विशिष्ट कहानीकार :: आलोक कुमार मिश्रा

मुँहनोचनी

  • आलोक कुमार मिश्रा

जाने कहाँ से आई थी वो। पूरे दिनों का पेट लिए हुए थी। तन पर नाम मात्र के फटे-पुराने चिथड़े थे। ऐसा लगता था जैसे उसे भी नोच कर फाड़ा हो किसी ने। वहीं गाँव से सटे बगिया में दो ऊँची खरहियों के बीच उसने अपने रहने की जगह बना ली थी। पुवाल चारों ओर फैलाकर उसी पर लेटी-बैठी रहती और सुबह-शाम की ठंड में उसे ही अपने ऊपर वही ओढ़ भी लेती। खेलते हुए बच्चे उसे चिढ़ाते तो कभी चिढ़ कर उन पर पुवाल फेंकती और कभी मुँह फेर लेती। मर्दों को देखकर तो वह अजीब ही व्यवहार करती। अपने से दूर भी किसी मर्द को आता देख लेती तो सहम सी जाती। अपनी जगह बदल खरही के दूसरी तरफ हो जाती। जबकि इन दिनों उसे हिलना-डुलना बहुत भारी लगता। उत्सुकता वश कोई मर्द नजदीक चला भी जाए तो उसकी आँखों में अंगार उतर आते। सहमना बंद कर वो अपनी मुट्ठी कस लेती। अपने हाथों से नोचने को लपकती। एक-आध के तो नाक, कान, गाल नोच कर वह लाल कर भी चुकी थी। पागल समझकर लोग उससे दूर हो जाने में ही भलाई समझते। पर औरतों से उसे ऐसी कोई समस्या नहीं होती। बाहर-भीतर आती-जाती औरतें उसका हाल जानने को थोड़ी दूर ठहरकर उसे निहारतीं तो वह भी एकटक उन्हें देखती। उनका आपसी बहनापा था या क्या, गाँव की औरतों ने लाकर कुछ कपड़े उसके पास रख दिये थे। जिनको उसने अपने ऊपर लपेट सा लिया था। गाँव की उन्हीं औरतों ने यह कह-कह कर कि, ‘बच्चा जनने वाली गाय-गोरू का भी ध्यान रखना चाहिए…गऊ गोहार और तिरिया गोहार सुनने में बड़ा पुण्य मिलता है’ एक सहानुभूति सी उसके लिए पैदा कर दी थी पूरे गाँव में। वरना छग्गन यादव अपने खरही और पुवाल का ये नुकसान भला क्यों झेलता कि कोई भी उस पर इस तरह लेटे-बैठे, उसे फैलाए और इधर-उधर फेंके। उसने सोचा कि ‘चलो गाय-भैंस के लिए दुवारे वाले खरही से काम चल ही रहा है, ऊपर से कुछ पुन्नै कमा लिया जाय।’ कुछ बूढ़ियों ने अपनी बहुओं को वहाँ खाना-पानी रख आने की हिदायत भी दे दी थी।

उसकी चर्चा पूरे गाँव में उसी तरह फैल गई थी जैसे दबे पाँव आई हुई अक्टूबर माह की कुनमुनी सर्दी पूरे वातावरण में। उस चर्चा में तमाम तरह की बातें होतीं। कोई कहता ‘दिमाग की कमजोर भी है और गूँगी भी, पति से बिछुड़ गई होगी और यहाँ आ गई होगी।’ तो कोई कहता ‘इसकी ऐसी स्थिति का फायदा किसी ने उठा लिया होगा, इसे तो पता भी न होगा कि इसके गर्भ का जिम्मेदार कौन है।’ जवान मर्द आपस में ठिठोली करते कि ‘है भी तो वैसे बहुत जबरजस्त …बीस-बाइस की उमर…भरा-पुरा देह…कौन न बहक जाये…जो साफ-सुथरी हो जाये तो कौन औरत है गाँव में ऐसी?… ऐसी हालत में न होती तो कांड तो अब भी होई जाता।’ खैर ….चर्चा में उसके कमसिन उम्र, सुंदरता, असहायता और इस दशा के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों पर अटकलों- अनुमानों का मिश्रण सामान्य बात रहती। और हाँ उसका एक नाम भी लोगों ने गढ़ लिया था- ‘मुँहनोचनी’। क्योंकि लड़कों और मर्दों को नोचने जो दौड़ती थी वह। गाँव में आने के दस-बारह दिन के भीतर ही वह हर किसी की जुबान पर थी। इसके साथ ही वह कुछ मर्दों की नजरों में भी तो ऐसे उतर चुकी थी कि दिन भर मन में उलझाव और रात भर तन में तनाव बनाए रखने का सबब बन गई थी। पर ये तनाव-उलझाव कोई हलचल पैदा करते, खबर बच्चा बनकर पैदा हो गई।

