वस्तुकरण का उन्माद
आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था ने पूरी दुनिया को ‘वस्तुकरण के उन्माद’ की धुंध और कुहासे के अनंत चक्रव्यूह में फंसा दिया है। ऐसा उसने व्यक्ति चेतना को ‘वस्तुकरण’ में बदलकर किया है। सबसे पहले तो पूँजीवाद ने व्यक्तिचेतना को सामूहिक मानवीय जीवन की समग्र गरिमा और अस्तित्व की सार्थकता को छिन्न-भिन्न करके उसका पाश्वीकरण किया और फिर आंतरिक संगति को विखंडित करके उसका वस्तुकरण किया। मानवीय गरिमा और अंतरात्मा से विच्छिन्न मनुष्य ‘उन्माद’ की धुंध में जीता है। हिंसा और बलात्कार, सामूहिक हिंसा और सामूहिक बलात्कार भी उसके उन्मादग्रस्त मस्तिष्क को जाग्रत नहीं होने देता। आधुनिकता के आरंभ से आज तक के ‘चौंधियाते विकास की धुंध’ ने करोड़ों मनुष्यों को जानवरों की तरह मरने को मजबूर किया है। यह काम सिर्फ ‘एक पागल हाथी’ ही कर सकता है जिसकी उन्मादी गतिविधियों पर उसका नियंत्रण नहीं होता।
‘वस्तुकरण का उन्माद’ आज की सबसे बड़ी त्रासदी है। तमाम प्राकृतिक विनाश और मानवीय जीवन के अभाव और गरीबी और भूख से त्रस्त पीड़ित और प्रत्यक्ष दृश्य भी उसके इस उन्माद में कोई फर्क नहीं आने देते हैं। एक ओर मशीनी उत्पादन और प्राकृतिक पैदावार की इफरात है, दूसरी ओर संमपूर्ण विश्व की मानवीय जनसंख्या का बड़ा हिस्सा भूख और अभाव की बर्बरतम स्थितियों में जीने-मरने को संघर्षरत है। कई देशों की जनसंख्या को बड़ा हिस्सा भूख और जीने की अत्यंत न्यूनतम वस्तुओं के बिना जीने की त्रासदियों को झेल रहे हैं। त्रासदी का दूसरा दृश्य महानगरों के मॉल और मेगाप्लेक्स, रेस्टोरेंट, मैरिज गार्डन, सिने प्लेक्स और बहुराष्ट्रीय लुटेरों के आफिस देखे जा सकते हैं, इनमें ‘उन्मादी’ लोगों का हुजूम ठीक उसी तरह दिखाई देता है जैसा सड़कों पर हिंसा को अंजाम देते ‘अंधलोकवादी’ लोगों का समूह। इनके बीच कोई अंतर किया जा सकता है तो इतना की बहुराष्ट्रीय-लुटेरों के सुरक्षित बंकरों में जो उन्मादी भीड़ होती है वह नियंत्रित पशुओं का झुंड होती है और प्रत्यक्ष हिंसा को अंजाम नहीं दे रही होती है, मगर उसके वस्तुकरण के उन्माद को पूरा करने के लिये लाखों लोगों के जीवन की बलि दी जाती है जो कहीं ओर बलि का बकरा बन रहे होते हैं। हिंसात्मक चरित्र दोनों का है, जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। व्यवस्था हमें ‘बहुराष्ट्रीय लुटेरों के सुरक्षित बंकरों’ के प्रति सकारात्मक बनाती है, उसकी ‘चकाचौंध’ आकर्षिक करती है। यह कुहासे कें अंदर की रोशनी है जो उसके बाहर की हिंसा और अभाव की बढ़ती खाईयों में मरते सड़ते मानवीय जीवन को नहीं देखते देती है।
