डॉ श्रीरंग शाही एक अद्भुत व्यक्तित्व :: जयप्रकाश मिश्र

डॉ श्रीरंग शाही एक अद्भुत व्यक्तित्व

  • जयप्रकाश मिश्र

डॉ. श्रीरंग शाही एक ऐसे साहित्य मनीषी थे जिन्होंने पत्र के माध्यम से सैकड़ों पाठकों को लेखक बना दिया। वे एक निर्भीक साहित्यकार थे। धुन का पक्का, लगन का कड़ा डॉ. शाही अहर्निश दूसरों के उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहा करते थे। डॉ. श्रीरंग शाही का जन्म 1936 ई. में मुजफ्फरपुर जिले के शाही मीनापुर नामक ग्राम में हुआ था। वे असाधारण प्रतिभा के विलक्षण साहित्यकार थे। जीवनभर कलम थामे वे अचानक इस संसार से विदा हो चले। उनकी रचनाओं में दर्द, पीड़ा, संघर्ष के स्वरों के दर्शन सहज ही मिल जाते हैं। आलोचना लिखते समय वे किसी से कोई समझौता नहीं करते थे। भले ही कोई रूष्ट हो जाय। उनके निधन की सूचना मुझे कवयित्री भावना जी ने फोन पर दी। अचानक अप्रत्याशित उनके निधन की खबर सुनकर मुझे हृदय पर काठ-सा लगा। मैंने साहित्य मनीषी डॉ. शाही के नाम पर अनुजल के अर्ध्य अर्पित किए किन्तु सत्य असत्य नहीं हो सका। मैं अवसादों से घिर चुका था। लेकिन गीता की निम्नलिखित पंक्तियाँ मुझे संबल दे गई-

नैनं छिन्दन्ति शास्त्रानि नैनं दहति पावक.
न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

शाही जी अविराम लिखने वाले लेखक थे। मृत्युशय्या पर पड़े रहने पर भी उन्होंने रचनाकर्म नहीं छोड़ा। शाही जी दलों तथा पक्षधरता से कोसो दूर रहे। वे हिन्दी के साथ-साथ बज्जिका में भी जम कर लिखे। जिस प्रकार खड़ी बोली हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरिशचन्द्र थे ठीक उसी प्रकार बज्जिका के जनक डॉ. श्रीरंग शाही थे। जब भी लोक भाषा बज्जिका का इतिहास लिखा जायगा शाही जी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
बज्जिका की प्रथम पत्रिका ‘बज्जिका डॉ. श्रीरंग शाही के संपादकत्व में 1963 ई. में प्रकाशित हुई। लेकिन यह पत्रिका अधिक दिनों तक नहीं चल सकी। इसका मुख्य कारण शायद बज्जिका भाषियों का सहयोग न मिलना है। लेकिन “बज्जिका” पत्रिका ने बाद में प्रकाशित होनेवाली बज्जिका पत्रिकाओं का मार्ग प्रशस्त किया। वस्तुतः डॉ. श्रीरंग शाही ने अपने संपादकत्व में “बज्जिका” प्रकाशित कर बज्जिका साहित्य की अप्रतिम सेवा की। उन्होंने अपनी अटूट साधना के बल पर हिन्दी तथा बज्जिका को जो स्वर्ण शिखर प्रदान किया है, वह स्मरणीय है। मेरी दृष्टि में शाही जी इस सदी के सबसे बड़े पत्र लेखक थे जिन्होंने अपने पत्रों के माध्यम से सैकड़ों नवोदित साहित्यकारों को एक ठोस धरातल प्रदान किया। शाही जी ने “बहुजन हिताय” के सिद्धान्त को आत्मसात कर लिया था। शाही जी स्त्री स्वतंत्रता पर समान अधिकारों के हिमायती थे। अनवरत् २०-२० घंटे लिखना पढ़ना सिर्फ शाही जी से ही सम्भव था। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि शाही जी के समान इस सदी में ऐसा कोई लेखक नहीं हुआ जो शायद अपनों से ज्यादा दूसरों को सुधि ले। मेरी उनसे कभी मुलाकात नहीं हो सकी। शायद यह अपराध मुझे जीवनभर सालती रहेगी। पत्र के माध्यम से मेरा उनसे सतत् सम्पर्क बना रहा। आज भी उनके सैकड़ो पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। वे सदा मुझे कुछ लिखते रहने के लिए प्रेरित करते रहते। उनकी इच्छा थी कि मैं पी.एच.डी कर लूँ परन्तु मैं नहीं कर सका। उन्होंने पुस्तकालय के माध्यम से सैकड़ों पाठकों का कल्याण किया है। आज भी उनके द्वारा खोला गया पुस्तकालय उनके गाँव शाही मीनापुर में स्थित है, जिसका नाम छात्र गण पुस्तकालय है। उन्होंने अपने जीवन काल में शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय खोलकर सैकड़ों छात्र-छात्राओं को रोजगार से जोड़ा। आज भी बोद्धिक वर्ग के लिए शाही जी बहुत ही अर्थवान हैं। शाही जी अपने साधु स्वभाव के कारण काफी लोकप्रिय थे। वे सादा जीवन व्यतीत करने वाले कर्मयोगी थे। तामझाम से कोसो दूर शाही जी एकान्त साधना में तल्लीन रहने वाले एक दिव्यमानव थे। शाही जी का निबन्ध साहित्य अत्यन्त ही प्रभावोत्पादक बन पड़ा है जिनमे उनका विलक्षण व्यक्तित्व उभर कर सामने आया है।

शाही जी ने अपने संपर्क में आनेवाले कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की जीवनियाँ भी लिखी है। वे प्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्पर्क में रहकर साहित्य से गहरे जुड़ गये थे। डॉ. शाही पर अगर ठीक तरह से लिखा जाय तो शायद एक ग्रन्थ भी कम पड़ेगा। शाही जी स्वभाव से झुकते थे परन्तु सिद्धान्त में वे किसी से भी उलझ जाते थे। उनका व्यक्तित्व तथा कृतित्व नवोदित साहित्यकारों के लिए एक मार्ग प्रशस्त करेगा। शाही जी के निधन से मेरी व्यक्तिगत क्षति हुई है क्योंकि साहित्य के क्षेत्र में मैंने जो कुछ भी प्राप्त किया है उसमें उनका महत्वपूर्ण योगदान है।
वस्तुतः डॉ. श्रीरंगशाही ने अपनी कठोर साधना के बल पर हिन्दी तथा बज्जिका की जो सेवा की है वह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि उनके बताये मार्ग पर चलना ही उनकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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जय प्रकाश मिश्र, पो. शिवहर (बिहार)

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