माटी के कलाकार हकु शाह
जिनकी उपलब्धियों का फैलाव बहुत होता है। कोई भी उनके व्यक्तित्व और उनकी कृतियों को विस्तार में बह सकता है। लेकिन उन्हें नाप नहीं सकता है। लोक रचना के सौंदर्य की बारीक से बारीक जानकारी हो या अनुभूतियां, सब सागर के आकार में हकु शाह केयहां समाहित हैंं। हकु शाह हमेशा उन चीजों से उद्दीप्त होते हैं, जिन्हें हम छांट देते हैं या रद्दी समझ लेते हैं। उनका मानना है कि हर चीज के पास कहने को अपना कुछ होता है, बशर्ते कि हमें सुनना आता हो। तुलसी के पास उगे दूसरे नामालूम छोटे पौधे, जिन्हें कोई भी कचरा या खरपतवार कह सकता है, हकु शाह को इन छोटे पौधों में भी अपने लिए रचनात्मक अनुगूंजें सुनाई पड़ती हैं।
वे स्वदेशी पहचान के जौहरी हैं और अकादमिक घारणाओं के रूढ़ चौखटों और तथाकथित कोष्ठकों से बाहर आकर सर्जना का अपना उर्वर उपजीव्य पाते हैं। वे लेखक, शिक्षाविद्, शिक्षक और नृतत्वशास्त्री हैं। लोक रचना के सौंदर्य के मर्मज्ञ और चित्रकार भी। उनके चित्रों से माटी की खुशबू उड़ती है और जड़ों के पास पहुंचने का अहसास भी होता है। मानवीय सौंदर्यशास्त्र में उनकी अथाह आस्था है। ज वे अपनी मानवीय सरोकारों से जुड़ी कला के कई अहम पड़ाव पार कर दरवेशी जीवन बिता रहे हैंस लेकिन उनके जीवन और उ्नकी सृजित कलाकृतियों में जाहिर पैगाम हमारे हृदय का विकास कर रहा है और हमारी मानवीय संवेदना और सौंदर्य का दायरा बढ़ाता है।
हकु शाह की चाहत है कि फूल बचे रहें, चांद बचा रहे और बची रहे मनुष्य की नूर-कथा। ईश्वर और फिर मनुष्य, दोनों को अहम मानने वाले हकु शाह अपनी मौलिक चित्र-कृतियों के लिए देश-दुनिया में विख्यात हैं। हकु शाह कहते हैं कि मैं ईश्वर की तलाश में हूं। मैं उसे अंकुरण में, पत्ती में, बादल में और पदचिन्ह में पाता हूं। जहां कहीं मुझे ताजगी मिलती है, मैं छूता हूं ईश्वर को। और मेरे लिए मानुष को देखने का मतलब पांच हजार सालों को देखना है। जब मैं आपको देखता हूं। यह हम सबमें है, जिसे हम देख सकते हैं। एक मानव मात्र इतने हजारों साल सिमट कर हमारे सामने है और हम देख नहीं पाते। वे मानते हैं कि मनुष्य ने कलाकार, एक हुनरमंद के रूप में ही जन्म लिया है और मनुष्य द्वारा रचित अभिव्यक्तियां अनुष्ठान के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं। वह हरेक वस्तु को अपनी संज्ञा और संवेद में लाता है और फिर कर्म-कृति -अभिव्यक्तियों का रूप ले लेती हैं, जो जल्द ही दिव्य बन जाती हैं।
हकु शाह के चित्र अद्भुत हैं। आनंद से भरपूर। उनके चित्रों में रेखाएं पात्र की तरह कैनवास या कागज पर उतरती हैं। वे चित्रों में जान डालने की कोशिश करते हैं। हकु शाह कहते हैं : जब भी कोई मेरे चित्र के पास जाए तो उसे खुशी मिलनी चाहिए-रोना हो तो भी अंदर एक खुशी का दिल उमड़ता रहे। मेरे चित्र झरने की तरह हैं, जो भी इसमें उतरेगा, वह ज्यादा और ज्यादा, और ज्यादा देख पाएगा कि उनमें ताजगी है, गतिशीलता है, वे नित्य नवीन हैं। उनकी हमेशा कोशिश रही है कि उनके चित्रों