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फासला- (स्त्री एकालाप)
तुम चलते रहे पौराणिक कथाओं का ताज पहने
मैं कसती रही अपने ऐबों के चोगे का फीता
तुम अप्रैल की गोधूलियों में लहर बनकर
बरसाते रहे आग के गोले मेरी जानिब
मैं भटकती रही जंगलों में नीलापन उतारने वाली
किसी नायाब जड़ी बूटी की तलाश में
खरोंच कर मेरी रूह को नाखूनों से
तैयार करते रहे तुम हर दिन नया खाँचा
जिसमें समा जाने को मैं काटती रही
स्वाभिमान अपना रोज़ थोड़ा थोड़ा
तुम मुझे अपनी विहस्की में डुबोते रहे
बर्फ के टुकड़ों की मानिन्द
और छलकने पर बह जाने दिया
माथे पर एक शिकन लाये बगैर
तुमने न तोड़ी अन्तर्मुखता तब भी
जब दहाड़े मारकर रोने लगा था चाँद
मैं चलाती रही तुम्हें याद दिलाने को
वो पुरानी रील उधड़ी कैसेट
तुम अब भी हो सुलेख की तरह
अक्षर बिगड़ गये हैं लेकिन
बनावट आज भी वही की वही है
मेरी कविताओं ने झेला है दंश
तुम्हारी मापी-तौली दूरी का
मेरी स्याही हर पन्ने पर
अन्धकार से दागी जाती है
जैसे प्रेम फासलों की
वैसे ही मेरी वेदना
आज भी
तुम्हारी मिल्कियत है
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फासला- (पुरुष एकालाप)
मैंने हमेशा चाहा तुम्हें सजाना
ब्रूच की तरह अपने जैकेट पर
लेकिन तुम बनी रही
मेरे जेब में रखी हफ्तों मुड़ी
बेतरतीब रूमाल की मानिंद
मैंने उँगलियों पर रट लिए सम्वाद
रोमियो जूलिएट के और कुछ
प्रेम कवितायें से निकाल
तुम्हे उपमा दे डाली चाँद की
जिस पर तुम्हारी हैरत को धताने
अब पकड़ना होगा मुझे चाँद और
आस पास के कुछ ग्रह भी
ताकि चाँद के विवर और बेजानी
देख उसे नापसंद करने पर
धर दूँ दूसरे ग्रह तुम्हारी हथेली पर
तुमने हमेशा चाहा कि मैं तुम्हारे घावों पर
बाँधने को फाड़ दूँ कोना
अपनी पसंदीदा काली टीशर्ट का
जैसा कि तुम अपनी सुंदर साड़ियों के साथ
अक्सर करती आई हो
तुम चाहकर भी नहीं रोक पायी
कीचड़ सने पैरों को दरवाजे पर
उल्ट बिछा दिया तुमने सफ़ेद कागज़
मेरे कदमों की छाप लेने की खातिर
मैंने न चाँद लाने की जहमत उठायी
न छोड़ पाया मोह अपनी टी-शर्ट का
और बढ़ता चला आया गंदे पैरों से
क्योंकि मैं जानता था कि
तुम्हारा मुझे छोड़ना नामुमकिन है
अब तुम्हारी याद में
मैं सिर्फ कवितायें लिखा करता हूँ
बगैर शीर्षक की
3
कदम
दबे पाँव पँजों के बल
कल रात उलटे कदम चल
अतीत में देखा था मैंने तुम्हें
मेरी स्याह रात के कैनवास पर
इन्द्रधनुष की परिकल्पना कर
वाटर कलर से सात रंगों को भरते
कच्ची पेन्सिल से बनाये गए
वीरान रेगिस्तान के स्केचों में
वो तुम ही तो थे जो चुपके से
छोड़ आते थे उनमें मुँह अँधेरे
सफ़ेद खरगोश, लाल गाजरें पकड़े
बरसाती शाम को
खिड़की से सर टिका
रो रही थी जिस दिन मैं
अधूरे सपने को थामे
तुम नजर आये मुझे आसमां में
बिजलियों की सीढ़ियाँ चढ़ते
और झटका के अपनी तर्जनी
तोड़ा डाला था तुमने
मेरी मन्नत मुकम्मल करने वाला
वो चमचमाता तारा
भयावह सपने जो कर देते थे
तरबतर पसीने से अक्सर
आधी रात को मुझे
मैंने देखा है तुम्हें
चाँदनी को कागज में तान
और उसके हवाई जहाज को
मेरे सपनों में उड़ाते हुए
सर्द शामों को मेरे ठिठुरते कन्धों पे
ओढ़ाया था तुमने अपनी यादों का ब्लेज़र
वो अब चिथड़े-चिथड़े हो चुका है
बिखरे है जिसके टुकड़े यहाँ वहाँ
अतीत से वर्तमान के रास्ते पर
ठोकर से पाँवों में जन्मे जख्म
अब झाँकने लगे है मोजों से
छोटे छोटे छेद कर के
देख रहे है वो इसमें से
जीवन में फैले अन्धकार को
दो तारों को टकराकर
जलाते है फ़्लैशलाइट
इस रोशनी में भी पढ़ लेती हूँ
धुँधले पीले पन्ने वसीयत के
जो तुम मेरे नाम छोड़ गये हो
दो गज़ यादों की ज़मीं
मुट्ठी भर सपनों की राख
और कुछ किरचे टूटे वायदों केे..
