विशिष्ट ग़ज़लकार : डी.एम.मिश्र

1
बनावट की हँसी अधरों पे ज़्यादा कब ठहरती है
छुपाओ लाख सच्चाई निगाहों से झलकती है

कभी जब हँस के लूटा था तो बिल्कुल बेख़बर था मैं
मगर वो मुस्कराता भी है तो अब आग लगती है

बहुत अच्छा हुआ जो सब्ज़बाग़ों से मै बच आया
ग़नीमत है मेरे छप्पर पे लौकी अब भी फलती है

मेरे घर से कभी मेहमाँ मेरा भूखा नहीं जाता
मेरे घर में ग़रीबी रहके मुझ पे नाज़ करती है

कहाँ से ख़्वाब हम देखें हवेली और कोठी के
हमारी झोपड़ी में आये दिन तो आग लगती है

जिसे देखो वही झूठा दिलासा देके जाता है
लुटेरे कह रहे निर्धन की भी क़िस्मत बदलती है

2
अमीरी है तो फिर क्या है हर इक मौसम सुहाना है
ग़रीबों के लिए सोचो कि उनका क्या ठिकाना है

उसे जो मिल गया था बाप-दादा से विरासत में
अभी तक वो बिछौना है , वही कंबल पुराना है

किसी फ़़ुटपाथ पर जीना , किसी फ़ुटपाथ पर मरना
कहाँ जाये न इसके घर ,न कोई आशियाना है

तुम्हारा शहर है फिर भी वही चेहरा है उतरा-सा
हुकूमत भी तुम्हारी है ,तुम्हारा ही ज़माना है

मेरे शेरों का क्या मेयार है वो क्या समझ पाये
वो ज़ालिम है मगर उसको भी आईना दिखाना है

लुटेरे हम फ़कीरों से भला क्या ले के जायेंगे
कि दिल भी जोगिया है और मन भी सूफ़ियाना है

बता दो ज्योतिषी को क्या मेरी क़िस्मत वो बाँचेगा
दुखों से है मेरी यारी , ग़मों से दोस्ताना है

तेरे जुल्मो सितम से अब तनिक भी डर नहीं लगता
तेरे खंज़र से मेरे खू़न का रिश्ता पुराना है

न कुंडी है, न ताला है, न पहरा है , न पाबंदी
यहाँ पर सब बराबर हैं , ये उसका शामियाना है।

3
जामे ज़हर भी पी गया अश्कों में ढालकर
बैठा था मसीहा मेरा खंज़र निकालकर

खेती में जो पैदा किया वो बेचना पड़ा
बच्चों को अब खिला रहा कंकड़ उबालकर

जल्लाद मुझको कह रहा हँस करके दिखाओ
मेरे गले में मूँज का फंदा वो डालकर

आँखों की सफेदी न सियाही ही आयी काम
देखेंगे गुल खिलेगा क्या आँखों को लाल कर

मरने के खौफ से ही तू तिल -तिल मरेगा रोज़
कब तक डरेगा जुल्म से खुद से सवाल कर

अपने ही अहंकार में जल जायेगा इक दिन
थूकेगा न इतिहास भी इसका खयाल कर

इन्सान के कपड़े पहन के आ गया शैतान
बेशक मिलाना हाथ उससे पर सँभालकर

4
अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है
मेरे कमरे का रोशनदान तब भी जगमगाता है

किया जो फ़ैसला मुंसिफ़ ने वो बिल्कुल सही लेकिन
ख़ुदा का फ़ैसला हर फ़ैसले के बाद आता है

अगर मर्ज़ी न हो उसकी तो कुछ हासिल नहीं होता
किनारे पर लगे कश्ती तो साहिल डूब जाता है

खिलौने का मुक़द्दर है यही तो क्या करे कोई
नहीं खेलें तो सड़ जाये , जो खेलें टूट जाता है

ख़ुदा ने जो बनाया है ज़रूरी ही बनाया है
कभी ज़र्रा , कभी पर्वत हमारे काम आता है

यही विश्वास लेकर घर से अपने मैं निकल आया
अँधेरे जंगलों में रास्ता जुगनू दिखाता है

5
कभी लौ का इधर जाना , कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुज़र जाना

जिसे दिल मान ले सुंदर वही सबसे अधिक सुंदर
उसी सूरत पे फिर जीना, उसी सूरत पे मर जाना

खिले हैं फूल लाखों , पर कोई तुझ सा नहीं देखा
तेरा गुलशन में आ जाना बहारों का निखर जाना

मिलें नज़रें कभी उनसे क़यामत हो गयी समझो
रुके घड़कन दिखे लम्हों में सदियों का गुज़र जाना

किया कुछ भी नहीं था बस ज़रा घूँघट उठाया था
अभी तक याद है मुझको तुम्हारा वो सिहर जाना

6
पुरख़तर यूँ रास्ते पहले न थे
हर कदम पर भेड़िये पहले न थे

अब के बच्चे भी तमंचे रख रहे
इतने सस्ते असलहे पहले न थे

जल को भी दरपन बना लेते थे लोग
इतने गँदले आइने पहले न थे

देश में पहले भी नेता हो चुके
यूँ लुटेरे दोगले पहले न थे

दोस्तो कितना पतन होगा अभी
इस क़दर पुल टूटते पहले न थे

माँगते थे पुत्र , पैसे बाप से
हक़ जताकर छीनते पहले न थे

जब से छूटी नौकरी यह हाल है
यूँ सनम तुम रूठते पहले न थे
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परिचय : आईना-दर-आईना, उजाले का सफर और रोशनी का कारवॉ गजल-संग्रह प्रकाशित. आकाशवाणी, दूरदर्शन, कवि- सम्मेलनों और मुशायरों के भी एक जरूरी नाम के रूप में ख्‍यात. कई संस्थाओं की ओर से पुरस्कृत.
सम्पर्क -डॉ डी एम मिश्र , 604 सिविल लाइन निकट राणा प्रताप पी जी कालेज , सुलतानपुर -228001
मोबाइल 09415074318

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