में ऐसी एक ‘आह’ हो, जिसे देखने वाला जरा-सा दीप्त हो, वह चित्र के साथ पनपे, वह ‘अचंभा’ लेकर जाए। हकु शाह को हमेशा यह लगता रहा है कि जीवन और कला में साझे की भूमिका बहुत बुनियादी और केंद्रीय है। वे कहते हैं : अपने चित्रों के जरिए मैं सभी से साझा करना चाहता हूं, क्योंकि यह पृथ्वी बहुत सुंदर है और मनुष्य भी। अपने सृजन का साझा कुछ वैसा ही है, जैसा कि मां अपने दूध का साझा बच्चे से करती है। वे आज भी पूरी दृढ़ता से कहते हैं कि सृजन के सिलसिले में हमें बाजार नहीं बल्कि प्रेम की भाषा में सोचना चाहिए। वे खुद अपनी सीमाओं को उजागर करते हुए कहते हैं : मैंने अब तक सैकड़ों चित्र बनाए होंगे। लेकिन हर बार यही महसूस होता रहा है मानो जो मैं कर रहा हूं, वह सिर्फ प्राथमिक वर्णमाला, ककहरे की चीज है।
पिछले पांच दशकों से भी ज्यादा समय से हकु शाह चित्र कर्म से जुड़े हैं। इनके चित्रों में भारतीय लोक की रचना का सौंदर्य मिलता है। वे चित्रकारों की उस विरल परंपरा के प्रतिनिधि हैं, जिनमें रचने के साथ-साथ विचारने की एक सरल-सूक्ष्म और मनोग्राही प्रक्रि या लगातार चलती रही है। चित्र-कर्म उनके लिए कभी व्यवसाय नहीं रहा। वे कहते हैं : आज के समाज में यह बहुत चिंताजनक बात है कि चीजों को जांचने और जानने में हमारी कसौटियां बहुत बदल गई हैं, उनमें बनावटीपन और झूठा दिखाऊपन भी है और अज्ञानता भी। उदाहरण के लिए जब हम यह सुनते हैं कि फलां चित्र दस लाख या एक करोड़ का है तो हमें लगता हैं कि इसे देखना चाहिए कि यह जरूर मूल्यवान होगा लेकिन अगर हमें यह पता चले कि एक चित्र का बाजार मूल्य अधिक नहीं है तो हमें लगता है कि यह चित्र बेकार ही होगा। यहां रुपयों से चित्र की अर्थवत्ता को आंका जा रहा है, जो अपने-आप में गलत कसौटी है।
हकु शाह देश-काल से तटस्थ भी नहीं रहते। अमदाबाद में हुए हिंदू-मुसलिम दंगे ने उन्हें काफी उद्वेलित किया तो उन्होंने हिंसक शक्तियों के विरूद्ध सविनय प्रतिरोध के रूप में एक प्रदर्शनी भी लगाई। गांधीजी उनके चित्रों में और जीवन में सदैव छाए रहे। हम हकु शाह के जीवन में झांके तो पाएंगे कि उनका कला क्षेत्र में प्रवेश बहुत कम उम्र में ही हो गया था और इसके लिए उनके पास पहले से ही अनुकूल परिवेश उपलब्ध था, जिसमें हकु शाह अपने लिए खुद से लकीर खींचते हुए आगे बढ़े। गुजरात में सूरत जिले के गांव वालोड में 1934 में उनका जन्म हुआ। उनकी जिंदगी का अब तक का सफर आज हर किसी के लिए कठिन से कठिन लग सकता है। इसके बावजूद हकु शाह ने बहुत सहजता से जीकर और नम्रता से ढेर सारा करके दिखाया है। जिस गांव में उनका जन्म हुआ वह बेड़छी आश्रम के एकदम पास है। आदिवासी बहुल क्षेत्रष फिर वारडोली रे बहुत करीब होने की वजह से महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसी हस्तियों के चिंतन और कर्म का गहरा असर भी इस क्षेत्र पर रहा है।
