धीमी-धीमी आंच में पका साहित्य
देश में बहुत कम पत्रिकाएं होती हैं जो अपने नाम को सार्थक करती हैं. सौभाग्य से यह श्रेय जिस पत्रिका को हासिल है, वह है ई-पत्रिका आंच.
‘आंच’ ने जिस तरह धीमी-धीमी आंच में साहित्य को पकाया, करीने से सजाया और शालीनता से परोसा, उसने प्रबुद्ध पाठकों के मुंह का स्वाद बढ़ा दिया. उस पर, आत्मीयता का आम-रस घोल कर डॉ भावना (संपादक )ने इसके स्वाद को शिखर पर पहुंचा दिया.
अभी साल भर ही तो हुआ है इसको जन्म लिये हुए. लेकिन इसकी किलकारियां दूर देश से लेकर, सुदूर अंचलों तक पहुंच गई हैं. हर माह बेसब्री से इंतजार … यह पाठकों की इसके प्रति प्यार की इंतिहा नहीं तो और क्या है ?
क्या नहीं समेटा इसने अपने भीतर ? लगता है, मटके में समंदर हिलोरे मार रहा है. मोतियों की तरह बिखरे पड़े हैं गीत, ग़ज़ल, कविता, आलेख, कहानी, समीक्षा… और भी जाने क्या क्या पूरा साहित्य जैसे छना हुआ पानी. पल-पल तृप्ति का अहसास.
कहते हैं संपादक प्रतिभा-संपन्न व दृष्टि-संपन्न हो तो पत्रिका कभी विपन्न नहीं हो सकती।
आंच पत्रिका का संपादन डॉ भावना जी जैसी कुशल लेखिका, कुशाग्र प्राध्यापिका, भाव-प्रवण कवयित्री तथा संवेदनशील ग़ज़लकार के हाथों में है. ‘आंच’ को कभी कोई आंच नहीं आयेगी – यह भरोसा किया जा सकता है. पहले-पहले जन्म दिन पर ‘आंच’ को ढेर सारा प्यार. डॉ भावना की कल्पनाशीलता को नमन तथा पूरी संपादकीय टीम को हार्दिक बधाई. आपके सुघढ़ संपादकीय-हाथों की मजबूती के लिए ईश्वर से कामना।
– दिनेश प्रभात, चर्चित गीतकार व संपादक – गीत-गागर, भोपाल
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आंच का महत्वपूर्ण एक वर्ष
आंच बेब पत्रिका (साहित्यिक)अपना एक वर्ष का सफ़र सफलतापूर्वक हासिल कर चुकी है. यह पत्रिका व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक-पत्रिका है,जैसा कि संपादक-डॉ भावना का मानना है. हलांकि मैं इस बात से थोड़ा भिन्न विचार रखता हूँ. व्यक्ति का व्यक्तिगत अभिरुचि भी कई चीज़ों पर निर्भर करता है, जो व्यक्ति जिस क्षेत्र(विषय)से जुड़ा होता है स्वाभाविक रूप से उसकी अभिरुचि उन्हीं विषयों में अधिक होता है.डॉ भावना स्वयं समर्थ रचनाकार हैं; इसलिए उनकी अभिरुचि साहित्य में है.
बहरहाल; आंच के सफलतापूर्वक एक वर्ष पूरा करने के सफ़रनामा पर चर्चा से पूर्व मैं थोड़ा पीछे की ओर ले जाना चाहूँगा.”लघुपत्रिका”आंदोलन के आरंभिक दौड़ में बहुतेरे लोग उसकी आलोचना किया करते थे,खासकर उसकी स्तरीयता को लेकर.लेकिन आज यह सच्चाई है कि लघुपत्रिकाओं ने अपना सफ़र जारी रखा और बहुत से रचनाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई.