रोज की तरह भोर में ही बाहर के नित्य कर्म से लौट रही औरतों को खरही के पैरा पर एक नहीं दो जान देखकर अपने एकरस जीवन में उत्सुकता, उत्साह और कुछ नया होने के भाव का आभास हुआ। वे उधर आकर्षित भी बच्चे के रोने की आवाज़ से हुई थीं। ‘अहा…क्या सुंदर बच्चा है…मोटा-ताजा, गोरा-चिट्टा…जरूर किसी बड़े आदमी की औलाद है…अरे ये खुद कौन सी कम है, इतनी तो सुंदर है….पर हाय रे निर्मोही…क्या औरत का शरीर ही चाहिए था…अपने करम का फल नहीं…।’ औरतें कोरस में ये बातें दुहरातीं और अपने-अपने घरों तक खबर पहुँचाने के लिए आगे बढ़ जातीं। आज गाँव में उसकी पहले से चल रही चर्चा में एक और कोण जुड़ चुका था। नये उत्साह से बूढ़े-बच्चे, मर्द-औरत सब रेलम-पेल मचाए हुए थे। लेकिन अब वह ममत्व से भरी कुछ ज्यादा ही सतर्क और हिंसक लग रही थी। बिल्कुल उस शेरनी जैसी जो अपने शावक की सुरक्षा में तत्पर हो। बिना किसी दवा-दुआ और मदद के उसने बीती रात एक बालक को जन्म दिया था। वह उसे सीने से ऐसे चिपकाए हुई थी जैसे कोई बंदरिया अपने नन्हे बच्चे को। प्रसव की पीड़ा का बयान उसके शरीर से निकले रक्त, मज्जा और दोनों से जुड़ा नाल ही कर रहा था, उसकी तत्परता और फुर्ती से तो इसका आभास भी न होता था। आसपास कुत्तों की कुछ ज्यादा सक्रियता देख उसने आज पेड़ की एक सूखी टहनी को हथियार बनाकर अपने पास ही रखा था जिसे वह कुत्तों के साथ मर्दों की तरफ भी जब-तब लहरा देती थी। बिना किसी बंदिश, सोच-विचार, मान-मर्यादा की परवाह किये वह अपना स्तन बच्चे के मुँह में डालने में लग जाती और मुस्कुराती। जवान मर्दों में उछाह सा छा जाता, औरतें ये सब भांप कहतीं, ‘माँ तो माँ है, किसी भी स्थिति में ममता दिखाएगी ही। दुनिया में कौन है जो इस ममता के बगैर जी पाया है…कौन है जो अपनी माँ का जाया नहीं या बिना दूध पिये बड़ा हो गया है…अक्ल होती तो पर्दा न करती बेचारी।’ ये सब सुन लफंगे कुछ पल को शर्मिंदा हो इधर-उधर देखने लगते। कुछ बूढ़ियों ने अगुवाई करते हुए उसके आसपास साफ-सफाई की व्यवस्था कराई। बगिया में यूँ नन्ही जान लिए गूँगी और मानसिक तौर पर कमजोर जवान लड़की का होना कई अंदेशों को जन्म दे रहा था। इन अंदेशों को औरतें ही भांप रहीं थीं, आखिर उनसे ज्यादा गाँव के मर्दों को कौन पहचानता था जो आपदा में अवसर तलाशते-फिरते थे। बूढ़ी चंदौली वाली आजी तो न जाने कितनी बार यह बात दुहरा चुकी थीं कि ‘ये गऊ गोहार, तिरिया गोहार का आपदाकाल है…सब जन करो सहाय।’ ऐसा नहीं कि सारे मर्द सिर्फ़ उसका शरीर ही निहारते थे। कुछ को उसके इस तरह कच्ची उम्र में दर-दर भटकने, पेट से हो जाने और अब बच्चा लेकर खुले में पड़े रहने पर दया भी आती थी। औरतों की सहानुभूति से यह दया और हिलोरे मार जाती। तय हुआ कि कोई इसे कुछ दिन अपने मड़ई-दलान में जगह दे दे, आखिर ऐसे में सिवान में पड़े रहने का खतरा है। हिंसक जानवर तो थे ही, यूं रहने से आदमियों के भी जानवर बन जाने की पूरी संभावना थी। तो तय हुआ कि सेतई के घर के बाहर की मड़ई में इसे टिका दिया जाय। बड़े घर-दुवार के मालिक सेतई को क्या आपत्ति होती। शराब के नशे में धुत्त रहने वाले सेतई को अमूमन अपनी ही सुध न रहती थी, अपने पुरखों की सौंपी संपत्ति की सुध और देखभाल तो दूर की बात थी। उसे कोई हर्ज न था कि गिर-पड़ रही मड़ई में कोई कुछ दिन रह जाए।