उनके पिता जमींदार थे, पर वे जमींदारों में अपवाद थे। ज्यादातर जमींदारों का जीवन जनजाति समुदाय के शोषण पर आधारित था। पर हकु शाह के पिता एकदम उलट थे। वे आदिवासियों को दोस्त मानते थे और उन्हीं के साथ चाय बनाते, खिचड़ी पकाते, वहीं खाते-सोते, उठते-बैठते। वे सुबह उठकर गीता पढ़ते तो शाम को किसी मुसलिम दोस्त के घर आरामकुर्सी पर उन्हें नींद लेते हुए भी देखा जा सकता था। अपने स्वभाव और जीवन शैली के कारण वे अपने इलाके में ‘बादशाह’ कह कर संबोधित किए जाते थे। हकु शाह कहते हैं: हमारे पास लगभग सौ एकड़ जमीन थी। लेकिन मेरे पिता की मृत्यु के समय हमारे पास जमीन का एक छोटा टुकड़ा तक नहीं बचा था। मां इनकी एक समृद्ध परिवार से थीं। बहुत व्यवहारिक और प्रतिभाशाली। बारडोली में किसानों ने जब कर न देने का सत्याग्रह किया तो इनकी मां घर में बंद रहतीं। लेकिन अंधेरा होने पर बाहर आ जातीं, क्योंकि सरकारी करिंदे अंधेरा होने के बाद आंगन में प्रवेश नहीं कर सकते थे। रात में घर के दरवाजे खुलने के बाद इनकी मां दो काम करती थीं- कुंए से पानी लाती थीं और गरबा नृत्य करने में रम जातीं, जिसे देखने सारा गांव जमा हो जाता।
ऐसे अद्भुत माता-पिता के साए में पलते हुए हकु शाह में ‘कवित्त’ का जन्म आठ साल की उम्र में ही हो गया था। इसी उम्र में अपने दो-तीन दोस्तों के साथ ‘शिशु’ नाम की पत्रिका निकाली। इस कवि कर्म में उन्हें अपनी मां का भी सहयोग मिलता। कुछ खास मौकों पर उनकी कविताओं के लिए उपयुक्त शब्द खोजने में उनकी मां ही मदद करती थीं। हकु शाह की एक बहन नीरू बहुत अच्छा गाती थीं, रसोई घर में काम करते-करते भी। दूसरी बहन भद्र लोगों के बीच भी गाती थीं। तीसरी बहन दक्षा वनस्थली में जनजातीय विद्यार्थियों को पढ़ाती रहीं। उनके बाई बाबूभाई और भाभी तरला ने अपने जीवन का ज्यादातर समय जनजातीय समुदाय के बच्चों को पढ़ाते हुए ही बिताया।
इस तरह के परिवेश में हकु शाह बालपन में ही जहां कविता से जुड़े, वहीं साथ-साथ उनमें चित्र कला का भी विकास हुआ। वे कहते हैं : वालोड में अपने स्कूल के आरंभिक दिनों से ही चित्रांकन में मेरी रुचि थी। गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं के छाया चित्रों को हूबहू बनाने की कोशिश करता था और सारी जगह रेखाचित्र बनाता रहता था। हमारे कला शिक्षक चिंतामणि देसाई एक जिंदादिल व्यक्ति थे। वे मुझे प्रोत्साहित करते थे। वे समाज में व्याप्त शोषण को अपने रेखाचित्रों में अंकित करते और उन चित्रों की हम प्रदर्शिनियां आयोजित करते थे। टिन के बक्सों में हम इन्हें एक गांव से दूसरे गांव तक ले जाते और लोगों के घरों के सामने या चौपाल वगैरह पर प्रदर्शित करते। इसके साथ और भी कई गतिविधियां होतीं, जिनमें झाड़ू लगाकर साफ करना, दीवारों को प्रेरणास्पद नारों से सजाना, गांव के बाहर रहने वाले डूबड़ा आदिवासियों को रात को लालटेन लेकर पढ़ाने जाना, उन्हें डाक्टरी मदद देना, नृत्यनाटिका और गरबा नृत्य करना, गांव-गांव घूमना, चरखा चलाना और प्रार्थना करना शामिल था। समाजवादी गीतकार और चित्रकार कुलीन पंडया हमारी प्रेरणा के मुख्य स्रोत थे। साल के आखिर में मनोरंजन के कई खेल भी हम आयोजित करते थे।
