दुष्यंत कुमार : एक अमिट हस्ताक्षर : अंजना वर्मा

दुष्यंत कुमार : एक अमिट हस्ताक्षर
                             – अंजना वर्मा

हिंदी में ग़ज़ल विधा को लोकप्रिय बनाने और हिंदी की मुख्य धारा से जोड़ने में दुष्यंत कुमार की अहम् भूमिका रही है।  यद्यपि ग़ज़ल की दुनिया में इनसे पहले भी कबीर , भारतेन्दु , निराला, शमशेर,  त्रिलोचन,जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे दिग्गज कवि अपनी प्रतिभा दिखा चुके थे , लेकिन  दुष्यंत कुमार की कलम से उतरकर ही हिन्दी ग़ज़ल अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त कर लोकप्रिय हो सकी और  तीव्र गति से आगे बढ़ चली।
प्रारंभिक उर्दू ग़ज़ल की मूल संवेदना में मुख्य रूप से प्रेम और विरह-मिलन का बाहुल्य था। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ ही होता है स्त्रियों से बातें करना। पर दुष्यंत कुमार ने इश्क और हुस्न की गलियों में सैर करती ग़ज़ल को वहाँ से निकालकर जनपथ के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ वह आम जन की परिस्थितियों से रूबरू होने लगती है। उसे पंख पसारकर उड़ने के लिए पूरा आसमान मिला। इसलिए आज हिन्दी ग़ज़ल की संवेदनाएँ बहुत विस्तृत और व्यापक गई हैं।  दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को नयी पहचान दी। उसका वह लोकतांत्रिक स्वरूप निर्मित  हुआ , जो तत्कालीन साहित्य के लिए ज़रूरी था । उस समय उसके उस स्वरूप की ज़रूरत साहित्य और समाज को तो थी ही,  आज भी वह हिंदी साहित्य में सर्वाधिक मान-सम्मान और प्यार पा रही है।
समकालीन परिप्रेक्ष्य में साहित्य की कोई भी विधा हो, उसे जन की कसौटी से होकर गुज़रना ही पड़ता है और जो विधा इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती, उसे आज का पाठक वर्ग स्वीकार नहीं कर सकता।  ग़ज़ल आम आदमी के बीच प्रतिष्ठित होकर ही सशक्त हुई है । आज वह ऐसा आईना बन गई है, जिसमें आम जन भी अपना चेहरा देख सकता है।
दुष्यंत कुमार ने अपने समय के यथार्थ और जन की पीड़ा को अपनी ग़ज़ल में आवाज़ दी है। वे जनहित और संघर्ष के एक सजग रचनाकार थे। उन्हें अपनी आवाज़ आम लोगों तक पहुँचाने के लिए एक ऐसी विधा की ज़रूरत थी जो जन-जन का प्यार पा सके। तभी वे अपने रचना-कर्म को  सफल समझ सकते थे।  ग़ज़ल विधा की संप्रेषणीयता और संभावनाओं से पूरी तरह प्रभावित और इसके असर  के प्रति पूरी तरह आश्वस्त होकर ही उन्होंने अपनी बात ग़ज़ल में कही। उनका यह मानना था कि जब मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए ग़ज़ल को ही चुनते हैं, तो अवश्य ही इसमें अधिक असरदार होने की ख़ासियत है। इसलिए यह अपेक्षाकृत बड़े पाठक वर्ग को प्रभावित करेगी और सचमुच अपनी ग़ज़ल के माध्यम से उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया।  हिन्दी का समस्त पाठक-वर्ग चकित हो गया।  उन्होंने कहा,
” मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।”

उनकी ग़ज़लों की संवेदना में तत्कालीन आम आदमी की पीड़ा व उसकी दुर्निवार समस्याएँ,  देश की भ्रष्ट राजनीति, सामाजिक बदहाली और सांस्कृतिक  मूल्यों का क्षरण आदि शामिल हैं। उनके  अश्आर तत्कालीन देश के पीड़ित  और हताश जन की तस्वीरों से भरे हुए हैं । उनकी भाषा की सादगी तो ऐसी है कि वह सबकी ज़बान पर आसानी से चढ़ जाती है।   ‘साये में धूप’ में  ‘मैं स्वीकार करता हूँ ‘ में दुष्यंत कुमार कहते हैं, ” ये ग़ज़लें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूँ।” इससे यह पता चलता है कि दुष्यंत कुमार भाषा की दृष्टि से बहुत  सचेत थे। व्यापक संवेदना और सोच की ईमानदारी के अनमोल नगीने तो उनके पास थे ही। यही कारण  है कि उनके अंतस से निकली हुई ये ग़ज़लें बहुत ख़ास

बन पड़ी हैं , जो अपनी भाषा एवं कहन के द्वारा पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ती हैं।