पर ये तो लोगों ने तय किया था। उस नवप्रसूता को कैसे ये सब बताया जाए। गाँव का लड़का बबलू उसे वहाँ तक ले जाने के लिए बच्चे को उठाने हाथ बढ़ाकर लपका ही था कि उसने एक हाथ से अपने बच्चे को खुद से चिपकाते हुए दूसरे हाथ से उसका मुँह नोच लिया था। उसके नाखूनों ने चेहरे के एक तरफ तीन गहरी लाल रेखाएँ खींच दीं। हड़बड़ाते और चिल्लाते हुए भागा, ‘अरे मुँहनोचनी…मार डाली।’ डर के मारे और लोग भी छिटक गये। पहले सभी बिदके फिर औरतों ने ही मोर्चा संभाला। किसी ने उसको प्यार से सहलाते हुए आगे बढ़कर उसे साथ चलने का इशारा किया तो किसी ने डर-डरके हाथ पकड़ा और साथ चलना शुरू किया। औरतों के आसपास होने से वह खुद को जैसे सुरक्षित महसूस करने लगती थी। फिर भी एहतियात बरतते हुए वह बच्चे को खुद से यूं चिपकाये हुई थी कि जैसे कह रही हो कि ‘कुछ भी हो जाए अपना बच्चा किसी को न देगी।’ बच्चा लेना भी कौन चाहता था उसका। लोगों की नजर में यह ‘न जाने किस पापी का पाप था जो फायदा उठाकर इस गूँगी, पागल, जवान लड़की के हिस्से मढ़ गया था।’

