डॉ. श्रीरंग शाही : एक गत्वर रचना पुरुष :: डाॅ महेन्द्र मधुकर

डॉ. श्रीरंग शाही : एक गत्वर रचना पुरुष

  • डाॅ महेन्द्र मधुकर, एमेरिटस प्रोफेसर यूजीसी

भारतीय चिंतन में स्मरण को नवधा भक्ति के अंदर गिना गया है। स्मृति और स्मरण में एक मौलिक अंतर हैं। मन की मन्जूषा में स्मृतियाँ सुरक्षित अनुभव के तरह पड़ी रहती है पर स्मरण में एक नित्य गतिशिलता बनी रहती है। यह स्मरण जब किसी वस्तु, या विशिष्ट व्यक्ति का होता है तो वह संस्मरण का रूप ले लेता है। आज हम अपने चीर संगी पुराने मित्र डा० श्रीरंग शाही का स्मरण कर रहे हैं। औसत कद काठी के शाही जी में वाणी का अपूर्व कौशल था। उनका लुभावना अंदाज, शब्दों का उचित संचयन और नहले पर दहला मार देने की क्षमता के हम सभी कायल थे।

शाही जी के साहित्य – जीवन और रचनात्मक व्यक्तित्व का विकास रामदयालु सिंह कॉलेज के पुस्तकालय के अधिकारी के रूप में हुआ था। संस्कृत में एक कहावत है – ‘पुस्तकी भवति पंडितः अर्थात जो पुस्तकों के बीच में रहता है वह सहज ही ज्ञानी हो जाता है। अपने कार्यकाल में पुस्तकों की कुण्डली खंगालने में उन्हें जरा भी समय नहीं लगता था। पुस्तकों के ज्ञान ने उनके शास्त्र -ज्ञान को समृद्ध किया और उनके व्यवहार की आकर्षण शक्ति ने उन्हें लोक प्रिय बनाया । यह भी सच है की शास्त्र और लोक ज्ञान ही मनुष्य को पूर्ण बनाते हैं। इन दोनो कसौटियों पर श्रीरंग शाही खरे उतरते थे।

शाही जी मुझसे अवस्था में कुछ ही वर्ष बड़े रहे होगें पर स्नेह से पगा हुआ उनका ‘भाई जी’ का संबोधन आज भी कानों में गूंजता- सा लगता है। हाँ, एक बात और उनकी चाल में गति थी, एक जल्दी, एकत्वरा, कम समय में सब कुछ कह देने का विनीत आग्रह उन्हें दूसरों से अलग करता था। प्रसन्नता उनकी मुख मुद्रा पर खेलती थी, जब वे विचारों की तरंग में आते तब उनकी सरस्वती एक मधुर नाद करती हुई महा नदी बन जाती थी ।

मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं बिहार विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग का अध्यक्ष था तो उन्के निर्देशन में पी-एच.डी रजिस्ट्रेशन के लिए एक शोध – विषय मेरे सामने आया। मैंने अविलंब अपनी सहमति एवं स्वीकृति दे दी।कुछ ही वर्षों बाद 1999 में अचानक उनका देहावसान हो गया।उनके शोध कर्ता डाॅ हरिनारायण ठाकुर तब रामद‌यालू कॉलेज के हिंदी विभाग के प्राध्यापक थे।उनका शोध प्रबंध भी लगभग पूर्ण हो गया था। हरि नारायण ठाकुर जी ने शोक संतप्त पीड़ित वाणी में अपने विषय के प्रति चिंता व्यक्त की। विश्वविद्यालय के नियमानुसार हिंदी विभाग के अध्यक्ष को यह दायित्व पूरा करना होता है। मैंने तमाम कार्य – व्यस्तताओं के बावजूद भाई श्रीरंग शाही के इस उत्तरदायित्व का स्नेह पूर्वक निर्वहन किया और उचित समय पर प्रो० ठाकुर को पी-एचडी की उपाधि प्राप्त हो गई। आज प्रो० हरिनारायण ठाकुर एक अच्छे विद्वान लेखक के रूप में निरंतर रचनाशील हैं।
भाई श्रीरंगशाही एक निष्ठावान और कर्मठ व्यक्ति थे। पुस्तकालय उनके लिए एक वैचारिक केन्द्र था। जब भी कोई नई पुस्तक प्रकाश में आती, वे उसका बड़े मनोयोग से अध्ययन करते और हिन्दी विभाग में आकर उस पर बहस छेड़ देते। वास्तव में कोई व्यक्ति अपने आचार विचार और व्यवहार से तभी बड़ा होता है जब उसके संपर्क में अनेवाले हर व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि यह तो हमारा ही है, बिलकुल हमारा है। इसी भाँति शाही भाई सबके प्रिय थे।
एक रचनाकार के रूप में श्रीरंग शाही का अलग ही जलवा था। वे एक ओर बज्जिका भाषा के उन्नयन की ओर ध्यान दे रहे थे तो दूसरी ओर हिन्दी भाषा और साहित्य की समस्याओं के प्रति भी जागरूक थे। उनके अगणित लेख इसके प्रबल साक्षी हैं। ऐसे मस्तमौला ,जागरूक साहित्यकार को नमन करते हुए हृदय का करुणा से भर जाना तो स्वाभाविक ही है।
महेन्द्र मधुकर

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