श्रीरंग शाही ने बज्जिका और हिंदी साहित्य को दी समृद्धि :: डॉ इंदिरा कुमारी

श्रीरंग शाही ने बज्जिका और हिंदी साहित्य को दी समृद्धि 

  • डॉ इंदिरा कुमारी

स्व० (डॉ०) श्रीरंग शाही जी का जन्म 7 फरवरी 1934 को मुजफ्फरपुर जिले के औराई अंचल अन्तर्गत शाही मीनापुर गाँव में एक संभ्रान्त किसान स्व० राजेन्द्र शाही जी के घर हुआ था। माँ की ममता की छाँव से उन्हें बाल्यकाल में ही वंचित होना पड़ा। सख्त मिजाज पिता की छत्रछाया में उनका बचपन बेहद अनुशासित ढंग से बीता। स्कूली शिक्षा औराई से ही पूरी हुई। उच्च शिक्षा हेतु पिताजी पटना गए। यह वह दौर था जब पूरे इलाके ही नहीं राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भी स्व० रामवृक्ष बेनीपुरीजी की साहित्यिक आभा पसरी थी। पिताजी उनके सम्पर्क में आए। स्व० बेनीपुरी जी के पितृवत् स्नेह और सानिध्य में हिन्दी साहित्य के प्रति झुकाव और लगाव उत्पन्न हुआ। पंडित नलिन विलोचन शर्मा, पंडित सियाराम तिवारी एवं डॉ० श्यामनंदन किशोर जैसी विभूतियों के सानिध्य एवं मार्गदर्शन में हिन्दी भाषा एवं साहित्य की विशिष्टियों को जानने-समझने का अवसर मिला। हिन्दी भाषा एवं साहित्य में स्नातकोत्तर एवं फिर पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त कर पिताजी ने गोपेश्वर कॉलेज हथुआ, जिला-गोपालगंज में हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में योगदान दिया। इस पद पर वे 1999 में सेवानिवृत होने तक रहे। इस दौरान वे यशस्वी प्राध्यापक के रूप में सेवा देने के साथ-साथ बहुविध साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। अपनी सरलता एवं सहृदयता जैसे गुणों के कारण वहाँ न सिर्फ छात्रों और शिक्षकों अपितु, स्थानीय लोगों के बीच भी हरदिल अजीज बने रहे।

वैयक्तिक जीवन में पिताजी एक आज्ञाकारी पुत्र, संवेदनशील पति एवं जिम्मेदार पिता थे। उनका व्यक्तित्व और सम्पूर्ण जीवन ‘सादा जीवन उच्च विचार’ और ‘सभी पढ़े सभी बढ़े’ की शाश्वत धारणा से अनुप्राणित रहा। सामान्य कद काठी और कृशकाय तन के भीतर चट्टान से भी दृढ़ मन था। दायित्व बोध, सकारात्मक दृष्टिकोण, जुझारूपन एवं निर्भीकता जैसे गुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे। अति वैयक्तिकता और घोर भौतिकतावादी आग्रहों से आहत इस कालखंड में भी भौतिकता मानो उन्हें छू तक नहीं पायी थी। ताउम्र निस्वार्थ भाव से वे ‘शिक्षा ही सेवा’ का अलख जगाते रहे।

सामाजिक सरोकारों की बात की जाए तो उनके सम्पर्क में आए प्रत्येक व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि पिताजी का स्नेह समाज के सभी वर्ग के लोगोंको समान रूप से प्राप्त था। उनकी दृष्टि में कोई छोटा या बड़ा नहीं था। सरलता ऐसी कि पोते-पोती की उम्र के बच्चों को भी आप कहकर ही संबोधित करते।

सामाजिक दायित्वबोध के आग्रह से अपने पैतृक गाँव में उन्होंने ‘बालकन-जी-बारी’ नामक संस्था का गठन किया। संस्था द्वारा संचालित शालापूर्व शिक्षा, छात्रगण पुस्तकालय, क्रीडांगन, गव्य विकास, सिलाई योजना, युवक मंडल एवं महिला मंडल की गतिविधियाँ सर्वांगीण ग्रामीण विकास को समर्पित थीं। एक जिम्मेदार सामाजिक व्यक्ति के रूप में न सिर्फ अपने गाँव अपितु, पूरे इलाके के शैक्षिक उत्थान के लिए पिताजी सदैव सक्रिय रहे। शालापूर्व शिक्षा, छात्रगण पुस्तकालय एवं क्रीडांगन जैसी गतिविधियाँ जहाँ बच्चों की संस्कारयुक्त शिक्षा के साथ उनके शारीरिक और मानसिक विकास को केन्द्र में रखकर संचालित थीं, वहीं, गव्य विकास जैसी गतिविधि किसानों की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाली थी। और तो और, जिस आर्थिक स्वावलम्बन को आज नारी सशक्तिकरण की अनिवार्य शर्त के रूप में प्रायः सभी नारी विमर्शकार स्वीकार करते हैं, पिताजी की दूरदर्शी सोच ने छठे दशक में ही नारी शक्ति के आर्थिक स्वावलम्बन को ध्यान में रखकर बड़ी संख्या में महिलाओं को शिक्षक प्रशिक्षण दिलवाकर उन्हें विभिन्न विद्यालयों में सेवा देने योग्य बनाया। इसके अतिरिक्त, बड़ी संख्या में महिलाओं को सिलाई-कढाई जैसे कौशल का प्रशिक्षण भी दिलाया गया।