वस्तुकरण का उन्माद सर चढकर बोलता है। यह सबसे पहले तो मानवीय गरिमा को अपदस्थ करता है। दूसरे हमारे अस्तित्व को वस्तुकृत करता है। इस उन्माद में ग्रस्त उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के एक विशिष्ट वर्ग को देखा जा सकता है। घरों में वस्तुओं को रखने की जगह नहीं है, पर शापिंग निरंतर चालू रहेगी। वस्तुकरण के उन्माद की सबसे अधिक प्रवृत्ति इस वर्ग की महिलाओं में देखी जा सकती है। उनका वस्त्रों और आभुषणों, तथा सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री के प्रति जो जुनून है वह पागलपन की सीमाओं को पार कर चुका है। युवा वर्ग में मोबाईल और ब्रांडेड वस्तुओं के प्रति जो उन्माद है, वह अनगिनित अनुपयोगी वस्तुओं को, यानि कचरे को पैदा कर रहा है। इलेक्ट्रॉनिक सामानों के अनुपयोगी उपकरणों से जो सिर्फ इसलिये अनुपयोगी बना दिये गये हैं कि बाजार में नया मॉडल लांच हुआ है। वस्त्रों के साथ भी यह उन्माद देखा जाता है। लाखों कपड़े घरों में बंद पड़े हैं, वे सिफ इसलिये अनुपयोगी हैंं कि आउट ऑफ फैशन हो गये हैं, या एक बार देखलिये गये हैं, या बाजार में दूसरे वस्त्रों की सीरिज आ चुकी है। वस्तुकरण का उन्माद वस्तुओं को व्यर्थ बना रहा है, तो एक ओर व्यर्थ वस्तुओं का विशाल भंडार है, दूसरी ओर न्यूनतम वस्तुओं के अभाव में लोग मर रहे हैं। सिर्फ बाजार के लिये, सिर्फ मुनाफा कमाने के लिये, वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है जिसके कारण यह व्यर्थ और अनुपयोगी वस्तुओें के विशाल भंडार और अभाव की खाइयों के गर्त का असंतुलन पैदा हो गया है। यह असंतुलन न केवल जनसंख्या के बड़े हिस्से को अनुपयोगी और व्यर्थ या जनसंख्या आधिक्य की स्थिति में घकेल रहा है बल्कि दूसरी ओर प्रकृति के असंतुलित दोहन से भयंकर विनाश की स्थितियों को पैदा कर रहा है। बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, बादलों का फटना, तापमान में वृद्धि और हिमपात का बढ़ना सब इसी असंतुलन के परिणाम हैं।
‘वस्तुकरण का उन्माद’ भयंकर असंतुलन पैदा कर रहा है। यह असंतुलन प्रकृति के चक्र में भी व्यवधान डाल रहा है और मानवीय जीवन की दशाओं को भी गहरे तक प्रभावित कर रहा है। प्रायोजित हिंसा और युद्ध इसी असंतुलन के परिणाम है। समृद्धि का धु्रवीकरण और गरीबी का विस्तारीकरण एक ही व्यवस्था के समानांतर उत्पाद हैं। यह संपूर्ण मानवता को गहरे अंधकार में धकेले जाने की स्थितियाँ हैं। संपूर्ण मानवता को ‘वस्तुकरण के उन्माद के कुहासे’ में कैद करके हम इस ग्रह पर जीवन की उम्मीद को धूमिल करते जा रहे हैं। बहुत लंबे समय तक जीवन इस रूप में तो रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती। जब तक उत्पादन समाज के लिये नहीं होगा, मुनाफे के बजाए, यह पतन निरंतर भयावह स्थितियों को पैदा करता रहेगा। ‘उत्पादन’ अनुपयोगी वस्तुओं को पैदा न करे और न जनसंख्या को अनुपयोगी और व्यथ बनाये। यह देखना और इसके प्रति उत्तरदायित्व महसूस करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
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परिचय : लेखक वरीय साहित्यकार हैं. इनके आलेख स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.