डॉ. श्रीरंग शाही का आलोचना-कर्म :: अविनाश भारती

डॉ. श्रीरंग शाही का आलोचना-कर्म

  • अविनाश भारती

7 फरवरी सन् 1934 को मुजफ्फरपुर जिले के औराई अंचल अन्तर्गत शाही मीनापुर गाँव में जन्मे स्व० (डॉ०) श्रीरंग शाही जी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी अमर कृतियाँ आज भी हमारे बीच हैं जो अक्सर उनकी रचनाधर्मिता की अमिट याद दिलाती हैं। श्रीरंग शाही ने अपनी रचनाओं के साथ-साथ आलोचना-कर्म के साथ भी ख़ूब न्याय किया है। अपने साहित्यिक गुरु रामवृक्ष बेनीपुरी के सानिध्य में रहकर श्रीरंग शाही का आलोचना-कर्म भी बेनीपुरी जी के समान ही निष्पक्ष और तटस्थ भाव का मालूम पड़ता है। श्रीरंग शाही ने विशेषकर तत्कालीन साहित्यिक युगों और उनकी प्रवृत्तियों का मूल्यांकन किया है। विशेषकर प्रयोगवादी, साठोत्तरी और नई कविता के दौर के कवियों के सन्दर्भ में इनके मत काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
गिरजा कुमार माथुर को लेकर इनका मानना है कि – “माथुर जी की कविताओं में प्रेमिल भाव और मांसल अनुभूतियां मिलती हैं। श्री गिरिजा कुमार माथुर प्रयोग-वाद के संस्थापक कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। माथुर जी को निष्ठा रोमानियत और यथार्थ का कवि माना जाता है। अंग्रेजी साहित्य के पाण्डित्य के कारण माथुर जी की रचनाओं में अंग्रेजी साहित्य का काव्यशास्त्र का प्रतिफलन हुआ है।”
वहीं डॉ. वचनदेव कुमार के बारे में इनका कथन है कि -“डॉ. वचनदेव कुमार सहज पुरूष थे। डॉ. वचनदेव कुमार एक कवि, कहानीकार, निबंधकार, आलोचक, अनुबंधाता, कोशकार, वैयाकरण, और संपादक के रुप में यशस्वी रहे। डॉ. कुमार साठोत्तरी हिन्दी कविता के प्रबल स्तम्भ थे।”
श्रीरंग शाही सुभद्रा कुमारी चौहान के बारे में लिखते हैं- “श्रीमती चौहान की प्रखर, उत्कट और परिष्कृत राष्ट्रीय भावना का विशेष महत्व है। ‘झाँसी की रानी’ कविता में आपने लक्ष्मीबाई की वीरता और साहस का उत्कर्ष प्रस्तुत किया है। सन् १८५७ के सिपाही विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई का अन्यतम योगदान था। ‘झाँसी की रानी’ कविता का भाव लोककथा से ही लिया गया है।”
‘वीरों का कैसा हो वसंत’ कविता में आपने स्वतंत्रता के लिए नव जागरण का नव संदेश दिया है-

भर रही कोकिला इधर तान
मारु बाजे पर उधर गान

है रंग और रण का विधान
मिलने आये हैं आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत ।

श्रीरंग शाही की माने तो श्रीमती चौहान की कविताओं में दाम्पत्य प्रेम परिणय, वात्सल्य, कारुण्य को भी देखा जा सकता है। श्रीमती चौहान का आगमन छायावाद काल में हुआ। श्रीमती चौहान ने अपने को छायावादी प्रवृति से दूर रखा था। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं में नारी सुलभ ममता, सुकुमारता और करुणा की अभिव्यंजना हुई है जिसकी पुष्टि निम्न काव्यांश से की जा सकती है।

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी
नन्दन वन-सा फूल उठी वह छोटी-सी कुटिया मेरी
महाकवि आरसी प्रसाद सिंह के बारे में आलोचक का मानना है कि-“आरसी बाबू ध्वनि और लय के क्षेत्र में महाकवि पन्त जी से प्रभावित थे। ऐतिहासिक पात्रों और विषयों के सहारे वर्त्तमान की हक़ीक़त को लिखना आरसी प्रसाद सिंह की लेखनी की ख़ास विशेषता है।”
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि श्री रंग शाही ने अपने महाविद्यालयी अध्यापन, साहित्य-लेखन और आलोचना-कर्म के साथ पूरा न्याय किया है। बतौर आलोचक इनकी महत्ता और प्रतिष्ठा हमेशा बनी रहेगी, ऐसा मेरा मानना है।

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सहायक प्राध्यापक, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग, जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा (सारण)
संपर्क: 9931330923

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