इन सभी गतिविधियों के कारण हकु शाह को अपना स्कूल बहुत प्यारा लगता था। स्कूल में हर वह बालक वार्षिक परीक्षाओं में बैठता था, जो होनहार माना जाता था। और जो सातवीं कक्षा में कामयाब हो जाता, उसे झट से नौकरी मिल जाती थी। सातवीं में हकु शाह भी कामयाब हो गए थे पर वे नौकरी तलाश करने के बजाए आगे की पढ़ाई करना चाहते थे। उन्हें इस समय से ही चरखा चलाना बहुत अच्छा लगने लगा था। वे एक दिन में करीब एक मीटर कपड़े के लायक सूत कात लेते थे। वालोद में मैट्रिक पास करने के बाद हकु शाह नरहरि पारीख के साथ महात्मा गांधी के सचिव महादेव भाई की डायरी लिखने के लिए लहिया का काम किया। वे रोजाना महादेव भाई की गांधीजी के जीवन पर लिखी जा रही डायरी में से कुछ पन्ने उनसे बोल कर लिखवाते थे। हकु शाह को हर पृष्ठ के हिसाब से मेहनताना मिलता था। यह उनके जीवन का पहला रोजगार था।
आगे की पढ़ाई के लिए हकु शाह की इच्छा तो थी शांति निकेतन जाने की, पर वह बहुत दूर लगता था। इसलिए तय हुआ कि मुंबई में जेजे स्कूल आफ आर्ट में जाने की कोशिश करें या बड़ौदा के ललित कला विभाग में। मुंबई में उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया। बड़ौदा में दाखिला मिल गया। बड़ौदा में बेंद्रे प्रमुख थे। वहां कला शिक्षकों की टीम बहुत ऊर्जावान थी और पढ़ाने के ढंगों में शांति निकेतन और मुंबई के जेजे स्कूल का सम्मिश्रण था। बड़ौदा कालेज का पारिवारिक माहौल, जहां समय की कोई पाबंदी नहीं थी और शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच नजदीकी व गहरे रिश्तों ने उन दिनों समुचे परिवेश को रचनात्मकता के लिए बहुत उर्वर और प्रेरक बना दिया था। एक ही शिक्षक कई विद्यानुशासनों को संभालने में सक्षम और दक्ष थे। इसलिए विभिन्न संकायों के बीच परस्पर सरल संप्रेषण और विचार-विमर्श भी होता रहता था। सारा आग्रह रचनात्मक कार्य पर एकाग्र रहता था, डिग्री या डिप्लोमा पर नहीं। रचनात्मकता और अनुशासन के सर्वोत्तम उदाहरण खुद शिक्षक थे-अपने एकाग्र और सतत उद्यम, कौशल और कड़ी मेहनत के जरिए। विद्यार्थियों और शिक्षकों के बीच वर्ग, समुदाय या उम्र का कोई भेद नहीं था।
हकु शाह बड़ौदा कालेज के माहौल पर बताते हैं : मैं कालेज के दिनों में गंभीर आर्थिक मुश्किलों से गुजर रहा था, लेकिन इसके लिए मुझे कभी हतोत्साह या संत्रस्त नहीं किया गया। उन्हीं दिनों जहां मैं रहता था उसके पीछे नगीन भाई रहते थे, जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। वे मेरा बहुत ध्यान रखते थे। बहुत बार शाम में जब घर पहुंच कर कमरे का दरवाजा खोलता तो वहां दरवाजे में से सरकाए गए कुछ रुपए मिलते। मैं जानता था कि नगीन भाई ही मेरी मदद करते हैं। एक बार कालेज की ओर से जब हम किसी कला शिविर के लिए दूसरे शहर जा रहे थे, वे मुझे रेलवे स्टेशन छोड़ने आए। उनका ध्यान मेरे बक्से की ओर गया, जिस पर ताला नहीं लगा था। वे समझ गए कि रुपयों के अभाव की वजह से ही ऐसा है। वे चुपचाप स्टेशन के दूसरी ओर गए और तुरंत ही एक ताला खरीद लाए। ताला मेरे बक्से पर लगा कर चाबी मुझे थमा दी। फिर बहुत बरसों बाद जब मैं एमआइडी में नौकरी कर रहा था तो वे अचानक से आए। उन्होंने मुझसे कहा कि वे एक मदद के लिए मेरे पास आए हैं। उन्हें दो सौ रुपए की जरूरत थी। मैंने फौरन ही अपने सचिव को बुला कर उन्हें दो सौ रुपए दे दिए। वे एकदम से हैरान हो गए कि बिना आनाकानी किए इतने सारे रुपए दे दिए। मैंने उनसे कहा था कि उन्होंने मेरे लिए पहले जो किया है, वह इससे कई गुना ज्यादा था।
हकु शाह कहते हैं: सच्चा व्यवहार ही दूसरे का दिल जीतता है। झूठ कभी सच नहीं होता लेकिन यह हमेशा चिपक कर रहता है सो इससे दूरी रखना ही अच्छा है। कालेज में रहते हुए मुझे कभी गरीबी का अहसास नहीं हुआ। हालांकि खाने-पीने और रहने में जो तकलीफ थी, जाने-आने में होने वाली जो दिक्कतें थीं, दूसरी भी कई बातें थीं लेकिन इन सभी में कभी ऐसा लगा नहीं कि मैं गरीब हूं या कि तकलीफ में हूं। मुझे हमेशा लगता था कि ये जीवन जीने की रीत है। रुपयों के साथ कुछ बहुत सीधा नाता कभी नहीं रहा। मुझे याद आता है कि उन्हीं दिनों अपने पिता को एक खत लिखा था और उन्होंने मुझे सात रुपए का मनिआर्डर भेजा था। कर्तव्य मेरे लिए हमेशा आकांक्षाओं से ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहा है। मेरे चित्त और आत्म की बनावट संभवतया भिन्न रही है। मेरे पास सिर्फ एक रुपया हो और अचानक से एक लाख रुपए आ जाएं तब भी मेरे लिए दोनों बराबर है। इसमें कुछ अलग होता नहीं। मेरे दूसरे मित्र फिल्में देखने जाते थे, फैशनेबल कपड़े पहनते थे, बड़ी जगहों पर खाना खाने जाते या सैर-सपाटा करते थे। लेकिन इन चीजों ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया। मैं अपनी चीजें कर रहा था और उन्हीं में डूबा रहना अच्छा लगता था। बहुत पहले से यह मेरे मन में साफ रहा है कि हमें वैसे ही रहना-होना चाहिए जैसे कि हम हैं। अपने जीने में मुझे यह कभी नहीं लगा कि वाचाल होना चाहिए, व्यक्तित्व के नकाबदार ढंगों के बजाए सरल सादगी ही हमारे लिए वरेण्य है।
हकु शाह कहते हैं कि रोजाना दो-तीन घंटे सूत कातता, अपने कपड़े खुद धोता, अपना खाना भी खुद ही बनाता और अपने बर्तन मांजना तो मेरे लिए बच्चों-सा खेल था। पहनने के लिए मेरे पास ज्यादा जोड़ी कपड़े नहीं होते थे। मैं रात में अपना कुरता-पायजामा धोता और केवल एक तौलिया शरीर पर लपेट लेता ताकि अगले दिन मैं धुले हुए साफ कुरता पायजामा पहन सकूं। कालेज के अपने इन्हीं सालों में मुझे दो छात्रवृत्ति मिलती थी। इनमें से एक हमारे रिश्तेदार मुंबई से यह राशि भेजते थे। दूसरी छात्रवृत्ति भावनगर से आती थी-यह कौन भेजता था, इसका मुझे आज तक पता नहीं है। पहली वृत्ति से चालीस रुपए और दूसरी से तीस रुपए आते थे। गांधीजी और आदिवासियों के प्रति मेरी खास भावनाओं और कड़ी मेहनत करने की मेरी क्षमता के प्रति मेरे शिक्षक सजग थे और आदर्शवाद और सेवा भाव के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को लेकर उनके मन में संभवतया मेरे लिए अधिक सम्मान था।
स्नातक की पढ़ाई के बाद हकु शाह अपने गांव वापस आ गए और वहीं बेड़छी आश्रम में टीचर ट्रेनिंग विभाग और उत्तर बुनियादी उच्च विद्यालय में कला शिक्षक बन कर। तब मासिक वेतन के रूप में उन्हें 137 रुपए मिलते थे। जनजातीय जीवन संसार से हकु शाह का परिचय कालेज के दिनों से ही शुरू हो गया था। बेड़छी आश्रम में शिक्षक रहते हुए उन्हें कोटवालिया बांस से बहुत सुंदर वस्तुएं बनाते थे। उनका एक वाद्य यंत्र ढोबडु-उन्हें बचपन से ही बहुत पसंद था। आज भी है। धीरे-धीरे वे उनके करीब जाने लगे, उनसे उनका जुड़ाव और लगाव पनपने लगा। वे देखते थे कि अपनी चीजें बेचने के लिए वे बारह किलोमीटर दूर एक दूसरी जगह वारडोली जाते थे। हकु शाह की नजर में जनजातीय परंपराएं बहुत मूल्यवान हैं। वे कहते: लोक और जनजातीय परंपराओं का यह पहलू भी मुझे उन्हीं दिनों से बहुत महत्त्वपूर्ण जान पड़ने लगा था कि वे अपनी सृजन-सामग्री का निर्माण बहुधा खुद ही करते हैं, जबकि अपने चित्र-कर्म में मैं यह नहीं कर पाया हूं-कैनवास से लेकर रंग और अपनी छोटी करनी तक अगर मैं खुद ही बना पाता तो क्या बात थी। गोकि एक चित्रकार के रूप में अपने चित्रों में मैंने क्या पाया और उपलब्ध किया है, इसका पता उसमें व्याप्त सौंदर्य तत्व से लग सकता होगा।
पद्मश्री, रॉकफेलर फेलोशिप, नेहरू फेलोशिप, कला रत्न और गगन अवनी पुरस्कार से सम्मानित हकु शाह यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया, अमेरिका में प्रोफेसर भी रहे हैं। इनके चित्रों की एकल प्रदर्शनियां पूरे संसार की प्रतिष्ठित कलादीर्घाओं में आयोजित हुई हैं। 1962 से 1967 तक नेशनल इंस्टीट्यूट आफ डिजाइन में शोध सहायक के पद पर कार्य किया। 1968 में अमेरिका में आयोजित प्रदर्शनी ‘अननॉन इंडिया’ के क्यूरेटर रहे। 1990 में भारत के पहले और अनूठे शिल्पग्राम(उदयपुर राजस्थान)की संकल्पना और रचना में इनकी केंद्रीय भूमिका रही। और इससे पहले उन्होंने जनजातीय संग्रहालय, गुजरात विद्यापीठ अमदाबाद में काम किया। हकु शाह ने विश्व के महान कला चिंतकों और विद्वानों स्टेला क्रमरिश, चार्ल्स इम्स, अल्फ्रेड व्यूहलर और पुपुल जयकर के साथ काम किया। हिंदी के अन्यतम साहित्यकार और कला पारखी ‘अज्ञेय’ ने उनके साथ मिल कर ‘घर’ विषय पर एक आयोजन किया था। हकु शाह ने उसमें आदिवासियों, दलितों और वंचित समुदाय के घरों पर केंद्रित एक विशेष प्रदर्शनी की परिकल्पना को अंजाम दिया। अपनी लंबी कला यात्रा के दौरान हकु शाह विभिन्न रूपों में मिलते रहे हैं-कभी गांधी के साथ, कभी गुमनाम कुम्हारों की संगत में, कभी कलाकारों के साथ स्वर मिलाते हुए। हकु शाह को लगता है कि व्यक्ति का पहला पाठ प्रकृति है। हरेक प्राणी को कुछ बनने की नहीं, होने की कोशिश करनी चाहिए और अपने को जानने की। कला का विस्मय और उत्स भी इसी में छिपा है।
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परिचय : जनसत्ता, ए-8, सेक्टर-7, नोएडा(उत्तर प्रदेश)
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