दलित चेतना के अग्रदूत डॉ० अम्बेदकर
पूनम सिंह
बाबा साहब अम्बेदकर अस्पृश्य मानी जाने वाली महार जाति में पैदा हुए थे । निम्न जाति में पैदा होने की मर्माहत पीड़ा को उन्होंने संवेदना के स्तर पर बहुत दूर तक महसूसा था इसलिए अस्पृश्य समाज की गुलामी को वे राष्ट्र की गुलामी से ज्यादा दर्दनाक समझते थे । उन्होंने अस्पृश्य समाज में अस्मिता का स्वाभिमान जगाने एवं अपने वजूद की पहचान कराने का व्रत लिया । उनका सम्पूर्ण जीवन रूढ़ियों से शोषित दलित मनुष्य के सामाजिक , आर्थिक एवं शैक्षणिक उत्थान के लिए समर्पित था । वे धर्मशास्त्रों की दमनकारी परम्परा के विरूद्ध विद्रोह की जलती मशाल थे ।
धार्मिक पुस्तकों के प्रति अपनी अश्रद्धा का कारण बताते हुए उन्होंने कहा है –‘धार्मिक पुस्तकों के प्रति श्रद्धा कराई नहीं जा सकती । यह श्रद्धा तो सामाजिक स्थितियों से स्वयं उत्पन्न होती है अथवा हटती है ।’
ब्रह्यणवादी आचार संहिता ने वर्ण व्यवस्था के तहत जनता को जिस तरह द्विज संस्कृति और शूद्र संस्कृति के रूप में विभाजित करके समाज के बीच एक गहरी खाई खोद दी थी , उसने बाबा साहब के मानस को बहुत उद्वेलित किया था । शास्त्र के षडयंत्र को अम्बेदकर बहुत अच्छी तरह समझते थे । धर्म पंडितों एवं शास्त्र ग्रंथों की संकीर्णता पर उन्हें गहरा क्षोभ था । वे अपने क्क्तव्यों में और लेखन में इस बात को बार बार उठाते थे कि ब्राह्यणवादी व्यवस्था ने इतिहास की व्याख्या अपने ढंग से की है — उसने मिथक , पुराण गाथाएँ , इतिहास सभी अपनी आग्रहों से रचे हैं । इसलिए मनुष्य विरोधी स्मृतियों के प्रति उन्होंने अपनी अनास्था व्यक्त की थी । 11 अप्रैल 1925 को मुंबई क्षेत्र की ’प्रांतीय बहिस्कृत परिषद‘ के तीसरे अधिवेशन में उन्होंने अपना क्षोभ और आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा था — ’अस्पृश्यता का समर्थन करने वाले ये शास्त्र जनता का निरादर कर रहे हैं । सरकार को उन्हें बहुत पहले जब्त कर लेना चाहिए था ।‘
‘मनुस्मृति‘ में ब्राह्यण संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए जैसे निषेध विनियामित हुए हैं और वे किस तरह अमानवीय हैं —इसे अम्बेदकर ने शास्त्र पुराणों और स्मृतियों के गहन अध्ययन के द्वारा जाना था । शुद्रों को पदच्युत करके उन्हें सांस्कृतिक मानवाधिकारों से हमेशा वंचित रखा गया । शुद्रों के साथ बैठकर द्विजों ने कभी नहीं खाया । यहाँ तक कि जिस खाद्य पदार्थ पर उनकी नजर पड़ गई अथवा उनके शरीर की हवा लग गई , उसका भी परित्याग करने का विधान बनाया गया ।
अम्बेदकर जानते थे कि शूद्रों को मतिहीन बनाए रखने में ही ब्राह्यणों की सांस्कृतिक सुरक्षा की गारंटी है तभी तो ’मनुस्मृति‘ में ब्राह्यणों पर प्रतिबंध लगाया गया है — ’न शूद्राय मतिदद्यात्‘ (4/80)