अब वह खुले आसमान से छप्पर की छाँव में थी। वहाँ आते ही वह पहले से कोने में पड़े एक मटमैले से बिस्तर और चद्दर में अपने बच्चे के साथ घुसकर छिप सी गई। यह बिस्तर और चद्दर गाँव वालों ने ही पुण्य कर्म मानकर जुगाड़ा था। लोग धीरे-धीरे वहाँ से छंट गये। वह निश्चिंत भाव से बच्चा लिए सो गई। वैसे सेतई को पता तो था कि वही पागल औरत जो बच्चा जनी है, मड़ई में लाई गई है, पर उसे कोई उत्साह या उत्सुकता नहीं थी इस तमाशे को देखने में। वह चौराहे पर जाते हुए पिछले दिनों उसे देख चुका था। ‘कुछ दिन रहने को मड़ई दे दिया, क्या कम किया…गाँव में किसी ससुर को तो इतनी भी हिम्मत न हुई…खाने-पीने को अब यही हरिश्चंद्र की औलाद लोग दें…हमारा तो अपना ही निश्चित ठिकाना नहीं। ऊपर से सुने हैं पागल है और मर्द लोगों का तो मुँह ही नोचने दौड़ती है…मुँहनोचनी कहीं की…।’ यही सोच सेतई रोज की तरह चौराहे वाले अपने ताश अड्डे पर पड़ा रहा। साँझ वहीं ढाबे पर खाना खाया और पव्वा चढ़ा घर आके सो गया। आधी रात मड़ई में बच्चे के रोने से वह उठकर चौंक गया। उसे एक पल को लगा कि उसका लल्ला रो रहा है। फिर ध्यान आया ‘लल्ला कहाँ रोयेगा, वो तो अपने अम्मा के पास है…ऊ रोने थोड़ी देगी।’ आँसू उसके गालों पर लुढ़क गये। आँसू हाथ से पोछते हुए उसने सोचा ‘आज पाँच साल बाद आँसू आए हैं….इतने दिन बीत गये। लगता है इमरती और लल्ला कल ही गये हैं उसे छोड़ के।’ इमरती का नाम जहन में उतरते ही वह और अधीर हो गया। करवट बदला पर काम नहीं चला। उठकर लोटे में रखा पानी टटोलने लगा। महसूस हुआ कि कोई बाहर का हैंडपंप चला पानी निकालने की कोशिश कर रहा है। ‘पानी निकलेगा कैसे…हत्था सूखे तो महीनों हो गये’ यही सोच सेतई उठकर बाहर तक आ गया। चाँदनी रात में स्पष्ट दिखा कि वही थी, एक हाथ से गोद में बच्चा चिपकाए, दूसरे हाथ से सूखा नल चला पानी निकालने की कोशिश करती हुई। सेतई मुड़ कर वापस जग भरे पानी तक आया। अपने लिए गिलास में पानी उड़ेल लिया। बाकी बचे हुए पानी से भरा जग उससे बचते हुए मड़ई में इस तरह जाकर रखा कि वह उसे देख सके। पहले तो वह सतर्क होकर खड़ी हो गई, पर सेतई को वापस घर के अंदर जाता देख जग के पास पहुँच सारा पानी गटक गई। सेतई खिड़की से देखे जा रहा था। उसने सोचा कि उसे कम से कम पानी तो रखवा देना चाहिए था वहाँ। ‘ये गाँव वाले भी क्या आफत भिड़ा गये?’ वह गिलास का पानी पीकर बिस्तर पर पड़ गया। बच्चे के रोने की आवाज़ रह-रह कर आती तो अधीर सा हो जाता। पाँच बरस बाद उसने किसी बच्चे के रोने की आवाज़ इस तरह सुनी थी। उसे वे यादें और सताने लगीं जो पिछले पाँच बरस से एक पल को भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहीं थीं। उसका बेटा…उसके कलेजे का टुकड़ा…सूरज जब रोता था तब भी वह इसी तरह अधीर हो जाता था। कितना प्यार करता था वह अपनी लुगाई और अपने बेटे को। यही तो परिवार था उसका। अच्छे घर और लंबी खेती-बाड़ी का वारिस सेतई किशोरावस्था में ही अनाथ हो गया था। सभी रिश्तेदार, पड़ोसी और पटिदार अनाथ सेतई के मां-बाप बनने का दावा करते, पर हकीकत में खुले पड़े धन-दौलत की लूटमार ही मचाकर रखते थे। कुछ ने रातों रात मेड़ तोड़कर अपने खेत बड़े कर लिए और सेतई के खेतों में अंदर तक घुस आए थे तो कुछ काका-दादा बनकर बनिए से तर-ब्यौंत बना औने-पौने दाम फसल बिकवा कर हर साल अपना खीसा गरम कर लेते थे । अबोध किशोर सेतई क्या समझता, बोलता। पट्टी पढ़ाकर बहला दिया जाता। पर उन्नीसवें बरस में ही इमरती उसके जीवन में ब्याह कर क्या आई, सब बदल गया। किया तो था इमरती के मां-बाप ने भी धन-दौलत देखकर सेतई से अपनी बेटी का ब्याह। और इसमें गलत भी क्या था? इमरती बसंत बनकर सेतई के वीरान जीवन में छा गई। साफ रंग, भरे और कसे बदन की अठारह बरस की खूबसूरत इमरती का मन भी उतना ही सुंदर था। उसने सेतई के मकान को फिर से हरा-भरा घर बना दिया था। उल्लास और ऊर्जा से भरे सेतई ने खेतों पर ध्यान देना शुरू किया तो धन-धान्य बरसने लगा। लगता सब कुछ ठीक हो गया है।