सूचना क्रांति के विस्फ़ोट ने अलग-अलग क्षेत्रों में संभावनाओं के अनेक द्वार खोल दिये.आज सूचना क्रांति का ही कमाल है कि विश्व मे घट रही घटनाओं को हम तत्काल देख-समझ पाते हैं. कई कार्यक्रमों को हम जीवंत देख सकते हैं. उसी कड़ी में डॉ भावना ने ‘आंच’ बेब-पत्रिका का शुभारंभ किया है, जो अपना एक वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुका है. हलांकि पूरे एक वर्ष में प्रकाशित सभी रचनाओं पर प्रकाश डाल पाना संभव नहीं है. यहाँ मैं कुछेक स्तम्भों में प्रकाशित कुछेक रचनाओं पर प्रकाश डालना चाहूँगा.
बात सर्वप्रथम संपादकीय से करना चाहूँगा; ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा, उसका भी इतिहास’ शीर्षक जो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्ति है. शीर्षक से ही यह ज्ञात होता है कि हम तटस्थ नहीं रह सकते, हमें अपना पक्ष निश्चित रूप से चुनना होगा.सत्य/असत्य,न्याय/अन्याय, प्रकाश/अंधकार का. डॉ भावना; सत्य, न्याय और प्रकाश की पक्षधर हैं. यह बात उनके संपादकीय में स्पष्ट रूप से दीखता है. ‘बलात्कार की शिकार होनेवाली स्त्री ही आख़िर क्यों मुँह छुपाए? मुँह तो उन बहसी पुरुषों व उनके परिवार को छुपाना चाहिए’.डॉ भावना बलात्कार की पीड़िता के पक्ष में स्पष्टरूप से मजबूती के साथ खड़ी दिखाई देती हैं. इससे उनके सोच और चिंतन का पता चलता है.
पत्रिका का स्थायी स्तंभ में क्रमशः आलेख,कविता, कहानी,खास कलम,ग़ज़ल, गीत,पुस्तक समीक्षा, फ़िल्म समीक्षा, बच्चों का कोना,रंगमंच, लघुकथा, संपादक की कलम से,सेहत,हास्य-व्यंग्य आदि.यूँ कहें साहित्य की सभी विधाओं को समाहित करने का प्रयास किया गया है.
विशिष्ट कहानीकार के रूप में ऊमा झुनझुनवाला की कहानी ‘पूनम का चाँद’, डॉ पूनम सिंह का ‘अनुत्तरित प्रश्न’,सुशील कुमार भारद्वाज का ‘नंदिनी’, सीमा शर्मा का ‘मैं, रेजा और पच्चीस जून’,राजनारायण बोहरे का ‘एकल सुमड़े’ की कहानियों को पढ़ पाया. इन कहानियों में डॉ पूनम सिंह की कहानी ‘अनुत्तरित प्रश्न’ उपभोक्ता वादी अपसंस्कृति पर प्रहार करती बेहतरीन कहानी है. मनुष्य; मनुष्य इसलिए है, क्योंकि वह संवेदनशील प्राणी है. यदि उसकी संवेदना ही समाप्त हो जाय तो फिर वह मनुष्य; मनुष्य नहीं रह जाता,जैसे नेहा.
विशिष्ट कवि/कवयित्री में क्रमशः कोमल सोमरवाल की कविता; ‘फासला’ (स्त्री एकालाप), विजय सिंह का ‘जंगल जी उठता है’, राजकिशोर राजन का ‘ईश्वर का सर्वोत्तम रचना’, ‘दूब’, ‘गुलाब’,’तितली और मैं’,’पक रही कविता’, ‘विलाप’,’यक्षिणी’ सीरीज़ में छः कविता. प्रतिभा चौहान की ‘सिलवटें’,’ख्वाहिशों की नमी’,’सिलसिला’,’उधेड़बुन’,’मेरी यादों के कर्ज में जकड़ते वजूद पर’,’खोज अभी जारी है’,’चाँद का सिरहाना’.
यहाँ में ख्याति प्राप्त कवि राजकिशोर राजन की कविता ‘ईश्वर की सर्वोत्तम रचना’ की चंद पंक्ति उधृत करना चाहूँगा.
कि मनुष्य,ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है
तो मुखमंडल आपका दिपदिपाने लगा
पर जब कहा मैंने
कि ईश्वर, मनुष्य की सर्वोत्तम कल्पना है
तो मुखमंडल आपका स्याह हो गया.