चरणों से उत्पन्न हुए शूद्र को ब्रह्या ने देवताविहीन पैदा किया था इसलिए देवभाषा बोलने , पढ़ने अथवा बाँचने का उसे कत्तई अधिकार नहीं था । ऐसा करने वाले शूद्र को इतिहास में कठोर दण्ड का भागी माना गया है और उसे मृत्यु दण्ड तक दिया गया है । ‘शम्बूक बध’ इसका ज्वलंत उदाहरण है । ये सारी बातें देखकर और पढ़कर अम्बेदकर बहुत आहत थे ।
डॉ० अम्बेदकर समाज के कायिक परिवर्तन के बिना भावनात्मक परिवर्त्तन को छलावा मानते थे । उन्होंने अपने समय की सक्रिय राजनीति के सामने दलितों दुखियारों की उपेक्षा को बेवाक होकर रखा । 27 जनवरी 1919 को मताधिकार की पूछताछ करने वाली साउथबरी समिति के सामने उन्होंने अपना एक प्रतिवेदन पेश किया था , जिसमें यह कहा गया था कि अगर लोक प्रतिनिधियों की सरकार सही मायने में बनानी है तो अस्पृश्य समाज को उसकी जनसंख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व देना आवश्यक है । उन्होंने अस्पृश्यों के लिए नौ जगह रखने की मांग की थी । (रिपोर्ट आफ दि रिफार्म कमेटि – फ्रंचाइज वाल्यूम 2- 1919) उनके प्रयास से 1919 में ’मूकनायक‘ नामक पाक्षिक पत्र दलित आंदोलन के मुख्य पत्र के रूप में प्रारंभ हुआ था । उनके लेखन और भाषण सामाजिक चिंतन के इतिहास और विकास के कालजयी दस्तावेज हैं ।
20 जुलाई 1924 को ’बहिस्कृत हितकारी सभा‘ की स्थापना के साथ डॉ० अम्बेदकर ने अस्पृश्य जनता के लिए सर्वव्यापी आन्दोलन का बड़ा आधार खड़ा किया ।
फ्रांस और अमेरिका में गुलाम प्रथा के विरूद्ध चल रहे जनसंघर्ष को उन्होंने बहुत करीब से देखा था । उनका विश्वास था कि भारत में भी समाज का सबसे निचला तबका अपनी मुक्ति के लिए जरूर सर उठायेगा । उनमें केवल चेतना जगाने की जरूरत है । उन्होंने ब्राह्यण संस्कृति की एकाधिकार सनातनधर्मी व्यवस्था के विरूद्ध जेहाद छेड़ने की ठान ली ।
बाबा साहेब ने अछूतों के साथ हुई बहुत सी ऐसी अमानवीय घटनाओं का उल्लेख किया है , जिसे पढ़कर या सुनकर कोई भी संवेदनशील मनुष्य तटस्थ नहीं रह सकता । यहाँं एक दो उद्धरण देना आवश्यक समझती हूँ क्योंकि उनके ऐसे क्क्तव्यों ने ही दलित चेतना की नई जमीन पर सुलगते हुए अग्निबीज बिखेरे थे । उन्होंने मराठा राज्य में पेशाओं के शासन काल का वर्णन करते हुए लिखा है कि —‘मराठा राज्य में यदि कोई हिन्दू सड़क पर आ रहा होता था तो किसी अछूत को इसलिए उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी कि उसकी परछाई से वह हिन्दू अपवित्र हो जायेगा । अछूत के लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी कलाई या गर्दन में निशानी के तौर पर एक काला धागा बाँधे , जिससे हिन्दू गलती से उससे छू कर अपवित्र होने से बच जाए । पेशावर की राजधानी पूना में किसी भी अछूत के लिए अपनी कमर में झाड़ू बाँधकर चलना आवश्यक था , जिससे उसके चलने से धूल साफ होती रहे । अछूतों के लिए यह भी आवश्यक था की वे जहाँ कहीं भी जायें अपने थूकने के लिए मिट्टी का एक बर्त्तन अपनी गर्दन में लटका कर चलें क्योंकि ऐसा न हो कि जमीन पर पड़ने वाले थूक से , अनजाने में वहाँ से गुजरने वाला कोई हिन्दू अपवित्र हो जाए ।’
