ग़ज़ल की भाषा, ख़याल और कहन के सन्दर्भ में
ग़ज़ल एक ऐसी विधा है, जो सदियों से कही/लिखी जा रही है। अरबी, फारसी, उर्दू से होते हुए हिन्दी और विश्व की अन्य भाषाओं तक सफ़र करते हुए इसके दीवानों की तादाद लगातार बढ़ी है। आज हम ग़ज़ल की लोकप्रियता को प्रतिमान स्थापित करते हुए देख रहे हैं। हमारे हिन्दुस्तान में सैंकड़ों सालों तक उर्दू में अभिव्यक्ति पाती ग़ज़ल कालान्तर में जब खड़ी बोली की ओर मुड़ी तो इसे एक ऐसा ग़ज़ल-गो मिला, जिसने इस विधा को हर आमो-ख़ास के दिलो-दिमाग़ में बसा दिया। जी हाँ, दुष्यन्त कुमार ने हर तरह के भाषायी और व्याकरणिक पांडित्य को परे रख, सिर्फ और सिर्फ आम व्यक्ति के लिए ग़ज़ल कही और फिर उनकी कोशिश उतनी ही शिद्दत से सफल भी हुई। इतनी कि उनकी ग़ज़लों के कई कई शेर मुहावरों की तरह इस्तेमाल होने लगे।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी या हिंदुस्तानी भाषा में ग़ज़ल कहना दुष्यंत ने ही शुरू किया। उनसे बहुत पहले 12 वीं सदी में अमीर ख़ुसरो ने भी ग़ज़ल कही है और उनसे थोड़ा-सा पहले भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके साथ के कई रचनाकारों ने ग़ज़ल में हाथ आजमाए हैं। भारतेन्दु से लगाकर यह सिल्सिला दुष्यन्त तक जारी भी रहा, लेकिन लोकप्रियता मिली दुष्यन्त को। ऐसा इसलिए कि उन्होंने ठोस हिन्दी के फ़ेर में न पड़कर आम हिंदुस्तानी की मिली-जुली ज़बान में ग़ज़ल कही, जिसमें संस्कृत/फ़ारसी के भारी शब्दों की बजाय हिन्दुस्तानी जन-मानस के ज़हन में घुले-मिले आसान से शब्द थे। फिर चाहे वे शब्द हिन्दी के हों या उर्दू, आंग्ल अथवा किसी अन्य विदेशी भाषा के।
हिंदुस्तानी ग़ज़ल का मतलब सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ग़ज़ल न होकर ऐसी ग़ज़ल से है, जिसमें आम हिंदुस्तानी की सीधी-सादी ज़बान में, हिंदुस्तानी परिवेश के, हिंदुस्तानी लबो-लहजे में कहे शेर हों। जिस ग़ज़ल में हमारे समय की समस्याएँ, संघर्ष, जद्दो-जहद, उत्सव, परम्पराएँ, मुहावरे यानि कि हमारा समग्र परिवेश जगह पाता हो, उसे हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहना उचित होगा।
सोशल मीडिया के आने के बाद साहित्य को जितनी बड़ी संख्या में पाठक मिले हैं, उतनी ही भारी संख्या में रचनाकार भी सामने आए हैं और यह एक शुभागमन है मेरे हिसाब से। वरना बीसवीं सदी के अंत तक साहित्य जिस मृतप्राय: स्थिति में पहुँच गया था, वहाँ से उसे वापिस जीवनदान ऐसी ही किसी क्रान्ति के ज़रिए मिल सकता था, खैर यह एक अलग टॉपिक है जिस पर बात किसी और लेख में करेंगे।
तो सोशल मीडिया के शुभागमन के बाद हिन्दी को बहुत बड़ी संख्या में रचनाकार मिले हैं, ज़ाहिर सी बात है ग़ज़ल को भी कई उम्दा ग़ज़लकार मिले होंगे। साथ ही ग़ज़लकारों को मिला एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म मिला, जहाँ से वे एक-दूसरे का लिखा मिनटों में पढ़/समझ सकें। और रचनाकार अपने लिखे पर तुरन्त जानकारों की राय जान सके। इससे एक बड़ा फ़ायदा यह भी हुआ कि हमें हाथो-हाथ पता चलने लगा कि क्या लिखा जा रहा है और क्या लिखा जाना चाहिए।
ग़ज़ल जो हमारे यहाँ सदियों से कही जा रही है, उसमें अपने ख़याल कह पाना एक चुनौती के जैसा है। जबकि ग़ज़ल में बह्र, काफ़िया और रदीफ़ जैसी बुनियादी चीज़ें लगभग समान ही रहती हैं, ऐसे में नए ख़याल, नई बात ला पाना काफ़ी मुश्किल हो जाता है। और अगर लेखन में कुछ नयापन न हो तो उसका औचित्य क्या! इस तरह की चुनौतीपूर्ण स्थिति में भी आजकल कई ऐसे ग़ज़लकार उभर रहे हैं, जो अपनी ग़ज़लों में कुछ अल्हदा कर रहे हैं, ख़याल और कहन दोनों मामलों में। यह एक सुखद स्थिति है ग़ज़ल के लिए।
अब हमें यह देखना है कि किस तरह हम अपनी रचनाओं में कुछ नयापन ला पाएँ। ग़ज़ल में सदियों तक इस्तेमाल हुए घिसे-पिटे प्रतीकों से दूर रहकर अपनी रचनाओं को बासी होने से बचाना भी ज़रूरी है। जैसे जैसे समय बदलता है, प्रतीक या स्थितियाँ भी बदलती हैं, उन बदली हुई स्थितियों को स्वीकार कर हम उन्हें अपनी रचनाओं में लाएँ, नए प्रतीकों अथवा बिम्बों से अपने ख़्यालों को नयापन दें। हमारी हर संभव कोशिश होनी चाहिए कि अपनी रचना में कुछ अलग हो। नया ख़याल, जो निकालना बेहद मुश्किल है लेकिन नामुमकिन कतई नहीं। अपनी बात कहने का अंदाज़, जिसे कहन कहते हैं, कुछ अलग कर सकते हैं। अगर पुराने ख़याल या बिम्ब/प्रतीक लें तो उसमें कहीं न कहीं कुछ अलग हो, ताकि शेर बासी होने से बच पाये।
कुछ इस तरह की कोशिशें ही एक रचनाकार को भीड़ से अलग खड़ा करती हैं, एक अलग मुक़ाम देती है। लेकिन इस सबमें यह हमेशा ध्यान रहे कि ग़ज़ल एक अनुशासन प्रिय विधा है, इसलिए उसके दायरों में रहकर ही ऐसी कोशिशें हों।
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परिचय : ग़ज़ल-संग्रह ‘इक उम्र मुकम्मल’ प्रकाशित, ग़ज़ल संग्रह ‘ख़्वाबों के रंग’ का संपादन
कई संस्थाओं की ओर से सम्मानित
संप्रति- संपादक, हस्ताक्षर वेब पत्रिका (www.hastaksher.com)
निवास- रुड़की (उत्तराखण्ड)
मेल- kpanmol. rke15@gmail.com
मो- 8006623499