1
प्रेम प्रत्यंचा सँभाली भाववाही तीर साधे
मन हुआ तरकश तिलिस्मी
भावनाएँ भर अपरिमित
दंड दृढ़ विश्वास का झुक
चेतना अतिरेक संचित
हो रहा कोदंड जीवन
दहुदिशाएं देख हर्षित
डोर रिश्तों की बँधी तटबंध जैसे नीर साधे..
शीश नत है, लक्ष्य पर
लेकिन निगाहों का बसेरा
छँट रहा है मन पटल से
स्याह भ्रामक- सा अँधेरा
रश्मियों के आगमन से
फिर खिलेगा नव सवेरा
आसरों के दृढ़ कँगूरे सत्य की प्राचीर साधे..
शब्द मौनी, प्रीत पर
उल्लास वाही गीत लिखती
जो समर्पण भावनाएं
हार में भी जीत लिखती
कल्पना की तूलिका से
मथ मनस नवनीत लिखती
नेह सजता बन अधर मुस्कान चाहें पीर साधे..
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जब मुस्काता जीवन मधुबन, खिलते हैं नेह सुमन
फिर क्यों व्याकुल है मन
जब रोज क्षितिज पर धरा गगन
मिलते हैं आलिंगन करते,
फिर श्यामल मेघ भला क्योंकर
सावन भर व्यर्थ रुदन करते
जन्मों के बंधन प्रीत वचन, दोनों इक दूजे के दर्पण
फिर क्यों व्याकुल है मन….
हर गली- गली उपवन – उपवन
मैं अमलताश- सा मिल जाऊँ
मन बोझिल साँझ तुम्हारा हो
मैं पारिजात – सा खिल जाऊँ
संतुष्टि भरी हर एक छुअन, कर दे सब दूर शिकन
फिर क्यों व्याकुल है मन….
सागर की लहरें साहिल से
मिलती दरिया के छोरों पर
बिछुडन में बिखरे अश्रु बिंदु
झिलमिल पलकों की कोरों पर
अधरों पर ठहरे मौन कथन, बोले जब आज नयन
फिर क्यों व्याकुल है मन….