शादी के एक बरस बीतते-बीतते ही इमरती ने एक चाँद सा लाल जना। सेतई बाप बन गया, ऐसा बाप जिसकी साँसें अपने लाल का चेहरा देख चलती थीं। एक-डेढ़ साल का होते-होते बालक के लड़खड़ाते कदमों और तोतली बोली से घर का कोना-कोना भर गया और उससे खिल गया सेतई और इमरती का मन भी। पर हाय रे नियति! सेतई के जीवन में यह बसंत आया भी तो कुछ दिनों के लिए। पतझड़ की आँधी में सब बिखर गया। सेतई और इमरती छोटे बालक को पास के शहर में टीकाकरण के लिए ले जा रहे थे। छोटे बस में बीस के लगभग लोग। न जाने कैसे बस का संतुलन बिगड़ा और सड़क किनारे के गड्ढे में वह हिचकोले खाते सरकी और फिर पलट गई।

बस पलटने का दृश्य आँखों में घूमा क्या, सेतई पसीने से तर-बतर हो गया। हालाँकि रात भीनी ठंड से सराबोर थी। सेतई ने यादों से खुद को बाहर निकालने के लिए ‘हे राम’ कह बेवजह ही चद्दर को सही से ओढ़ते हुए करवट बदला। पर उस घटना की याद उसके मन पर यों चिपक गई थी जैसे तन पर कोई जोंक। अगला ही दृश्य उसकी आँखों में तैर गया कि… वह एक अस्पताल में है। उसके हाथ-पैर पर प्लास्टर चढ़ा हुआ है। होश में आकर भौचक्का होकर वह अपनी पत्नी और बच्चे के बारे में पूछ रहा है। गाँव का पटिदार जोखन बता रहा है कि ‘बस पलटने से बहुत नुकसान हुआ है। सात तो तुरंत ही काल के गाल में समा गये जबकि जो बचे हैं उनमें भी कुछ की हालत बहुतै खराब है।’ पर सेतई तो सबसे पहले उससे अपने बच्चे और पत्नी का हाल जानना चाहता है। हिचकचाते हुए जोखन कह रहा है ‘भइया, भउजी और लल्ला दोनों हमें छोड़ गये।’… सेतई की आँखें फिर झटके से खुल गईं। वह उठकर बिस्तर पर फिर बैठ गया। कुछ भी करने या सोचने से पहले बच्चे के रोने की आवाज़ कान में घुस उसे बेचैन करने लगी। वह बाहर आया तो मड़ई की तरफ देखने लगा। वह बच्चे को लिए बिस्तर में घुसी हुई थी। सेतई फिर आकर बिस्तर पर बैठ गया। ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने खाना न खाया हो…और उसे दूध ही न उतर रहा हो…बोलती और अक्ल होती तो माँग लेती’… यह सोच सेतई और बेचैन हो उठा। उसे फिर याद आया कि कैसे सूरज के पैदा होने पर वह एक गाय खरीद लाया था… कि इमरती दूध-दही खुद खाए-पीए और उसे खूब दूध बने जिससे लल्ला का पेट भरने में समस्या न रहे।… यह मड़ई भी तो उसने गाय रखने के लिए ही छवाया था। वह दया और करुणा के भाव में पूरी तरह डूब गया। उसने ठान लिया कि सुबह-शाम मड़ई में खाने-पीने को जरूर ठीक-ठाक चीजें रखवा देगा…कम से कम जब तक वह यहाँ रहेगी।’ यही सब सोचते-गुनते न जाने कैसे उसे नींद आ गई।