एक दूसरी घटना अप्रैल 1936 को एक समाचार पत्र में छपी थी । चकवारा का एक अछूत तीर्थ यात्रा के बाद घर लौटा था और उसने अपने धार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने के लिए गाँव के अछूत भाईयों को भोज देने की व्यवस्था की थी । जिस समय मेहमान भोजन कर रहे थे , सैकड़ों हिन्दू लाठियाँ लेकर वहाँ दौड़ पड़े और अछूतों को बूरी तरह पीटा । इसका कारण यह था कि भोज में मेजमान ने पत्तल पर शुद्ध घी परोसा था । उन्हें समझना चाहिए था कि भोज में घी परोस कर वे हिन्दूओं के सम्मान की बराबरी करने की धृष्टता कर रहे हैं । घी ऊँचे सामाजिक स्तर का प्रतीक है और अछूतों के लिए यह देव पदार्थ सर्वथा वर्जित है । (डॉ० अम्बेदकर संपूर्ण वाङमय पृ० 56-58 खण्ड 1)
डॉ० अम्बेदकर ने ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करके दमनकारी व्यवस्था के विरूद्ध मनुष्य के सामाजिक सरोकारों को कड़ी चुनौती दी थी । उपर्युक्त धार्मिक सामाजिक विषमताओं के विरूद्ध उन्होंने राजनीतिक प्रवृति के हिन्दूओं से कई ज्वलंत प्रश्न पूछे जिनका उत्तर देना उनके लिए बड़ा कठिन था ।
उन्होंने उन्हें धिक्कारते हुए पूछा था — ’जब आप अपने ही देश के अछूतों जैसे एक बहुत बड़े वर्ग को सार्वजनिक स्कूल का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं ?‘
जब आप उन्हें सार्वजनिक कुओं का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं ?‘
जब आप उन्हें अपनी पसंद का भोजन नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं ?‘
(डॉ० अम्बेदकर संपूर्ण वाङमय पृ० 56-58 खण्ड 1)
अम्बेदकर के ऐसे प्रश्नों ने दलित चेतना की एक नई भूमि सृजित की तथा कट्टरवादी हिन्दू समाज तथा ब्राह्यणवादी आचार संहिता को तर्जनी दिखाकर धिक्कारा ।
अम्बेदकर ने दलित चेतना को गति और मजबूती दी । महाड़ सत्याग्रह अस्पृश्यता के खिलाफ दलितों द्वारा किया गया पहला ऐतिहासिक आंदोलन था , जिसके पीछे अस्पृश्यता उन्मूलन की न्यायिक पृष्ठभूमि थी । मुम्बई असेम्बली ने 4 अगसत 1923 को एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखा था , जिसके अनुसार यह तय हुआ था कि नदी , तालाब, कुएँ जैसे सार्वजनिक जल उपलब्ध कराने वाले स्थानों तथा स्कूलों दवाखानों , शिक्षा केन्द्रों , न्यायालयों में अस्पृश्यों के प्रवेश पर कोई प्रतिबंध नहीं लगेगा ।
इस प्रस्ताव के अनुसार महाड़ नगरपालिका ने भी चावदार तालाब का उपयोग करने की स्वीकृति अछूतों को दे दी थी लेकिन सवर्ण हिन्दू इस आदेश के सख्त खिलाफ थे ।
पीने के पानी के अधिकार को लेकर 20 मार्च 1927 को ढ़ाई हजार अछूतों का जत्था जुलूस के रूप में तालाब पर पहुँचा और पहली बार उस सरोवर के जल को अपने होठों से लगाया परन्तु पानी भ्रष्ट करने वाले दुःसाहसी अछूतों पर हिन्दूओं ने दर्दनाक हमला किया । लहूलुहान लोगों की असहनीय पीड़ा को देखकर अस्पृश्य प्रतिनिधियों का क्रोध भड़क उठा था । महाड़ सत्याग्रह का दूसरा चरण क्रांतिकारी चेतना का चरम बनकर फूटा , जिसमें अछूतों ने हिन्दू की धार्मिक आस्था की होली जलाई ।
