साये में धूप : दुष्यन्त कुमार
– निधि गौतम
हिंदी कविता की परंपरा में साये में धूप जैसा संग्रह विशेष महत्व रखता है। जहाँ एक ओर ग़ज़ल की पहचान शृंगार और प्रेमाभिव्यक्ति तक सीमित थी, वहीं दुष्यन्त कुमार ने उसे जनता की आवाज़ बना दिया। उन्होंने ग़ज़ल को भूख, गरीबी, राजनीति की विफलता और सामाजिक विषमता का दर्पण बना दिया। यही कारण है कि साये में धूप आज भी हिंदी साहित्य की सबसे अधिक उद्धृत कृतियों में गिनी जाती है।
दुष्यन्त कुमार का जन्म 1 सितम्बर 1933 को बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की। आकाशवाणी से जुड़कर उन्होंने साहित्य और नाटक लेखन किया। 42 वर्ष की अल्पायु में (1975) उनका निधन हुआ, किंतु वे हिंदी साहित्य को स्थायी धरोहर दे गए।
दुष्यन्त कुमार का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यंत बहुआयामी था। उन्होंने केवल ग़ज़ल ही नहीं लिखी, बल्कि कविताएँ, निबंध और रेडियो नाटक भी रचे। उनकी रचनाएँ सामाजिक चेतना और राजनीतिक जागरूकता से भरी हुई हैं।
1975 में प्रकाशित साये में धूप ग़ज़ल संग्रह ने हिंदी जगत में तहलका मचा दिया। इससे पहले हिंदी में ग़ज़लें लिखी जाती थीं, लेकिन वे आम जनता के सरोकार से इतनी गहराई से जुड़ी नहीं थीं। दुष्यन्त कुमार ने ग़ज़ल की भाषा को सरल बनाया और उसे लोकतांत्रिक संघर्ष का शस्त्र बना दिया।
प्रसिद्ध शेर:
“कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।”
यह शेर उस समय की राजनीति और व्यवस्था की असफलताओं को बखूबी उजागर करता है।
साये में धूप की ग़ज़लों में निम्न विषय प्रमुखता से उभरते हैं—
राजनीतिक विफलता : जनता से किए गए वादों का टूटना।
भूख और गरीबी : आम आदमी का संघर्ष।
व्यवस्था-विरोध : भ्रष्टाचार और तानाशाही पर प्रहार।
क्रांति की चेतना : परिवर्तन की आकांक्षा।
जनजीवन की पीड़ा : छोटे-छोटे सवालों में बड़े सच।
शेर देखें –
“भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ोरों से चर्चा रोज़गार की।”
इन पंक्तियों में आम आदमी के जीवन की कड़वी सच्चाई स्पष्ट दिखाई देती है।
दुष्यन्त कुमार की भाषा सरल, सहज और व्यंग्यपूर्ण है। उन्होंने ग़ज़ल में कठिन फारसी-उर्दू शब्दावली से बचकर ऐसी हिंदी का प्रयोग किया जो गाँव-शहर के पाठकों को तुरंत प्रभावित करे।
उनकी गजलों की विशेषताएँ हैं—
लोकजीवन के प्रतीक : हिमालय, सूरज, साया, गंगा जैसे प्रतीक सहज अनुभव से जुड़े।
व्यंग्य और विडंबना : शहरी और राजनीतिक जीवन की आलोचना।
संगीतात्मकता : ग़ज़ल की लय और लघुता उसे आसानी से पठनीय और गेय बनाती है।
उर्दू ग़ज़ल परंपरा प्रेम, हुस्न और दर्द पर आधारित थी। दुष्यन्त कुमार ने इसे सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों से जोड़कर हिंदी ग़ज़ल की नई परंपरा स्थापित की। उन्होंने इसे सिर्फ़ साहित्य नहीं, बल्कि जन-आंदोलन का उपकरण बना दिया।
शेर देखें –
“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।”
यह शेर तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक संकट पर तीखा व्यंग्य है, जो क्रांति और बदलाव की आवश्यकता को उजागर करता है।
आलोचक मानते हैं कि दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें शुद्ध उर्दू ग़ज़ल की पारंपरिक कसौटी पर हमेशा खरी नहीं उतरतीं। लेकिन यही उनकी विशेषता है—उन्होंने ग़ज़ल को आम आदमी के जीवन से जोड़कर इसे समाज में प्रासंगिक बनाया।
कुछ आलोचक कहते हैं कि उनकी भाषा की सरलता कभी-कभी गहन भावों को दबा देती है, पर अधिकांश साहित्यकार और समीक्षक उनकी जनकवि के रूप में पहचान करते हैं।
दुष्यन्त कुमार के साहित्यिक योगदान का प्रभाव अगली पीढ़ी पर स्पष्ट दिखाई देता है। अदम गोंडवी, कुमार विश्वास, आलोक धन्वा आदि कवियों ने ग़ज़ल में समाज-राजनीति की परतों को प्रमुखता से पेश किया।
उनकी रचनाओं ने हिंदी ग़ज़ल को सिर्फ़ सौंदर्यबोध का माध्यम नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ और लोकतांत्रिक चेतना का प्रतीक बना दिया।
आज के सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में साये में धूप की ग़ज़लें उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं। बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और सामाजिक विषमता जैसी समस्याएँ आज भी उतनी ही तीव्र हैं।
शेर देखें –
“ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।”
यह शेर आज भी सत्ता और समाज के बीच की दूरी को उजागर करता है।
दुष्यन्त कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जन-आंदोलन का माध्यम बनाया। साये में धूप उनकी साहित्यिक उपलब्धियों का प्रतीक है, जिसमें सामाजिक चेतना, राजनीतिक जागरूकता और आम आदमी की पीड़ा स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। उनकी रचनाएँ आज भी साहित्यिक और सामाजिक विमर्श में गूँजती हैं। वे हिंदी साहित्य में जनकवि और हिंदी ग़ज़ल के प्रवर्तक के रूप में स्थायी स्थान रखते हैं।
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परिचय : निधि गौतम साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखती हैं. इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है
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