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना व्यापक रूप में दिखाई देती है ।आपातकाल के दौरान जब कोई भी तानाशाही गतिविधियों के ख़िलाफ़ नहीं बोल सकता था,  उन्होंने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से जन-जागरण का काम किया। उनका ग़ज़ल -संग्रह ‘साए में धूप’ वर्ष 1975 में प्रकाशित हुआ , जिसमें उनके प्रतिरोधी तेवर दिखाई देते हैं। उनकी ग़ज़लों ने उस समय वह काम किया, जो साहित्य की कोई अन्य विधा नहीं कर सकती थी। दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को आम आदमी की आवाज़ बनाकर आम आदमी के हित में खड़ा किया और उसे  लोकप्रिय  बनाया, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है   कि मात्र बावन ग़ज़लों के उनके इस  संग्रह का चौहत्तरवाँ संस्करण पचास सालों के दरम्यान निकल चुका है।
उनके कई अश्आर ऐसे हैं, जो बुद्धिजीवियों के साथ-साथ सामान्य लोगों की ज़बान पर भी चढ़े हुए हैं। देश की बदहाली पर जब भी कोई विचार करे तो उनका यह शेर अनायास ही दिमाग में बिजली की तरह कौंध जाता है,
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ  चिराग़ मयस्सर नहीं  शहर के  लिए ।
दुष्यंत कुमार ने अपनी कई ग़ज़लों में सत्ता की जनविरोधी प्रवृत्तियों पर बेख़ौफ़ होकर उंगली उठाई । वर्ष 1975 में आपातकाल लागू होने के दौरान कही  गई  उनकी ग़ज़लों में विद्रोह का तीखा स्वर है, जिससे युवा वर्ग को नया जोश और नई ताक़त मिली। उनके कई अश्आरों में भ्रष्ट लोकतंत्र के जनविरोधी कारनामों  के ख़िलाफ़  आवाज़ बुलंद की गई है। उनकी ग़ज़लों से गुजरते हुए उनकी जनपक्षधरता बड़े स्पष्ट  रूप में दिखाई देती है। जन-जन को जगाने  और उसमें ऊर्जा भरने की उनकी यह ललकार देखने लायक है,
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर,हर गाँव में,
हाथ  लहराते  हुए    हर  लाश  चलनी चाहिए।
उनकी आँखों में सुखी , सुरक्षित और सुव्यवस्थित समाज का स्वप्न था, जैसा कि हर एक ईमानदार रचनाकार के अंतर्मन में होता है, जिसके कारण वे जन-समाज को पीड़ित और सिसकता हुआ नहीं देख सकते थे,
“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।”
पीड़ा की अनुभूति  दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में है, लेकिन यह समष्टिगत पीड़ा की अनुभूति है। उन्होंने अपनी पीर को ‘दोहरी पीर’ कहा है । ‘कल्पना’ में वे कहते हैं, “और अगर ग़ज़ल के माध्यम से ग़ालिब अपनी निजी तकलीफ़ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं ,तो मेरी दुहरी तकलीफ़ (जो व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती ?”
दुष्यंत कुमार की पीर एक ओर  व्यक्तिगत भी है और दूसरी ओर सामाजिक भी। देश की तत्कालीन  बदहाली  ने उन्हें भीतर तक झकझोरा। उन्हें मात्र बयालीस वर्षों की ही लघु आयु प्राप्त हुई। परंतु इस छोटे-से जीवन-काल में भी उनका दिल इस देश की जनता के लिए धड़कता रहा । जन-जन के दुख-दर्द से आहत होकर वे अपनी ग़ज़लों के माध्यम  से जन-आंदोलनों के लिए  रास्ता  तैयार करते रहे , क्योंकि वे देश को ख़ुशहाल देखना चाहते थे,

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
*              *             ‌*
कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
*                * ‌                *
प्रतिरोध की हल्की-से-हल्की संभावना भी यदि किसी शख़्स में है , तो वे उसे सक्रिय करना चाहते हैं। हर एक को जगाना जैसे उनका लक्ष्य बन गया है,

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो ,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

उनकी रचनाधर्मिता एक बड़े लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ी है।  हाथ पर हाथ धरकर बैठने से दुर्वह परिस्थितियाँ कभी नहीं बदलतीं। ऊर्जावान लोगों में ही बुरे समय को बदल देने और नया समय रचने की ताक़त होती है। जीवन निष्क्रियता  का नाम नहीं, सक्रियता और शौर्य का नाम है। दुष्यंत कुमार कहते हैं ,

मेरे  सीने   में   नहीं   तो  तेरे   सीने  में सही ,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

इस लोकतांत्रिक देश के भ्रष्ट लोकतंत्र ने इस संवेदनशील ग़ज़लकार के मन को  इतनी अधिक चोटें पहुँचाईं  कि उसके शब्द धारदार हो गए हैं। वह देखता है  कि बेबस जनता मूक बनी  राजनीतिक अत्याचार सहती रहती है। उसे चुप रहकर अन्याय झेलने रहने की आदत पड़ गई है। प्रतिरोध की ऊर्जा शून्य  हो गई है । ऐसे दमघोंटू नकारात्मक माहौल में दुष्यंत कुमार  की सचेत आत्मा चुप नहीं रह पाती। इसीलिए उनका कवि-मन जनता की ओर से संघर्ष की मुद्रा अपना लेता है।
इस देश में जनता के हक को मारने वाले राजनीतिज्ञों की कमी नहीं। भूखी जनता का शोषण किस निर्ममता से किया जाता है –  यह  किस भारतीय को मालूम नहीं ? वे आर्थिक बंदरबाँट  को रेखांकित करते हुए कहते हैं,

