बज्जिका के दैदीप्यमान रत्न श्रीरंग :: अमिताभ शाही

बज्जिका के दैदीप्यमान रत्न श्रीरंग

  • अमिताभ शाही

कुछ लोग होते हैं जो अपनी यात्रा अटलता तथा वचनबद्धता के साथ शुरू करते हैं और अपने मानस में दीर्घकालीन दृढ़ता अक्षुण्ण रखते हुए एक विराट जीवन जीते हैं। वे तात्कालिक फायदों के लिए कभी भी अपने नैतिक मानदण्डों से समझौता नहीं करते। इन्हीं में से एक थे प्रतिबद्धता एवं जुझारूपन के पर्याय स्व. डा. (प्रो.) श्रीरंग शाही जी। मुजफ्फरपुर जिले के औराई क्षेत्र में श्रीरंग शाही को शिक्षा-शिरोमणि के रूप में याद किया जाता है। अपने लगभग 45 वर्षों के सामाजिक जीवन में उन्होंने इस क्षेत्र में शैक्षिक क्रांति का सूत्रपात करते हुए जनमानस में नवचेतना जागृत की। 7 फरवरी 1934 को जन्मे इस शिक्षा-शास्त्री ने अपनी किशोरावस्था में ही बालकन-जी-बारी संघ से संपर्क साधा और इसकी एक शाखा की नींव अपने पैतृक गांव शाही मीनापुर में रखी। प्रारब्ध में यह संस्था ही उनकी अधिकतर क्रियाकलापों का केंद्र रही। 1970 के दशक में स्वर्गीय शाही ने बालकन-जी-बारी, शाही मीनापुर के अंतर्गत शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र के माध्यम से सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षार्थियों को प्रशिक्षित कर उन्हें सरकारी शिक्षक की नौकरी दिलवायी। बिना किसी दान-दक्षिणा के सैकड़ों युवा-युवतियों को जीविका में प्रवेश करा देना एक भागीरथ प्रयास ही कहा जाएगा। इन्हीं दिनों स्वर्गीय शाही ने इसी संस्था में छात्रगण पुस्तकालय की नींव रखी। सन् 1980 में बालकन-जी-बारी के अंतर्गत स्वर्गीय शाही ने बालिका उच्च विद्यालय की स्थापना की और हजारों कन्याओं को उच्च शिक्षा के लिए अभिप्रेरित करते हुए मैट्रिक पास करवाया। महिलाओं का आर्थिक व सामाजिक रूप से सशक्तिकरण की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था। इन सबके अतिरिक्त बालकन-जी-बारी के अंतर्गत बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए बालवाड़ी, बाल- पुस्तकालय, क्रीड़ा- केंद्र, पोषाहार कार्यक्रम एवं राजकीय प्राथमिक विद्यालय का संचालन सुचारु रूप से किया जाता रहा।

स्व. शाही का छात्र जीवन अत्यंत उज्जवल रहा। उन्होंने बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से हिंदी में स्नातकोत्तर एवं कानून में स्नातक की डिग्री ली और साथ ही विद्यावाचस्पति का सम्मान प्राप्त किया। सन 1962 ई. से सन 1981 ई. तक उन्होंने रामदयालु सिंह महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर में पुस्तकालयाध्यक्ष की बागडोर संभाली। 1982 ई. से 1997 ई. में सेवानिवृत्ति तक वे गोपेश्वर महाविद्यालय, हथुआ गोपालगंज में हिंदी के प्राध्यापक रहे। यह उल्लेखनीय है कि अपनी व्यक्तिगत और व्यावसायिक व्यस्तता के बावजूद उन्होंने अपनी बालकन-जी-बारी संस्था को सक्रिय रखा।

बज्जिकांचल सही अर्थों में स्वर्गीय श्रीरंग शाही का ऋणी है। स्वर्गीय शाही ने बज्जिका को संवारा-सजाया और हिंदी की एक प्रमुख बोली के रूप में इस प्रतिस्थापित किया। बज्जिका की प्रथम पत्रिका के संपादन का श्रेय स्वर्गीय शाही को जाता है। बिहार विश्वविद्यालय के अंतर्गत स्व. शाही ने ‘बज्जिका लोकगीतों का अध्ययन’ विषय पर शोध किया। इस शोध प्रबंध को काफी सराहना मिली और उपेक्षा की शिकार बज्जिका पर विद्वानों का ध्यान गया। अखिल भारतीय बज्जिका सम्मेलन, हैदराबाद के उपाध्यक्ष के रूप में स्व.शाही ने राष्ट्रीय स्तर पर बज्जिका के उद्धार के लिए प्रयास किया। स्व. शाही ने बज्जिका में सृजन की एक नई परंपरा विकसित की। मुजफ्फरपुर दूरदर्शन पर प्रसारित प्रथम बज्जिका कवि-सम्मेलन का संचालन स्व. शाही ने किया।

स्व.शाही ने एक साहित्यकार और समालोचक के रूप में ख्याति पाई। उनके लेख राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। हिंदी के प्रख्यात साहित्यकारों के संदर्भ में उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियां आज भी मनन योग्य है और शोधार्थियों द्वारा उद्धृत की जाती हैं। साथ ही, स्व. शाही एक ओजस्वी वक्ता थे। आकाशवाणी पटना ने उनकी वकतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर समय-समय पर उनकी सेवाएं ली और अनेक विषय पर स्वर्गीय शाही की वार्ताएं प्रसारित हुईं।स्व. शाही की साहित्य और समाज के प्रति अमूल्य सेवाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान तब मिली जब अमेरिकन बायोग्राफिक संस्थान ने उन्हें सन 1997 का वर्ष-पुरुष (मैन ऑफ द ईयर) घोषित किया। पत्र-लिखना उनकी दैनिक दिनचर्या का अभिन्न अंग था और एक वर्ष में वह करीब 2000 पत्र लिखा करते थे। उनके सहयोगी उन्हें पत्र-वीर के उपनाम से संबोधित करते थे। उषा बेला में सुबह 4 बजे से ही श्रीरंग शाही अपनी लेखनी में लीन हो जाया करते थे।

स्वर्गीय शाही के व्यक्तित्व में फक्कराना अंदाज और सादगी का समावेश था। अपने विचारों में श्रीरंग शाही घनघोर सिद्धांतवादी और निर्भीक थे। वह सत्य के पुजारी और धुन के पक्के थे। बचपन से ही संघर्षों और चुनौतियों से जूझते हुए श्रीरंग शाही ने अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे। इन संघर्षों ने उनके विचारों और सोच को एक समावेशी दृष्टिकोण प्रदान किया और इसके फलस्वरूप, जुझारूपन उनकी पहचान बन गयी। वे कर्मयोगी थे और अर्थ से उन्हें तनिक भी आसक्ति नहीं थी। समाज में व्याप्त पाखंड और आडंबर का उन्होंने हमेशा विरोध किया।
आज जब श्रीरंग शाही को स्वर्गस्थ हुए 25 वर्ष गुजर चुके हैं उनकी कर्मभूमि ही नहीं अपितु संपूर्ण बिहार उस दिव्य पुरुष को याद कर रहा है। बज्जिका, हिंदी और समाज का यह महान सेवक शैक्षणिक, साहित्यिक और सामाजिक जगत में सदैव अमर रहेगा।

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दामुचक, मुजफ्फरपुर

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