हिन्दी के अध्यापक के रूप में हिन्दी के प्रति पूर्ण समर्पण के बावजूद बाबूजी मातृभाषा के रूप में प्रयुक्त बज्जिका से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे। अपने बाल्य काल और गाँव-जवार में आम बोलचाल में प्रयुक्त बज्जिका को भाषा एवं साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु वे आजीवन सक्रिय रहे। इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘बज्जिका’ नाम से एक मासिक पत्रिका का सम्पादन प्रारंभ किया। इसके माध्यम से बज्जिका की स्वरूपगत विशिष्टताओं, उसमें उपलब्ध साहित्य-लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाटक एवं प्रकीर्ण साहित्य से साहित्य जगत् एवं सुधी पाठकों को अवगत कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया। अखिल भारतीय बज्जिका परिषद् के बैनर तले बज्जिका को प्रतिष्ठापित कराने हेतु चलने वाले अभियान में भी उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभायी। पिताजी ने स्व० (डॉ०) श्यामनन्दन किशोर के निर्देशन में ‘बज्जिका लोक साहित्य का अध्ययन’ शीर्षक शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। इसके माध्यम से उन्होंने बज्जिका लोक साहित्य का शास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत करते हुए बज्जिका साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत प्रकाश डाला है। बाबूजी कहा करते थे कि किसी भी क्षेत्र का लोक साहित्य वहाँ की जनता के हृदय का उद्‌गार है। उनकी हार्दिक भवनाओं का प्रतिबिम्ब है। उनके अनुसार लोक साहित्य समाज की वस्तु है जिसमें जनता का हृदय लिपटा मिलता है।

उनका स्पष्ट मत था कि किसी भी सभ्यता का अध्ययन करने के लिए सर्वप्रथम वहाँ के लोक साहित्य का अध्ययन आवश्यक होगा। ‘बज्जिका लोक साहित्य का अध्ययन’ विषयक उनका शोध-प्रबंध इन्हीं उद्देश्यों से प्रेरित था। दुर्भाग्यवश, उनका यह भगीरथ प्रयास उनके जीवनकाल में पुस्तक रूप में पाठकों के बीच नहीं आ पाया। सम्प्रति यह शोध प्रबंध प्रकाशनाधीन है।

आज बज्जिका उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल है। शनैः शनै पिताजी और उनके सरीखे कतिपय बज्जिका प्रेमियों का सद्प्रयास फलीभूत हो रहा है। यह हम सब के लिए संतोष का विषय है; क्योंकि, मैंने बचपन से ही पिताजी को बज्जिका के मान-सम्मान और उचित पहचान के लिए संघर्षरत देखा है। हालांकि, आजबज्जिका को समर्पित मंचों पर होनेवाली चर्चा-परिचर्चा में बज्जिका आंदोलन में लगभग चालीस वर्षों तक सक्रिय योगदान देने वाले इस सपूत के नाम का उल्लेख तक नहीं होता। यह स्थिति पीड़ादायक है।

बाबूजी को जानने वाले बखूबी जानते हैं कि उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि अपने किसी भी कृत्य के लिए वे अपेक्षा नहीं पालते थे। शोहरत और धन की तो बिल्कुल भी नहीं। ये अलग बात है कि अपने कृतित्व के बूते वे आज भी हजारों परिवारों में श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं। यही नहीं, समाज सेवा के क्षेत्र में बाबूजी के योगदान को नॉर्थ कैरोलिना (संयुक्त राज्य अमेरिका) स्थित संस्था ‘अमेरिकन बायोग्राफिकल इंस्टीट्यूट’ जैसी अंतराष्ट्रीय संस्था से पहचान मिली और उन्हें वर्ष 1997 का ‘मैन ऑफ द ईयर’ घोषित किया गया। संस्था द्वारा प्रकाशित होने वाली पुस्तक में बाबूजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षिप्त ब्योरा प्रस्तुत कियागयाथा। उनकी शख्सियत ऐसी थी जिस पर हम परिजन ही नहीं पूरा समाज गर्व करता है। 25 सितम्बर 1999 को बाबूजी हम सबके लिए एक गौरवशाली विरासत छोड़कर परलोक के लिए प्रस्थान कर गए।

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संप्रति : सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, महेश प्रसाद सिन्हा साईंस कॉलेज, मुजफ्फरपुर।

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