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे  मालूम  है  पानी  कहाँ  ठहरा  हुआ होगा।
दुष्यंत कुमार का समय मोह-भंग का काल था। आजादी मिलने के बाद जनता की आँखों में स्वराज का जो स्वप्न था, वह साकार नहीं हुआ । भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, गरीबी , जनतंत्र की विसंगतियों और अन्याय के शिकंजे में जकड़ा हुआ हताश और हतप्रभ जन समाज संवेदनशील बुद्धिजीवियों के दिल में  भयंकर असंतोष और दु:ख उत्पन्न कर रहा था। ‘साए में धूप’ का प्रकाशन 1975 में हुआ, जिसमें  आपातकाल के दौरान सत्ता के विरोध की आवाज़ सुनाई देती है। उनके अश्आरों की गूँज संसद से लेकर सामान्य जन तक फैली।
आम आदमी के हित में बोलने वाले ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार जन की पीड़ा से  बुरी तरह आहत हुए हैं । भूख और गरीबी से आक्रांत बिलखती हुई जनता की बेचारगी को  इस शेर में देखा जा सकता है,
भूख है तो सब्र कर , रोटी नहीं तो क्या हुआ ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद् दआ।
‌‌
वे ‘बेपनाह अंधेरों को सुबह’ नहीं कह सकते थे और ‘ऐसे नज़ारों के अंधे तमाशबीन’ भी नहीं बन सकते थे। देश की गरीबी को रेखांकित करने के लिए उनका एक शेर ही काफी है,
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा  नाम तो  बोला  कि  हिंदुस्तान  है ।
दुष्यंत कुमार परिवर्तनकामी रचनाकार थे। जनता की बदहाली को खत्म करने के लिए उन्होंने जन-जन को जगाना बेहद ज़रूरी समझा ,जिससे समाज में  सकारात्मक परिवर्तन हो सके और उसके दुखी चेहरे पर मुस्कान आ सके। अतः वे कहते हैं ,

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर,
हर  हथेली  ख़ून से  तर  और   ज़्यादा बेक़रार ।

दुष्यंत कुमार के प्रसिद्ध ग़ज़ल-संग्रह ‘साए में धूप’ की  ग़ज़लों में  बदहाल समाज और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था की यथार्थ तस्वीरें मिलती हैं। उनकी ग़ज़लों से रूबरू होकर तत्कालीन भारत की राजनीतिक-सामाजिक विडंबनाओं को देखा और समझा जा सकता है। सच्चा रचनाकार वही होता है जो अपने समय की विडंबनाओ को स्वर देता है। अपनी व्यक्तिगत सीमाओं से बाहर निकलकर हर चीज़, हर प्राणी, हर मनुष्य के भीतर समाकर उसकी धड़कनों को सुनता है। दुष्यंत कुमार एक ऐसे संवेदनशील रचनाकार थे, जिनकी रूह में देश की समस्त जनता की पीड़ा समाई हुई थी। वे अपने भीतर देश की करोड़ों असहाय जनता का दर्द झेलते थे। इसलिए वे कहते हैं,

मुझमें  रहते  हैं  करोड़ों  लोग  चुप  कैसे  रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

संवेदना की व्यापकता , सच्चाई और गहनता के साथ -साथ  संप्रेषणीयता का अद्भुत कौशल दुष्यंत कुमार को एक कालजयी ग़ज़लकार सिद्ध करता है। हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
………………………………………..

परिचय :
समकालीन रचना-परिदृश्य की कवि-कथाकार एवं गीतकार अंजना वर्मा की दो दर्ज़न से अधिक पुस्तकें विभिन्न विधाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता- कहानी एवं गीत के अतिरिक्त ग़ज़ल ,दोहा ,कुंडलिया, संस्मरण, वंदना, भजन, बाल-साहित्य एवं समीक्षा में भी इनकी रचनाशीलता को आयाम मिला है। इनकी कहानी मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में सम्मिलित की गई है। इनके रचनाकर्म पर शोध भी हो चुके हैं तथा कई विश्वविद्यालयों में अभी शोध हो भी रहे हैं। इनकी रचनाओं  के अनुवाद अंग्रेजी के अतिरिक्त मराठी ,मलयालम ,कन्नड़, असमिया तथा नेपाली भाषाओं में हो‌ चुके  हैं। नीतीश्वर महाविद्यालय (बी आर ए बिहार विश्वविद्यालय ), मुज़फ़्फ़रपुर की पूर्व प्रोफेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष अंजना वर्मा संप्रति बेंगलुरु में निवास कर रही हैं।

संपर्क – ई-102, रोहन इच्छा अपार्टमेंट, बेंगलुरु -560103
anjanaverma03@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *