक्ष प्रतियोगिता आरंभ हुई थी। विषय था प्रदूषण से विनाश और संरक्षण से समृद्धि। संयोगवश मुझे प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। उस नवगठित निर्णायक मंडल के एक सदस्य श्री श्रीरंग शाही भी थे। आज पूरे बारह वर्षों के बाद भी जब कभी उस दिन के बारे में सोचता हूँ एक अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है। उस दिन की वह उपलब्धि मेरे लिए आज भी एक यादगार समय बिन्दु है। श्री शाही जी मेरी स्मृति में हमेशा कौंध जाते हैं। एक ऐसे निर्णायक और अध्यापक के रूप में जिसने पहली बार मुझे जिला स्तरीय प्रतियोगिता में सफलता का आशीर्वाद दिया। उसके बाद हालांकि कई बार ऐसी प्रतियोगिताओं में भाग लेने का मौका मिला, पुरस्कृत हुआ लेकिन वह दिन सबसे अलग है। आज भी मेरे प्रमाण पत्रों की फाईल में सबसे उपर वही प्रमाण पत्र लगा हुआ है। अब तक यह प्रमाणपत्र महत्वपूर्ण था। अब श्री शाही जी की अनुपस्थिति में मेरे लिए अनमोल और ऐतिहासिक भी हो गया है।
तब के श्री श्रीरंग शाही की एक धुंघली सी तस्वीर मेरे सामने आज भी उभरती है। छोटा कद, बहुत ही दुबला-पतला शरीर, मैली सी घोती और हँसती हुई बातें उसके बाद फिर कभी उनसे नहीं मिला। यदा-कदा चर्चा होती थी उनके बारे में। लम्बे अंतराल के बाद वे अचानक 1998 में एक दिन बिहार विश्वविद्यालय परिसर में मिल गए। उन्हें तो मेरा चेहरा नहीं याद था लेकिन मैं उन्हें पहचान गया। वही कद वही काया और वैसी ही मैली धोती। परिचय देते ही वे भी पहचान गए और उस तेज धूप में सड़क पर खड़े-खड़े लगभग दो घंटे दुनिया-जहान की बातें होती रही। शायद बात और लम्बी होती लेकिन इसे बीच में ही रोकना पड़ा कारण कि इस बीच मेरे एक मित्र को दो घंटे धूप में खड़े-खडे चक्कर आने लगा था। फिर उसके बाद उनसे कभी मुलाकात नहीं हुई। इस तरह हमारी इस दो मुलाकातों में मुझे दो चीजें स्पष्ट दीखती है एक यह कि उनका पहला आशीर्वाद मुझे तब मिला जब मैं महाविद्यालयीय जीवन के प्रवेश द्वार पर था और दूसरा तब जब निकास द्वार पर। पहली मुलाकात तेज बारिश के बीच हुई थी और दूसरी तेज धूप में। ये दोनों मुलाकात शायद मुझे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सहर्ष जीने का पाठ पढ़ाती है।
एक बात और, मैं उनके साहित्यकार रुप से बहुत अधिक परिचित नहीं रहा हूँ। लेकिन एक महत्वपूर्ण बात जो उनमें मुझे दिखी वह है उनका गंभीर पाठक होना। साहित्य का निरंतर अध्ययन साहित्य की सबसे बडी सेवा है। अन्यथा साहित्य लिखने वाले तो बहुत मिलते हैं; पढ़ने वाला खोजने से। उनकी अध्ययनशीलता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि आज उनके चले जाने के बाद भी जीवन के अंतिम दिनों में प्रेषित उनकी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है। इसीलिए मुझे तो एक बार यह सुनकर विश्वास भी नहीं हुआ कि वे सितम्बर में ही चल बसे। ऐसे अनन्य साहित्य सेवी को मेरा शत्-शत् नमन ।
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सुपरिचित आलोचक राकेश बिहारी का यह संस्मरण 1999 में प्रकाशित स्वाति पथ से साभार है