1
धर गये मेंहदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म जन्मों ताल सा हिलता रहा मन
बांचते हम रह गये अन्तर्कथा
स्वर्णकेशा गीतवधुओं की व्यथा
ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन
जंगलों का दुख, तटों की त्रासदी
भूल सुख से सो गयी कोई नदी
थक गयी लड़ती हवाओं से अभागी नाव
और झीने पाल सा हिलता रहा मन
तुम गये क्या जग हुआ अंधा कुँआ
रेल छूटी रह गया केवल धुँआ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
हाथ के रूमाल सा हिलता रहा मन
2
कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना
धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना
दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना
लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना
3
नागफ़नी आँचल में बाँध सको तो आना
धागों बिन्धे गुलाब हमारे पास नहीं।
हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोए, आधे जागे
थोड़े सुख के लिए उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे
कहाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं।
हमने व्यथा अनमनी बेची
तन की ज्योति कंचनी बेची
कुछ न बचा तो अँधियारों को
मिट्टी मोल चान्दनी बेची
गीत रचे जो हमने, उन्हें याद रखना तुम
रत्नों मढ़ी किताब हमारे पास नहीं।
झिलमिल करती मधुशालाएँ
दिन ढलते ही हमें रिझाएँ
घड़ी-घड़ी, हर घूँट-घूँट हम
जी-जी जाएँ, मर-मर जाएँ
पी कर जिसको चित्र तुम्हारा धुँधला जाए
इतनी कड़ी शराब हमारे पास नहीं।
आखर-आखर दीपक बाले
खोले हमने मन के ताले
तुम बिन हमें न भाए पल भर
अभिनन्दन के शाल-दुशाले
अबके बिछुड़े कहाँ मिलेंगे, यह मत पूछो
कोई अभी जवाब हमारे पास नहीं।
4.
मन की सीमा के पास-पास
तन की सीमा से दूर-दूर,
तुमने यों महकाईं मेरी सूनी गलियाँ
ज्यों रजनीगन्धा खिले पराए आँगन में।
भुजपाशों में भी सिहर उठे जब रोम-रोम
प्रियतम कहने में भी जब अधर थरथराएँ।
क्या होगा अन्त प्रीति का ऐसी तुम्हीं कहो
जब मिलने की वेला में भी दृग भर आएँ।
हृदय-स्पन्दन के पास-पास
दैहिक बन्धन से दूर-दूर,
तुम छोड गए यों प्राणों पर सुधि की छाया
ज्यों कोई रूप निहारे धुन्धले दर्पन में।
जीवन की सार्थकता है जब गति हो उसमें
अपना अनुभव कह लो या सन्तों की बानी।
जब तक बहता है तब तक ही पावनता है
जमुना-जल हो नयनों का खारा पानी।
अन्तर्दाहों के पास-पास
सुख की चाहों से दूर-दूर,
तुमने यों विवश किया जीवन भर जीने को
ज्यों आग कहीं लग जाए किसी गीले वन में।
सम्भव है कभी सुधर जाए संकेतों से
राहों में यदि भटकाए भूल निगाहों की।
पर जब साँसों में भी घुल जाए अँधियारा
रोशनी नहीं, है वहाँ ज़रूरत बाँहों की।
तम की देहरी के पास-पास
स्वर के प्रहरी से दूर-दूर,
यों धीर बँधाते रहे विलग रहकर भी तुम
ज्यों नदी पार दीवा जलता हो निर्जन में।
5.
छोटी से बड़ी हुई तरूओं की छायाएँ
धुँधलाईँ सूरज के माथे की रेखाएँ
मत बाँधो आँचल में फूल, चलो लौट चलेँ,
वह देखो! कुहरे में चन्दन-वन डूब गया।
माना सहमी गलियों में न रहा जायेगा
साँसों का भारीपन भी न सहा जायेगा
किन्तु विवशता यह, यदि अपनों की बात चली
काँपेँगे अधर और कुछ न कहा जायेगा।
वह देखो! मँदिर वाले वट के पेड़ तले
जाने किन हाथोँ से दो मँगल-दीप जले
और हमारे आगे अँधियारे सागर में
अपने ही मन-जैसा नीलगगन डूब गया
कौन कर सका बन्दी, रोशनी निगाहों में?
कौन रोक पाया है गन्ध बीच राहों में?
हर जाती सन्ध्या की अपनी मजबूरी है
कौन बाँध पाया है इन्द्रधनुष बाँहों में?
सोने-से दिन, चाँदी जैसी हर रात गई
काहे का रोना, जो बीती सो बात गई
मत लाओ नैनो में नीर, कौन समझेगा?
एक बूंद पानी में एक वचन डूब गया!
भावुकता के कैसे केश सँवारे जायें
कैसे इन घडियाोँ के चित्र उतारे जायें?
लगता है मन की आकुलता का अर्थ यही
आगत के द्वारे हम हाथ पसारे जायें।
दाह छिपाने को अब हर पल गाना होगा
हँसने वालों में रहकर मुस्काना होगा
घूँघट की ओट किसे होगा सन्देह कभी
रतनारे नयनों में एक सपन डूब गया!
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परिचय : गीतकार के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. लंदन व अमेरिका सहित कई देशों में काव्य पाठ. कई संस्थाओं की ओर से सम्मानित.
सपंर्क – 308 , आजाद पुरम , निकट हार्ट मैन कालेज,
बरेली (उ. प्र.)
मो : 98974-20095