पत्राचार सम्राट श्रीरंग शाही :: मुरलीधर श्रीवास्तव

पत्राचार सम्राट श्रीरंग शाही

  • मुरलीधर श्रीवास्तव

ऐसा अलंकरण शायद ही सुना होगा कोई! मेरे ज्ञान से निजी या राजकीय अलंकरणों की सूची में यह अपवाद होगा पर्याय नहीं। लम्बे पत्र, छोटे-पत्र, पुराने पत्र तथा कीमती पत्रों के संबंध में समाचार पत्र एवं सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में पढ़ा हूँ, परन्तु ‘पत्राचार-सम्राट’ जैसा अलंकरण कहीं नहीं सुना।

पत्र-पत्रिकाओं एवं स्थानीय साहित्यकारों से श्रीरंग शाही जी का नाम पढ-सुनकर मिलने की उत्कट् इच्छा हुई। पता चला कि बालिका उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापिका श्रीमति शांति जी के गाँव के चाचा जी है। अतः उम्मीद जगी कि कभी जरूर मिल सकेंगे। संयोगवश 12 मई 1997 को डॉ. व्रजनन्दन वर्मा शिवहर आए और बोले कि चलो, श्रीरंग शाही जी आए हैं। शान्ति जी के आवास पर हैं। मिलोगे? मैं उनके पीछे लग गया। मन कल्पना जगत् में था। एक बडे साहित्यकार प्रोफेसर, पुस्तकालय प्रेमी, बज्जिका शिरोमणि, आलोचक तथा समीक्षक से मिलने की साध जो पूरी होने को थी।

शान्ति जी के आवास का बरामदा। एक तरफ से कुर्सियाँ सजी तथा फर्श पर जाजीम बिछा था। चारों तरफ पुस्तकें, पत्रिकाएँ एवं शिवहर में उपलब्ध सभी समाचार-पत्र । आचार्य श्रीमदन जी एक बार बोले थे कि शाही जी समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं के प्रत्येक शब्द पढ़ते हैं। आचार्य श्रीमदन जी की बात अक्षरशः सत्य सिद्ध होते हुए मैं प्रत्यक्ष देख रहा था। साधक की तरह समाधिस्थ, तन्मय समाचार-पत्र पढ़ते हुए देख रहा था उन्हें।
साधारण कद-काठी। कोई अलकंरण या दिखावा नहीं। कुर्ता-धोती पहने तथा कन्धे पर गमछा। मुझे वार्तालाप के समय साहित्यिक चर्चा, कटुसत्यवादी तथा सहज ही मित्र बनाने में दक्ष लगे। परिचयोपरान्त उन्होंने डायरी में मेरा पता लिखा तथा पत्र लिखने के सलाह के साथ विदा किया।

26 मई ’97 को उनका प्रथम पत्र आया। कुछ पंक्तियां इस प्रकार थी. “आपके पत्र का इन्तजार करते-करते थक गया। दो सप्ताह हो गये। थककर मैं यह पत्र लिख रहा हूँ।” उस पत्र का पत्रांक-2682/मई 97 है। तब से पत्राचार का जो क्रम आरम्भ हुआ, अविराम चलता रहा। करीब ८० से अधिक पत्र उन्होंने मुझे लिखा और मैं प्रत्येक का उत्तर देता रहा। पत्रोत्तर में मुझसे ही देर हो जाती थी। जैसे दिन ढले रात का आगमन। रात के पश्चात् सूर्योदय निश्चित है। श्रीरंग शाही जी का पत्रोत्तर आना निश्चित था।
पत्रों का विषय पुस्तक समीक्षा, व्यक्तित्व, स्थानीय साहित्यकारों की चर्चा होता था। सामयिक घटनाओं की सूचनाएँ उन्हें अधिक थी।
इधर अगस्त एवं सितम्बर ’99 में हम लोगों के मध्य कोई पत्राचार नहीं हुआ। तबियत खराब होने के कारण मैं शिवहर तथा समाचार पत्र से कटा रहा। एक दिन मेरे आवास पर श्री जयप्रकाश मिश्र जी आए और बोले कि श्रीरंग शाही जी बीमार हैं। मैं दो-तीन दिनों से उन्हें पत्र लिखना चाह रहा था, परन्तु विषयाभाव में नहीं लिख रहा था। डॉ. व्रजनन्दन वर्मा द्वारा सम्पादित बज्जिका के लघुकथा संकलन ‘कचबचिआ’ के सम्बंध में श्री शाही जी की राय जाननी थी, जिसमें मेरी भी दो लघुकथाएँ छपी है। मैं प्रो. डॉ. श्रीरंग शाही जी को पत्र लिखा। १० दिनों तक प्रतीक्षा की। पत्रोत्तर नहीं आया। पत्रोत्तर तो आज तक नहीं आया। अब कदाचित कभी मेरे पत्र का उत्तर नहीं आएगा। यह प्रथम अवसर होगा जब ‘पत्राचार सम्राट’ का पत्राचार बन्द हो गया। जब तक संसार रहेगा, संचार के साधन रहेंगे, संचार, पत्राचार होता रहेगा। परन्तु, उसका सम्राट् शायद नहीं होगा।

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ग्राम-परसौनी बैज, पो. कमरौली, शिवहर

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