25 दिसम्बर 1927 को महाड़ में अछूतों ने ’मनुस्मृति ‘ को खुलेआम सार्वजनिक रूप से जलाया । स्मृति का दाह संस्कार करने के बाद डॉ० अम्बेदकर ने घोषण की कि अब दुनिया समझ ले कि विषमता का कानून इस भारत में नहीं चलेगा । इसी महाड़ सत्याग्रह से आधुनिक दलित मुक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ । महाड़ का घोषणा पत्र मानवाधिकारों की पहली आवाज थी जिसने दलित मुक्ति संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
डॉ० अम्बेदकर ने ’मंदिर प्रवेश कमेटी‘ का गठन करके मंदिर प्रवेश सत्याग्रह की रणभेरी फूंकी । 2 मार्च 1930 को नासिक में 15000 सत्याग्रहियों का एक मील लंबा जुलूस निकला था । इस जुलूस पर सनातनी लोगों ने रोड़े पत्थर बरसाये परन्तु विद्रोहियों का मनोबल नहीं टूटा । देश भर में ऐसे आंदोलनों की संकल्पनिष्ठता बढ़ती ही गई ।
डॉ० अम्बेदकर के आंदोलन से सारे हिन्दू समाज में हलचल मच गई थी । सन् 1933 में रंगा अय्यर ने अस्पृश्यों के लिए मंदिर प्रवेश के मामले में एक बिल भी पेश कर दिया था परन्तु दूरदर्शी जननायक डॉ० अम्बेदकर दलितों की चेतना को बहुत दूर तक उकेर रहे थे । उन्होंने एक सभा में उन्हें संबोधित करते हुए कहा — ’देवपूजा से जरूरी है , पेट पूजा के लिए अन्न पाना । भगवान भरोसे जीना मत सीखो , अपने बाजुओं के बल पर अपना काम करना सीखो । वे हमेशा उन्हें जगाते हुए कहते थे —जो समाज चौकन्ना रहेगा , सतर्क सुशिक्षित और स्वाभिमानी होगा , उसी का सामर्थ्य भी बढ़ेगा ।‘ (जनता 11 मार्च 1933)
डॉ० अम्बेदकर ने दलित महिलाओं के भीतर भी चेतना की नई लहर जगाई थी । महिलाओं की एक सभा में उन्होंने कहा — ’आप सब साफ सुथरी रहें । पढ़ी लिखी उच्च वर्ग की औरतों के समान अपने
परिधान करें । यदि पति या पुत्र शराब पी कर घर आते हैं तो उनके लिए घर के दरवाजे बंद कर दें । उन्हें भीतर न आने दें । अपने बेटे बेटियों को उचित शिक्षा दें ।
दलित समुदाय की औरतों को उन्होंने जीवन के हर मोड़ पर कठिन चुनौती का सामना करने के लिए प्रेरित किया था । समाज और सत्ता में उनकी भागीदारी की पहल की थी । यह उनकी ही दिखाई राह थी जिसपर चलकर आज दलित महिला नेतृत्व को भी लोकतंत्र में एक अलग पहचान मिली है ।
डॉ० अम्बेदकर के सामाजिक दर्शन से प्रेरणा लेकर अस्पृश्यों ने मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष किया । उन्होंने गैर लोकतांत्रिक एवं अमानवीय स्थितियों के प्रति दलितों के भीतर एक क्रांतिकारी चेतना जगाई थी — सामंतवादी शोषण , उत्पीड़न से मुक्ति का रास्ता दिखाया था । जनतांत्रिक मूल्यों की चेतना से ही सामाजिक न्याय की अवधारणा को बल मिला । वस्तुतः अम्बेदकर दलित चेतना के अग्रदूत और दलितों के मसीहा थे ।
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परिचय : लेखिका कहानी व कविता लेखन में राष्ट्रीय स्तर पर जानी जाती हैं
संप्रति : प्राध्यापक, हिंदी विभाग, एमडीडीएम कॉलेज, मुजफ्फरपुर