राजन चेतना सम्पन्न कवि हैं, उन्होंने बड़ी सरलता और सहजता से ईश्वरीय अवधारणा को नकारने में सफल रहे हैं.
आलेख कॉलम में डॉ संजीव जैन का ‘मानवीय संवेदना के भोथरेपन का प्रतिदर्श’ जो ख्यातिप्राप्त कथाकार श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी'(उपन्यास)को केंद में रखकर लिखा गया है.
पुस्तक समीक्षा में मुकेश दुबे ने रश्मि तारिका की ‘कॉफी कैफ़े(कहानी-संग्रह),शहंशाह आलम का ‘हिंदी ग़ज़ल का प्रभुत्व यानी हिंदी ग़ज़ल का नया पक्ष'(अनिरुद्ध सिन्हा की आलोचना पुस्तक),समकालीन महिला ग़ज़लकार: एक महत्वपूर्ण कृति(संपादक-हरेराम समीप),जयप्रकाश मिश्र ने किया है. यहाँ अनिरुद्ध सिन्हा की आलोचना पुस्तक में ‘मेरे प्रिय ग़ज़लकार’ शीर्षक में उल्लिखित जिन नामों का उल्लेख किया गया है; बहुत संभव है वे उनके व्यक्तिगत रूप से प्रिय ग़ज़लकार अवश्य रहे हों,लेक़िन यदि स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से सिन्हा जी! आलोचना की पुस्तक लिखते तो वे उन नामों का भी उल्लेख करते जो उनके ही शहर के ख्यातिप्राप्त शायर हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं. इस ओर शायद शहंशाह का ध्यान नहीं गया. सिन्हा जी! को उन नामों का भी उल्लेख करना चाहिए भले वहीँ वे उनके प्रिय न हों.
इस सफ़रनामा को लिखने में बहुत-कुछ अवश्य छूट गया होगा, जो स्वभाविक भी है. विशिष्ट कहानी की श्रेणी में मैं डॉ भावना की कहानी ‘अंगुली में डस ले बिया नगनियां’ पर विस्तार से चर्चा करना चाहता था लेक़िन कर नहीं पाया. और भी रचनाकारों की रचनाओं पर कभी फिर विस्तार से लिखूंगा. डॉ भावना के इस सार्थक पहल का स्वागत किया जाना चाहिए. आनेवाले दिनों में रचनाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान होगा.
प्रस्तुति – विनय कुमार सिंह, समालोचक
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यथार्थवादी साहित्यिक पत्रिका आंच
जहाँ एक ओर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया साहित्य के मामले में उदासीन हैं वहीं दूसरीओर इ-पत्रिका आँच अपने पूरे दम-खम के साथ अपने पाठकों के समक्ष आज भी उपस्थित है। इसका पूरा श्रेय में पत्रिका की संपादिका डॉ भावना को देता हूँ। डॉ भावना स्वयं एक समर्थ और साहित्य के प्रति समर्पित लेखिका/कवियत्री हैं।इस पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं की केंद्रीय भूमिका सिर्फ साहित्य होती है। संपादकीय भी सारगर्भित और मासूम अंदाज़ में होता है।कहानी,कविता,ग़ज़ल और आलेख पूरी तरह साहित्य के निकट होता है।
पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं में तरल आवेग होता है,लेकिन पूरी तरह संयमित।यह संपादिका का अपना लेखकीय सामंजस्य है जो हद तक आवेग और विवेक को एक सूत्र में बांध देता है।
हम यह कह सकते हैं आँच पत्रिका न शुष्क है और न विचारों की दुनिया है। इसमें साहित्य के सारे यथार्थवादी तत्व मिलते हैं जो हमें जीवन और जगत से जोड़ते हैं। इस बात को प्रत्येक पाठक महसूस करता है।
यथार्थ संवेदना को समझने के लिए इस पत्रिका के गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
प्रस्तुति – अनिरुद्ध सिन्हा, ग़ज़लकार