एक मौन प्रार्थना
बड़ी अदभुत है
मौन की भाषा भी
कहने वाले ने
अपनी बात कह भी दी…
और मान लिया
कुछ बिन्दुओं को उकेर कर
कहा है जो भी उसने
वही बात पहुंची होगी प्रिय तक
और मौन में
अर्थ खोजता प्रेमी भी
हो जाता है तृप्त
ये सोचकर
कि प्रिय ने ज़रूर
कही होगी वही बात
जो मचल रहे थे उसके अंतस में
बिन्दुएँ चमकी और
कल्पनाओं ने अपना काम किया
पर भावनाएँ
कोरी कल्पना नहीं होती
ये संवादों की ज़मीन पर
पनपती हैं…
बढ़ती हैं…
अठखेलियाँ करती हैं
और भावों को
गर मौन ही होता प्रिय
तो कविता का जन्म क्यूँकर होता साथी
क्योंकि
भाव हैं तो शब्द हैं
शब्द हैं
तो ध्वनि है
ध्वनि है
तो गुंजन है
गुंजन में सम्प्रेषण है
सम्प्रेषण में भाव है और
भाव में अभिव्यक्ति
मुझे अभिव्यक्त होना है
मैं संप्रेषित होना चाहती हूँ
बार बार और हर बार
नए शब्दों और
नए अर्थो के साथ
इश्क़ एक अर्थ में
बंधी ही कहाँ है अब तक
जितने पल
उतनी परिभाषाएँ
हर परिभाषा का एक नया रूप
हर रूप का
अपना एक आसमान
अपना एक विस्तार
सुनो प्रिय
मेरे शब्द भी भावों के साथ
मुखर होना चाहते हैं
डरो नहीं
मेरे शब्दों में बंधन नहीं है
इनमें निर्मल नदी का
स्वच्छंद बहाव है
और मेरी अभिव्यक्ति ही
इस नदी के किनारे हैं
और किनारे की सौंधी मिट्टी में
मेरे रूह की महक है
खैर जानती हूँ
जब ये कवि नहीं रहेगा
तुम उसके शब्दों में
नया अर्थ खोजने
उस नदी किनारे ज़रूर जाओगे
और संवेदना के फूल
उसे अर्पित करके आओगे
लेकिन सुनो तो
नदी के मलबे को
बनावटी फूलों की ज़रूरत नहीं
तुम्हारा एक सच्चा स्पर्श
नदी में बहते रेत को
एक यादगार समाधी में बदल देगा
जिसे लोग ताक़यामत याद रखेंगे
तब तक बिन्दुओं को चमकने दो
और नदी में मौन यूँ ही महकने दो
बर्फ़ और ख़ाक
मौन की सलाइयों पे
किसी एक रोज़
बुनी थी तुमने
सन्नाटे की एक स्वेटर
जिसकी गरमाहट में
तुम बर्फ़ हो रहे थे
—-और मैं ख़ाक
हिज्र
मुबारकां ए चाँद
कि— तू है
तेरा मुर्शिद है
वस्ल की रात है
फ़िक्र न कर
दरख़्त पे टँगी
मेरी रूह को
हिज्र की आदत है
इक दीया
कल शाम
जलाया था इक दीया
अपने आँगन में
तेरी यादों का
आज सुबह
तेरे आँगन के दरख़्त पे
टँगा नज़र आया
वो इक चाँद सा
एक नया ब्रह्माण्ड
मैं और तुम
जैसे…
घुलनशील पदार्थ
जैसे अँधेरे में उजाला
और उजाले में अँधेरा
मेरे अन्दर
तुम्हारे अन्दर
मेरी अभिलाषाएँ
जैसे…
मैं बन अँधेरा देखूँ
तुम्हारी उजली रूह
और घुल जाऊँ तुममें
तुम उजली पोशाक बन
बन जाओ मेरा आवरण
उन्नत करें
फिर…
सम्पूर्ण सौन्दर्य की मीमांसा
खाएँ अँधेरा पीएँ उजाला
पा लें शीर्ष परमानंद
और रच दें
एक नया ब्रह्माण्ड
देह का अदेह होना
देह अदेह हुई
और पिघल गई
मिट्टी हो गई
खुशबू बन गई
और समा गई
उसकी रूह में
मेरी रूह बनकर
अब देह उसकी
रूह मेरी है
और देह का अदेह होना
जारी है
लगातार…
……………………………….
परिचय –
कवयित्री व रंगकर्मी
लेक गार्डन्स गवर्नमेंट हाउसिंग
४८/४ सुलतान आलम रोड
ब्लाक – X/7
कोलकाता – 33
मो . 9331028531