विशिष्ट गजलकार : दरवेश भारती
1
हम ज़िन्दगी की राह खड़े देखते रहे
झूठी खुशी की राह खड़े देखते रहे
आयेगी और मिटायेगी जो तीरगी-ए-ज़ेह्न
उस रौशनी की राह खड़े देखते रहे
आपस की दुश्मनी का रहे अब न सिलसिला
हम दोस्ती की राह खड़े देखते रहे
सब- कुछ हड़प गया वो सुधारों की आड़ में
जिस ‘चौधरी’ की राह खड़े देखते रहे
जो प्यार और वफ़ा के ही जज़्बे में गुम रहा
उस आदमी की राह खड़े देखते रहे
देकर दग़ा उन्हें भी मुख़ालिफ़ बना लिया
जो आप ही की राह खड़े देखते रहे
‘दरवेश’ इस उमीद में बख्शेगा वो सुकूं
मुख्लिस नबी की राह खड़े देखते रहे
2
आदमी ज़िन्दा रहे किस आस पर
छा रहा हो जब तमस विश्वास पर
भर न पाये गर्मजोशी से ख़याल
इस क़दर पाला पड़ा एहसास पर
वेदनाएँ दस्तकें देने लगें
इतना मत इतराइये उल्लास पर
जो हो खुद फैला रहा घर-घर इसे
पायेगा क़ाबू वो क्या सन्त्रास पर
नासमझ था ,देखा सागर की तरफ़
जब न संयम रख सका वो प्यास पर
सत्य का पंछी भरेगा क्या उड़ान
पहरुआ हो झूठ जब आवास पर
दुख को भारी पड़ते देखा है कभी
आपने ‘दरवेश’ हास-उपहास पर
3
जबसे किसी से दर्द का रिश्ता नहीं रहा
जीना हमारा तबसे ही जीना नहीं रहा
तेरे ख़यालो-ख़्वाब ही रहते हैं आस-पास
तनहाई में भी मैं कभी तनहा नहीं रहा
आँसू बहे हैं इतने किसी के फ़िराक़ में
आँखों में इक भी वस्ल का सपना नहीं रहा
दरपेश आ रहे हैं वो हालात आजकल
अपनों को अपनों पर ही भरोसा नहीं रहा
नफ़रत का ज़ह्र फैला है, लेकिन किसी में आज
मिल-बैठ सोचने का भी जज़्बा नहीं रहा
दारोमदारे-ज़िन्दगी जिसपर था, वो भी तो
जैसा समझते थे उसे, वैसा नहीं रहा
ये नस्ले-नौ है इतनी मुहज़्ज़ब कि इसमें आज
‘दरवेश’ गुफ़्तगू का सलीक़ा नहीं रहा
4
नारे विकासवाद के लाते रहे बहुत
नारों को नारेबाज़ भुनाते रहे बहुत
सचमुच के मोतियों से भरा घर मिला उन्हें
जो मोतियों-सी बातें लुटाते रहे बहुत
हँस-हँस के जो भी करते रहे मर्हलों को सर
एज़ाज़ उम्र-भर वही पाते रहे बहुत
ता’बीर पा सका न कोई, बात है अलग
आँखों में ख़्वाब यूँ तो समाते रहे बहुत
हासिल न हो सका बड़े-बूढ़ों को सुख कभी
चाहे सपूत उनके कमाते रहे बहुत
करते भरोसा किसपे, कहाँ थे भरोसेमन्द
दो-चार थे, वो नाज़ दिखाते रहे बहुत
इन्सानियत के पहरुओं का पूछिए न हाल
‘दरवेश’ पहरुए ये रुलाते रहे बहुत
5
बुलंदी हो बुलंदी-सी तो ये मशहूर करती है
अगर हद से ज़ियादा हो तो ये मग़रूर करती है
सुहाने ख़्वाब हो और वो भी हों ता’बीर से भरपूर
यही दौलत है वो जो नींद तक काफूर करती है
नहीं है होश में फिर भी वो उठ-उठकर है चिल्लाता
है कुछ तो बात जो इसपर उसे मजबूर कस्ती है
मेरी औक़ात से बढ़कर मुझे देना न कुछ मालिक
ज़रूरत से ज़ियादा रौशनी बेनूर करती है
इसे लेने में कोताही न हरगिज़ कीजिये साहिब
बुज़ुर्गों की दुआ ही हर बला को दूर करती है
जहाँ तक हो सके इससे बनाकर फ़ासिला रखिये
अना ही हर बशर के ख़्वाब चकनाचूर करती है
झुकी रहती हैं नज़रें उम्र-भर के वास्ते ‘दरवेश’
कि ये एहसानमंदी इसक़दर मशकूर करती है
6
मस्ती-भरी वो उम्र सुहानी किधर गयी
वो रेत के घरों की निशानी किधर गयी
चिन्ताएँ जब भी हद से बढ़ीं सोचना पड़ा
थी जूझती जो इनसे जवानी किधर गयी
वो वलवले रहे न वो अब जोश ही रहा
दरिया-सरीखी अपनी रवानी किधर गयी
पीपल न ताल है, न है चौपाल ही कहीं
पुरखों की एक-एक निशानी किधर गयी
हालात देख आज के उभरा है ये सवाल
तुलसी, कबीर, सूर की बानी किधर गयी
आया बुढ़ापा सर पे तो हैरान हो के हम
‘मुड़-मुड़ के देखते हैं जवानी किधर गयी’
रहते थे जिसकी तोतली बातों पे मस्त हम
‘दरवेश’ होते ही वो सयानी, किधर गयी
7
सामने जो कहा नहीं होता
तुमसे कोई गिला नही होता
जो ख़फ़ा है ख़फ़ा नहीं होता
हमने गर सच कहा नहीं होता
इसमें जो एकता नहीं होती
घर ये हरगिज़ बचा नहीं होता
जानता किस तरह कि क्या है ग़ुरूर
वो जो उठकर गिरा नहीं होता
नाव क्यों उसके हाथों सौंपी थी
नाखुदा तो खुदा नहीं होता
तप नहीं सकता दुख की आँच में जो
खुद से वो आश्ना नहीं होता
प्रेम खुद-सा करे न जो सबसे
फिर वो ‘दरवेश’-सा नहीं होता
8
ज़ेह्नो-दिल से शख़्स जो बेदार है
दरहक़ीक़त वो ही खुदमुख्तार है
आँख मूँदी आ गये तुम सामने
बीच अपने कब कोई दीवार है
रूप-रंग उसका, महक उसकी अदा
उसकी यादों से सजा गुलज़ार है
दर्द, ग़म, अरमां, खुशी, मस्ती भरा
दिल हमारा दिल नहीं बाज़ार है
ज़ीस्त में कुछ कर गुज़रने के लिए
आशनाई खुद से भी दरकार है
दर्द की शिद्दत के बढ़ने से लगा
ये तो कोई लादवा आज़ार है
जिसने भी ‘दरवेश’ हिम्मत हार दी
ज़िन्दगी उसके लिए दुश्वार है
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परिचय : दरवेश भारती, गजलों व कहानियों की 12 पुस्तकें प्रकाशित. पंजाब कला साहित्य अकादमी, हंस वरिष्ठ साहित्यकार सम्मान व साहित्य शिरोमणि जैसे कई सम्मान.
संपर्क – आर.जेड.डी – 38, गली नं. 4, निहाल बिहार, नांगलोई, नयी दिल्ली – 110041
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