सुबह वह देर से जगा। उठा तो बनाकर गरमा-गरम चाय का गिलास वह मड़ई की दालान पर उसे दिखाते हुए रख आया। उसे देख वह बिस्तर में कुछ ज्यादा ही घुस सी गई। पर जैसे ही वह वहाँ से हटा झट गिलास उठा बिस्तर पर बैठ सुड़कने लगी। सेतई यह सब देख अनुमान लगाने लगा कि वह इतनी पागल भी नहीं जितना लोग कह रहे हैं। चाय तो सेतई रोज सुबह बनाता था पर खाना बनाने का काम इस तरह व्यवस्थित नहीं था। वह कभी बनाता-खाता तो कभी चौराहे पर ही होटल में खा-पीकर आ जाता। पिछले पाँच साल से उसके जीवन की यही दिनचर्या थी। दिन भर ताश खेलना, शाम को खाने से ज्यादा पीने की चिंता में रहना और फिर लड़खड़ाते हुए घर में आकर सो जाना। इन खर्चों के लिए बंटाई पर दिए गये खेत से पर्याप्त उपज मिल ही जाती थी। अब इस सबसे हटकर जीवन में कोई लक्ष्य नहीं था उसके। हाँ न जाने क्यों उसके बारे में वह इतना क्यों सोचने लगा था। वैसे तो जच्चा-बच्चा की देखभाल का पुण्य कमाने के लिए गाँव की औरतें खाने-पीने का कुछ-कुछ सामान मड़ई में रखवा देतीं, पर सेतई को लगता कि ये सब करना ही है तो व्यवस्थित तरीके से क्यों नहीं? खुद तो सवेरे-सवेरे लोग खा-पी लेते हैं और इसकी सुध दोपहर में आती है। दो-तीन दिन इस ढर्रे को देखकर वह अपराध-बोध से घिर गया। वह बच्चे की चिंता करता और सोचता कि ‘अगर माँ को समय से खाना न मिले तो बच्चे को दूध क्या पिलाएगी?’ अब सेतई सुबह का खाना बनाकर ही घर छोड़ता वह भी पूरे दो खुराक। एक थाली में अपना भोजन अलग कर दूसरी थाली में जरूरत से ज्यादा डालकर और लोटा भर पानी लेकर वह मड़ई की दलान पर रख देता। शाम को भी वह जहाँ रहता जल्दी से घर की ओर हो लेता। आखिर खाना जो बनाना होता। उसने बढ़ती सर्दी का अनुभव कर रजाई भी वहाँ डलवा दी।

बीस-बाइस दिन इसी तरह बीत गये। वह भी जैसे खाने-पीने-रहने को लेकर निश्चिंत सी हो गई। बस निश्चिंत नहीं हुई तो मर्दों की उपस्थिति से। वह सेतई को देख अभी भी सतर्क सी हो जाती। और सेतई…वह तो जैसे जिम्मेदारी से भरा घर-परिवार वाला आदमी हो गया हो। अब वह बाहर से ज्यादा घर पर टिकने लगा। सुबह-शाम खाना बनाने, खाने-खिलाने में ही वह समय देने लगा। मौका पाकर वह दूर से ही उसके बच्चे को पुचकार लेता। शाम को धुत्त हो कर लौटने की आदत भी वह कोशिश करके पीछे छोड़ने लगा। हमेशा पिछले दिन से कम ही पीता कि पूरे होशोहवास में रह सके और लौटकर खाना बना सके। क्यों कर रहा था वो ये सब? पता नहीं क्यों? पर आजकल उसे अपनी इमरती और सूरज की याद अक्सर सताती। जितनी याद सताती वह उतने जतन से खाना बनाता, दो थाली में परोसता और एक थाली मड़ई की दलान पर सरका आता। इधर गाँव के और लोगों की ‘तिरिया गोहार’ का जज्बा और पुण्य की गंगा दोनों बहुत हद तक सूख चुके थे। हाँ सेतई के इस नये रूप पर उसे छेड़ने वाली बातें जरूर बढ़ गईं थीं।