4
सभ्यता
बीती शाम एक ईंट से उलझकर
हो गया लहुलुहान
मेरे दाहिने पैर का अँगूठा
ह्रदय की तहों में दबी किसी सभ्यता से
झड़कर ढ़हने लगे हैं अवशेष
चंद स्मृतियों के खंगालने पर
कर लिया है इन्होनें स्वयं को पुनर्स्थापित
इतराने लगी है फिर से
इसकी प्राचीन गलियाँ
शहर के शहर और भव्य इमारतें
हमारे प्रेम की सभ्यता
धँसी पड़ी थी सदियों से
शायद अंतराल के भूकम्प आ जाने से
या अविश्वास की किसी महामारी से..
हमारी सभ्यता बसी थी
अश्रुओं की जलधाराओं के सहारे
सुदूर रेगिस्तान तक
इतिहास गवाह है जल के किनारे
पनपती रही हैं सभ्यताएँ
दीवारों पर खुदी है
हमारी भावनाओं की इबारतें
जिसकी लिपि न पढ़ी गयी है
न कभी पढ़ी जा सकेगी
कभी किसी पुरातत्ववेता द्वारा..
इसके निशान मिटाना तभी सम्भव है
जब तुम्हें जीवन से नहीं
बल्कि अपनी कविताओं से
निकाल फेंकूँ..
-कोमल सोमरवाल
5
कवि
वेम्पायर की मानिंद जो करता है
पान अपने ही लहू का
जो किया करता है भक्षण
अपने ही विचारों का
जो झुठलाता है हर रोज
शब्दकोश के विशेषणों को
जो भयभीत होता है सिर्फ
अपनी ही ध्वनि की गूँज से
जिसकी रीढ़ की हड्डी को केल्शियम से नहीं बल्कि भरा गया है
ध्रुव तारकों को पीसकर मिले चूर्ण से
जो विखंडित करता है सड़कें शासन की
उस पे उछाले गये सिक्कों से खोद खोदकर
जिसकी रूह से गुजरती
नालियों में बहता है अंगार
जिसने खुद ज़ीउस बनकर दिया है श्राप
खुद को ही सदियों तक
कंधे पर आसमान को लादे फिरने का
जो क्रुद्ध होने पर छुपा देता है
सूरज को महासागर के तलछट के नीचे
जो अपने फेफड़ों को चाबुक मार
ढुलवाता है राशन साँसों का
पूरे हफ्ते भर का एक साथ
लौटते वक्त दफ्तर से
डाल लाता है बैग में फाइलों के साथ
ब्रह्मांड की कुछ गुत्थियाँ
जिन्हें बिछाकर बगीचे में
खेलता है शतरंज जुगनुओं के साथ
वो जो सनक रखता है
चलते जहाज से कूद जाने की समुद्र में
महज एक ठूंठ से आकर्षित होकर
शायद वो दे सके उस सवाल का जवाब
जिसे सुनकर मौन है वैज्ञानिक
तर्कशास्त्री झाँक रहे है बगलें
खगोलशास्त्रियों को सूंघा है सांप
उपग्रहों ने किया है पेश
रतौंधी का फर्जी सर्टिफिकेट
एक सच्चा कवि ही है अपराधी
या सिर्फ वही पहचानता है उसे
जिसने परेशान होकर कल रात
किया था तारों का अपहरण
और दूर क्षितिज में ले जा
माचिस की तीली से भस्म कर दिया..
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परिचय : कोमल सोमरवाल कविताएँ, ग़ज़ल , हाइकु, दोहे, आलेख व लघुकथाएँ लिखती हैं
इनकी कई रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
संपर्क : लाडनूं, जिला-नागौर(राजस्थान)
मो. 8955273813