एक यायावर की स्मृति में
- डाॅ. राजेश कुमार सिंह,
अतीत की सुनहरी समृतियों का मस्तिष्क में घूमड़ते रहना वैसे तो सामान्य,स्वाभाविक मनोप्रक्रिया है,किन्तु यदि हमारी दृष्टि अतीत के किसी अलिखित-अमिट पृष्ठ पर दीर्घकाल तक ठहर सी जाए तो इसे प्रकृति का प्रपंच ही समझना चाहिए।
ऐसे अवसर साहित्य- सृजन या साहित्य-रस की थोड़ी- बहुत समझ रखने वाले सहृदयों के जीवन में तो बार- बार आते हैं,परन्तु हम नाचीजों की भाग- दौड़ भरी जिंदगी में अतीत के पन्नों में ताक-झाँक के अवसर बिरले ही होते हैं।
महाकुम्भ के आखिरी दिन श्रद्धालुओं की जमात संगम पर त्रिवेणी में डूबकियाँ लगा चुकी थी ,देशभर में बस महाशिवरात्रि की ही धूम मची थी।महाकाल और काशी- विश्वनाथ मंदिर की देहरी पर शिवभक्तों की भारी भीड़ उमड़ रही थी। माताजी और कुछ अभिन्न मित्रों के साथ मैं कोयंबटूर स्थित सद्गुरु जग्गी बासुदेव के ईशा फाउण्डेशन द्वारा आदियोगी शिव के विवाह के अवसर पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम का लाईव प्रसारण देख रहा था। तभी मोबाईल की घण्टी ने ध्यान भटकाया ,अनमने भाव से फोन उठाया तो दूसरी ओर बचपन के मित्र और वर्तमान में उपायुक्त वाणिज्यिक कर ,बिहार सरकार के पद पर पदस्थापित समीर परिमल जिन्हें परिजन तथा मित्रगण घरेलू नाम ‘डब्लू’ से ही संबोधित करते हैं ,को पाया। इस संक्षिप्त वार्ता के दौरान हमें हमारे कालेज के दिनों की याद दिलाते हुए हम सबके चहेते और हमारे मार्गदर्शक तथा प्रेरणास्रोत रहे हिन्दी विभाग के सहायक प्राध्यापक डा0 श्रीरंग शाही के दिवंगत होने का शोक समाचार प्राप्त हुआ।
डा0 शाही जैसे सरल हृदय,सहज सुलभ भाषानुरागी प्राध्यापक जो हमारी पीढ़ी के विशेषकर कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले वैकल्पिक विषय अथवा राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी पढ़नेवाले छात्र- छात्राओं के लिए ईश्वर के वरदान स्वरूप थे के ब्रह्मलीन होने की खबर सुनकर हृदय अनायास शोकाकुल हो तीव्र स्पन्दन करता प्रतीत हुआ।
तनिक संयत हुआ तो डब्लू’ ने डा0 शाही से जुड़ी स्मृतियों पर आधारित एक संस्मरणात्मक संकलन के प्रकाशन की सूचना देने के साथ ही हमसे इस हेतु रचनात्मक सहयोग की इच्छा प्रकट की। डा0 शाही के स्नेहाशीष से अभिभूत हृदय के लिए आभार प्रकट करने के निमित्त ऐसा सुअवसर दूसरा नहीं हो सकता था। लिहाजा भरे कण्ठ से मैनें हामी भरी और मित्रों को विदा कर इस सत्कार्य में अपनी ओर से आहूति तैयार करने में लग गया।
चलचित्र की भाँति एक- एक करके सारे दृश्य आँखों के सामने आते रहे। डा0 शाही का वही अक्स हमारी आँखों के सामने था जब पहली बार स्टाफरुम से चहलकदमी करते उनका पदार्पण हमारे क्लासरूम में हुआ। मध्यम कद-काठी,कृशकाय शरीर,साधारण वेशभूषा और पैरों में कुरुम की साधारण सी चप्पल। अत्यधिक धूम्रपान के कारण फूलती साँसों के बीच रह- रहकर खाँसने के बावजुद खनकती आवाज का जादू युवाओं के सिर चढ़ कर बोलने लगा था।
कालेज के अहाते के अब बूढ़े हो चले दरख़्त तब पौधों की शक्ल में हुआ करते थे। अमराइयाँँ अभी नर्सरी में थीं। समय का इससे कुछ अधिक अंदाज नहीं कि हमने अभी-अभी स्कूली शिक्षा पूरी कर तब के गोपालगंज जिले का गौरव कहे जाने वाले गोपेश्वर महाविद्यालय के शैक्षिक सत्र 1985-87 में इण्टर में दाखिला लिया ही था कि आपके पदस्थापन की खबर आ गई।
आरंभिक परिचय में ही आपने किसी महिला महाविद्यालय से स्थानांतरित होकर आने की बात कही और बतकही की शुरूआत हो गयी….!हास्य- विनोद और बतकही तो जैसे आपके शिक्षण कौशल के अवयव थे। आप ही के द्वारा बताया गया कि महिला प्राध्यापकों को मैडम संबोधित करने की अभयस्त छात्राएँ शुरू- शुरू में तो हड़बड़ी में आपको भी मैडम ब़ोल जाती थीं और आप मुस्कुरा भर देते। कोई उज्र या ऐतराज का स्वर न दिखने पर बेधड़क यही संबोधन प्रचलन में रह गया। बकौल आपके आपने भी उनकी इस चुहल का भरपूर आनंद लिया। ऐसे अनगिनत किस्से नित पाठ्यचर्या के हिस्से होते और शिक्षण- अधिगम वातावरण बोझिल होने की बजाय आनंददायी हो जाता।
आपके मनोविनोदी स्वभाव और अंतर्क्रियामक संवाद के चलते क्या साइंस क्या आर्ट्स सभी संकाय के विद्यार्थी और सच कहूँ तो विशेषकर छात्राएँ आपके इस कौशल की मुरीद थीं। काॅमनरुम की घण्टी बजाकर रौबदार मूँछोवाले मुरेड़ा के बाबू रामजनम सिंह जी जैसे ही पीरियड बदलने की सूचना देते ,विद्यार्थियों का हुजूम बेतहाशा लपकते और आपाधापी करते देखा जा सकता था।
आज भी स्मरण है जब आपने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की प्रसिद्ध रचना- ‘साम्राज्ञी का नैवेद्य दान’ पढ़ाने के पूर्व कवि परिचय कराते हुए अज्ञेय की रचनाओं के उद्धरण की शुरुआत करते हुए कहा-
श्वाँस है उत्तप्त,
धमनियों में,
उमड़ आई है,
लहू की धार,
तुम कहाँ हो ? नारी!
हालांकि ऐसा भी नहीं था कि हिन्दी के अन्य प्राध्यापक किसी प्रकार से कमतर थे अथवा उनकी योग्यता- क्षमता में किसी प्रकार की कोई कमी थी। सबको अपनी- अपनी शैली में महारत हासिल था। परंतु आपकी बात और ही थी। धैर्य की साक्षात् प्रतिमूर्ति ,आपकी सरलता,सहजता आपको अनन्यता प्रदान करती थी। जैसे ध्रुवतारे की चमक के आगे अन्य तारों की चमक फीकी सी पड़ जाती है।आजीवन आप एक यायावर की भाँति विचरण करते,ज्ञान की दीप्ति बिखेरते रहे प्रारब्ध को प्राप्ति तक!
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संप्रति – मध्य विद्यालय न्यू एरिया, डिहरी, रोहतास