उस दिन चल रही चकबंदी में पटवारी के साथ दूर के अपने खेतों की पैमाइश में उलझा सेंतई को कुछ ज्यादा ही देर हो गई। पहले पटवारी को कस्बे तक छोड़ने जाने और वहाँ से आने में समय लग गया। इतना कि पूनम का चाँद आसमान में चमक उठा था। हालाँकि पश्चिम से उठते बादलों की एक हुल्लड़ बाज टोली उसे परेशान करने में लगी थी। उसकी दुधिया चाँदनी को कभी-कभी वह खुद में खींच लेते। पर चाँद की चाँदनी थी कि आसमान से धरती तक लहरा-लहरा ही जाती। सेतई ने घर पहुँचकर साइकिल खड़ी करते हुए पहले मड़ई की ओर देखा। पूरी शांति पसरी हुई दिखी। आभास हुआ कि वह बिस्तर में घुसी हुई है। नवंबर के महीने की सर्दी अब पूरी तरह बिस्तर में घुस लुकाछिपी करने को मजबूर कर रही थी। सेतई ने कुछ ज़्यादा ही तेजी से चूल्हे में आग धधका दिया। उसे अपने भीतर भी न जाने कैसी आग धधकती हुई सी लग रही थी। वह बेहद परेशानी और चिंता में था कि आज वह उसे समय पर खाना न दे सकेगा। यही सोच उसने रोटी बनाना आज मुल्तवी कर एक तरफ चावल का अदहन चढ़ा सिर्फ़ भात और सब्जी बनाने की बात सोची। आलू काटा, कड़ाही में मसाला-प्याज-टमाटर तेल में तलने-हिलाने के बाद आलू और पानी डालकर आँच बढ़ा हाथ-मुँह धोने बाहर नल पर आ गया। नल का हत्था चलाते हुए वह एक-दो बार पानी को हाथ-पैर पर डालता और कई बार गर्दन मड़ई की ओर उचका कर बच्चे के रोने की आवाज़ का नजरों से पीछा करने लगता। उसे लगा कि ‘कहीं खाना न मिलने की वजह से वह बच्चे से नाराज तो नहीं…नहीं नाराज भी होगी तो मुझसे होगी, बच्चे से क्यों होगी…अरे मुझसे भी क्यों होगी?’ वह जल्दी-जल्दी हाथ मुँह धोकर घर में आकर खाना परोसने लगा। दो थालियों में खाना परोसने में समय लगता इसीलिए फिलहाल उसके लिए एक ही थाली में परोस कर एक हाथ में थाली दूसरे में लालटेन ले लंबे डग भरता हुआ मड़ई में दाखिल हो गया। महज थोड़ी सी देरी हो जाने से ही वह गहरे अपराध बोध से घिरा हुआ था। बिस्तर के बगल में थाली और जग रखकर सेतई बिस्तर को निहारने लगा। वह बच्चे के साथ मुँह ढक कर बिस्तर में घुसी पड़ी थी। ओढ़ी हुई रजाई को हाथ बढ़ा कर हटाने को ही हुआ था कि सेतई को याद आया कि ‘…वह मर्दों से खौफ खाती है, और खौफ ही नहीं नजदीक जाने पर नोच भी लेती है।’ यह सोच सेतई ने हाथ समेट लिया। उठकर चलने को हुआ ही था कि एक नई सोच ने उसके मन में दस्तक दे दी। उसे लगा कि यही मौका है कि ‘आज बच्चे को अच्छी तरह नजदीक से देख लिया जाए। …वरना तो वह कहाँ किसी को आसपास फटकने देती है उसके।’ उसने ध्यान से बिस्तर को निहारा और उस कोने से थोड़ा सरकाया जिस ओर छोटा उभार था। उसने देखा वह वह गहरी नींद में है। बिस्तर हटाने से कुनमुनाकर माँ की ओर करवट ले उसके पेट में घुस गया। ‘धत्त अच्छी तरह देखा भी न गया। यह तो मुँह फेर अंदर ही घुस गया।’ वह मन में ही बुदबुदाया। उसने बिस्तर का वही छोर पकड़ और थोड़ा सा सरका दिया और देखा कि उसके उघड़े हुए पेट से वह यूँ चिपका हुआ था जैसे उसी का अभिन्न अंग हो। वह भी बेसुध गहरी नींद में थी। उसने रजाई थोड़ी और सरकाई तो उसका चेहरा स्पष्ट उभर आया। लालटेन की मद्धम लौ में वह चाँद सी दमक गई। पहली बार सेतई उसे इतने करीब से देख रहा था। एक बारगी तो उसे वहाँ इमरती ही जान पड़ी। वह उसे देखकर खुद को भूल गया। उसे न जाने क्या होने लगा था। वह गलने सा लगा था और गलते-गलते गायब होने लगा था। उसे ऐसा लग रहा था कि अब वह यहाँ नहीं, अपनी इमरती और सूरज के पास है। ‘इमरती जिसे वह बहुत प्यार करता है…जिसके बगैर वह कुछ भी नहीं है। जो उसके रोम-रोम में समाई हुई है। उसके और इमरती के बीच कोई नहीं आ सकता…ये बाल भी नहीं।’ उसके चेहरे पर पड़ी उलझे बालों की लड़ी को हटाने के लिए अपनी उँगलियाँ उसके गालों पर फिरा दी।

