गुम हो गई कविता के मिलने की खुशी
बीते बरसों को पलटकर
देखना मुश्किल होता होगा ,
लेकिन तुम्हें बताऊँ ?
बावरे मन ने तो इस सफर को
महज चालीस कदमों में समेट लिया ,
तुम्हारे स्पर्श को अहर्निश महसूसती
तुम्हारी अदीठ दृष्टि की आश्वस्ति से
आठों पहर भरी , भला बरसों का
हिसाब क्यों रखती मैं ?
चालीस साल पहले जब मैंने
हाथ थामा तुम्हारा
जीवन के शब्दकोश से बस दो शब्द –
प्रेम और विश्वास – मेरी पसीजती मुट्ठी में
बंद थे , जिन्हें मैंने धर दिया था चुपके
तुम्हारी हथेली पर , याद है न तुम्हें ?
ये कोरे शब्द ही रह जाते अगर तुमने
जीवन के संदर्भों से इन्हें जोड़ा न होता
मात्र इन दो शब्दों की विशद व्याख्या कर
तुमने ही तो मेरे जीवन को अर्थ दिया ,
मैं सार्थक हुई !
सामीप्य – अलगाव , रिक्तता – अनरिक्तता की
परिभाषा से परे , अपनी – अपनी हद के भीतर
होते हुए भी एक अनहद की प्रतीति –
चलतज रहे हम साथ अबतक ,
तुम संग हो तो बरसों की बेमानी गिनती
भला कोई क्यों करे ? …….
2
आज फिर यूँ ही
हथेली पर तुम्हारे स्पर्श का अहसास
आज भी उतना ही ताजा है…
जितना कि उस रात के उजाले में था
उजाले की त्रिज्या मुझे थामे न जाने
कहाँ – कहाँ तक फैल गई थी
और उतना ही सिमटा था मेरी हथेली पर
तुम्हारा स्पर्श बिन्दु सा !
आज अनायास ही खिडकी से झाँकती
चाँदनी ने , तुम्हारे उसी आदिम स्पर्श
की , वर्षों पहले उस रात के
उजाले की और उजाले के फैले
उजास की याद दिला दी है….
3
चाय से उठती भाप
शीशे की मेज पर
गरम चाय के कप के ऊपर
छलक आईं पानी की
छोटी -छोटी बूँदें ।
हाथों में कप को थामे
होठों तक लाने की बेवजह जद्दोजहद,
गोया कप से होंठ मेरे
काले कोसों दूर ,
याद है मुझे ,तुम्हारे हँस कर कप में
चम्मच हिला भर देने से
मेरी चाय दूधिया हो जाती थी ,
और कितनी -कितनी मीठी !
चाय से भी मीठी तुम्हारी नजर ,
आँखों के रस्ते मेरे भीतर तक उतर
मुझे इस कदर बेहोश कर जाया करती थी
जैसे मेरे हाथ में चाय नहीं ,मय का प्याला हो ।
आज तो चाय के कप से भाप उड़ती भी
नहीं दीखती ,और न ही दिखते हैं
मेज पर पानी के नन्हें कतरे !
चाय में न दूध है न शक्कर
न ही बेहोश करती तुम्हारी वह नजर ,
आज तो बाहोश हम इतने ज्यादा हैं
कि हर रंग बेरंग और हर स्वाद फीका है