कांच के घट | काश! हम होते | शहद हुए एक बूँद हम |
---|---|---|
कांच के घट हम किसी दिन फूट जाएंगे उम्र-काठी काटती दिन-रात आरी, काल के कर में प्रत्यंचा है हमारी प्राण के सर देह धनु से छूट जाएंगे योगियों ने कह दिया ज्ञानावधि से देह -नौका तारती है भव जलधि से डाल के फल हम किसी दिन टूट जाएंगे सब चराचर भोगते हैं कर्म का फल मोक्ष अंतिम लक्ष्य है हर जीव का हल पल न साधे तो नटेश्वर लूट जाएंगे | काश! हम होते नदी के तीर वाले वट हम निरंतर भूमिका मिलने मिलाने की रचाते पाखियों के दल उतर कर नीड़ डालों पर सजाते चहचहाहट सुन हृदय का छलक जाता घट नयन अपने सदा नीरा से मिला हँस बोल लेते, हम लहर का परस पाकर खिल खिलाते डोल लेते मंद मृदु मुस्कान बिखराते नदी के तट साँझ घिरती सूर्य ढलता थके पाखी लौट आते, पात दल अपने हिलाकर हम रूपहला गीत गाते झुरमुटों से झांकते हम चाँदनी के पट देह माटी की पकड़कर ठाट से हम खड़े होते, जिंदगी होती तनिक सी किन्तु कद में बड़े होते सन्तुलन हम साधते ज्यों साधता है नट | शहद हुए एक बूँद हम, हित साधन, सिद्ध मक्खियाँ आसपास घूमने लगीं परजीवी चतुर, चीटियाँ मुख अपना चूमने लगीं दर्द नहीं हो पाया कम शहद हुए एक बूँद हम मतलब के मीत सब हमें , ईश्वर -सा पूजते रहे कानों में शब्द और स्वर श्लाघा के कूजते रहे मुस्काती आँख हुई नम शहद हुए एक बूँद हम हमने सब, जानबूझ कर बाँटा है सिर्फ प्यार को बाती -से दीप में जले मेटा है अंधकार को सूरज सा पीते है तम शहद हुए एक बूँद हम |
इन दिनों | क्या सही क्या है गलत | गीत अच्छे दिन के |
टोपियाँ तारण तरण हैं इन दिनों हर कोई इनकी शरण है इन दिनों बंश रावण का दिनों दिन बढ़ रहा हर तरफ सीता हरण हैं इन दिनों मुठ्ठियों में कैद सूरज कर लिया धुंध का वातावरण है इन दिनों सांप को सुतली बताया जा रहा, किस कदर मिथ्याचरण हैं इन दिनों देख कर हालात कुछ तो बोलिये मौन क्यों अंतः करण हैं इन दिनों | क्या सही क्या है गलत इस बात को छोडो मौन तो तोड़ो नेह के मधुरिम परस से खिले मन की पाँखुरी मोन टूटे तो बजे मन मीत मन की बाँसुरी अजनबी हम तुम बनें सम्बन्ध तो जोड़ मौन तो तोड़ो रचें मिलकर एक भाषा राग की अनुराग की जो कभी बुझती नहीं उस प्रीत वाली आग की कामना के पंथ में तुम प्रेम रथ मोड़ो | कुछ प्रश्नों को एक सिरे से हँसकर टाल गया मन को साल गया सुरसा जैसा मुहं फैलाया महंगाई ने अपना हुई सुदामा को हर सुविधा ज्यों अंधे को सपना शकुनि-सरीखी नया सुशासन चलकर चाल गया मन को साल गया मिली निगोड़ी उमर क़र्ज़ में कटीं किश्त में साँसें सौंप दिया आकाश काटकर क्रूर समय नें पाँखें पोर पोर दुख सह लेने की आदत डाल गया मन को साल गया जेठ मास के खेत सरीखे रिश्ते नाते दरके पल पल लगता पाँव तले से अब,तब,घरती सरके दाड़ीवाला अच्छे दिन के तिनके डाल गया। मन को साल गया। |
गीत नया मैं गाता हूँ | ||
जब पीर पिघलती है मन की तब गीत नया मैं गाता हूँ सम्मान मिले जब झूठे को सच्चे के मुँह पर ताला हो ममता को कैद किया जाये समता का देश निकाला हो सपने जब टूट बिखरते हों तब अपना फ़र्ज़ निभाता हूँ छल बल जब होते हैं हावी करुणा को नाच नचाते हैं निष्कासित प्रतिभा हो जाती पाखंड शरण पा जाते हैं तब रोती हुई कलम को मैं चुपके से धीर बँधाता हूँ वैभव दुत्कार गरीबी को पगपग पर नीचा दिखलाये जुगनू उड़कर के सूरज को जलने की विद्या सिखलाये तब अंतर मन में करूणा की घनघोर घटा गहराता हूँ जब प्रेम-सुधा रस कह कोई विष-प्याला सम्मुख धरता है आशा मर्यादा निष्ठा को जब कोई घायल करता है मैं छंदों का संजीवन ले मुर्दों को रोज़ जिलाता हूँ |
परिचय : मनोज जैन मधुर, गीत व कविताओं की सांत संग्रह प्रकाशित. विभिन्न संस्थाओं की आेर से 15 से अधिक सम्मान.
सम्पर्क – सी. एम.- 13, इन्दिरा कॉलोनी, बाग़ उमराव दूल्हा, भोपाल- 462010 (म. प्र. )
मोबाइल- 09301337806, 09685563682
ईमेल- manojjainmadhur25@gmail.com