उंगलियाँ थीं या करंट? स्पर्श होते ही वह झटक कर उठ बैठी। एक हाथ से बच्चे को अपनी ओर झिंगोटते हुए दूसरे हाथ से उसने सेतई का मुँह नोचकर लहू-लुहान कर दिया। सेतई एकाएक हुए इस आक्रमण से भौंचका तो गया ही, मुँह नुच जाने पर दर्द से कराह भी उठा। चेहरे पर हाथ लगाया तो उसे नाक और गाल तक खरोंच से निकले खून के चिपचिपाहट का एहसास हुआ। वह पिछाड़ा खा बिस्तर से कुछ कदम दूर खिसक आया। इधर वह बच्चे को सीने से चिपकाए बचाव की मुद्रा में मड़ई के बाहर आ आँखें फाड़कर रौद्र रूप में खड़ी हो गई। सेतई को लगा अभी यहाँ से हट जाने में ही भलाई है। इसलिए बिना कुछ कहे-सुने वह वहाँ से घर के अंदर भाग आया। बिना कुछ खाए-पीए सीधे बिस्तर में घुस गया। उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ क्या है? बहुत देर तक वह बिस्तर में जागता रहा पर सोच क्या रहा है, उसे ही पता नहीं चल पा रहा था। हाँ उसे गुस्सा आ रहा था वो भी खुद पर ही।

सुबह उठा तो रात में हुए औचक हमले की सोच सेतई एक बार फिर सिहर सा गया। शीशा देखा तो चेहरे पर नाखून से खिंची दो गहरी रेखा उभरी हुई दिखी जिस पर जमी खून की पपड़ी अभी भी ताजी सी लग रही थी। उसे उस पर गुस्सा सा आया। पर फिर वह खुद को ही कोसने लगा। चाय चूल्हे पर चढ़ा बाहर आकर मड़ई की ओर उचक कर देखा। वहाँ बिस्तर उलटा-पलटा पड़ा था। वह कहीं दिख नहीं रही थी। उसे लगा यहीं कहीं होगी। वैसे तो उसका सामना करने की भी सेतई की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ सोचकर वह अंदर आ गया। चाय गिलास में उड़ेल कर वह मड़ई की दालान पर रखने आ गया। वह अब तक भी कहीं नहीं दिख रही थी। उसे अब शक होने लगा था। न जाने कैसे अंदेशे से वह घिर गया था। आसपास के लोगों से वह पूछताछ करने लगा। किसी से कोई जवाब नहीं मिलता, उलटे उससे ही प्रश्न हो रहे थे कि ‘चेहरे पर ये निशान, ये चोट कैसा? कहीं मुँहनोचनी ने ही तो…’

उसका दिल बैठा जा रहा था। समय बीतता जा रहा था और उसके न मिलने की नाउम्मीदी से वह बुरी तरह घिरा जा रहा था। वह चाहता था कि ‘एक बार वह मिले तो उससे अपने साफ मन की बात बता सके।’ पर वह अब वहाँ नहीं थी, वह जा चुकी थी। एक छोटी सी बात उसके लिए न जाने क्यों इतनी बड़ी बात थी कि इस अमानवीय दुनिया में बिना किसी संबल के इस छत्रछाया से भी निकल गई।

सेतई फिर से उजड़ गया। वह खुद से ही उखड़ चुका था। और वह…वह तो न जाने कहाँ विलीन हो चुकी थी। गाँव पर कोई फर्क नहीं था। वह पहले की तरह अपनी लय में मग्न हो गया था। धीरे-धीरे चर्चाओं से भी उसका नाम गायब हो गया। हाँ, सेतई के हृदय में वह जरूर फाँस सी अटकी हुई थी।

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परिचय : आलोक कुमार मिश्रा पेशे से शिक्षक हैं.  कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन करते हैं. इनकी अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.  पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन होता रहता है.

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