डॉ श्रीरंग शाही : मेरी दृष्टि में
- रामचन्द्र विद्रोही
श्री शाही से मेरा सर्वप्रथम परिचय वर्ष 1983 में समाहरणालय, मुजफ्फरपुर के प्रांगण में हुआ था। वे मेरे अनन्य मित्र सहयोगी श्री राघवेन्द्र नारायण सिंह, ग्राम रोहुआ के बहुत करीबी थे। अक्सरहां वे उनसे मिलने समाहरणालय, मुजफ्फरपुर में आया करते थे। श्री शाही उस समय राम दयालु सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर में एक लाइब्रेरीएन के पद पर कार्यरत थे। श्री राघवेन्द्र बाबू की संगति में रहने के कारण कुछ ही हफ्तों में उनसे मेरी काफी घनिष्टता बढ गई, क्योंकि वे निराभिमानी, सरल-सीधा, मिलनसार एवं स्पष्टवादी व्यक्ति लगे। कोई वाह्याडम्बर नहीं था।
डॉ. श्रीरंग शाही आम लोगों के बीच शिक्षा प्रचार के पक्षधर थे। इसके लिए अपने ग्राम शाही मीनापुर के शिक्षित लोगों एवं विद्यार्थियों के बीच अधिकाधिक ज्ञान-वृद्धि हो, उन्होंने एक सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना की थी। सरकार एवं विदेशी दूतावासों के साथ पत्राचार कर उनसे पर्याप्त संख्या में पुस्तकें, सामग्रियों एवं अनुदान राशि प्राप्त किया करते थे ,जिससे उनका पुस्तकालय वर्ष 1964 तक बिहार के इनेगिने पुस्तकालयों में गिना जाने लगा था। वर्ष 1966 में सम्पूर्ण बिहार, राज्य की पुस्तकालयों में चालिस प्रतिशत पुस्तकालय सिर्फ मुजफ्फरपुर जिला में ही कार्यरत थे, जिसका सारा श्रेय श्री शाही की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन का था।
श्री शाही आधुनिक विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। वे कट्टरपंथी एवं रूढ़ीवादी नहीं थेः प्रत्युत क्रान्तिकारी एवं युगद्रष्टा थे। वे नारियों को आदर की दृष्टि से देखते थे। वे इस विचार के प्रबल पक्षधर थे- “यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।”
वे तो वैदिक काल की लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रयी से लेकर आधुनिक काल की सरोजनी नायडू, विजयालक्ष्मी पंडित एवं अरूणा आशिफ अली इत्यादि विदुषी नारियों के सदृश उस समय की नारियों को सदा बढने की प्रेरणा देते रहते थे।
वे सिर्फ कहते ही नहीं थे, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए शाही मीनापुर में ‘बालकन जी बाड़ी एवं महिला शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्र’ की स्थापना की। हजारों महिलाएँ प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षिकाएँ बनी।
सच तो यह है कि श्री शाही के जीवन का एकमात्र लक्ष्य महाकवि जय – शंकर प्रसाद की इन पंक्तियों में अन्तर्निहित था।
“औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ/ अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ।”
श्री शाही एक निर्भीक, ईमानदार व्यक्ति थे। वर्ष 1965 की एक घटना है। जब स्वतंत्रता दिवस के पुनीत अवसर पर मुजफ्फरपुर जिला के तत्कालीन समाहर्त्ता श्री बी०एन० सहाय, भा०प्र० से० द्वारा जो झण्डा समाहरणालय के प्रांगण में फहराया गया, वह कुछ दिनों के बाद फटा हुआ पाया गया। श्री शाही ने जब यह देखा, उन्होेंने तुरन्त राज्यपाल को श्री सहाय के विरूद्ध एक पत्र लिख भेजा। एक सप्ताह के अन्दर ही मुख्य सचिव, पटना से जॉच हेतु आ गए। श्री शाही और श्री सहाय की बातें सुनकर, मुख्य सचिव ने समाहर्त्ता महोदय को उनसे इस गलती के लिए क्षता मांगने का आदेश दिया। समाहर्त्ता ने श्री शाही से क्षमा उसी क्षण मांग ली। साथ ही यह भी कहा कि उन्हें जो त्रुटियां नजर आए, ध्यान सीधे आकृष्ट करें, नहीं सुधार होने पर ही उच्चाधिकारी को लिखें।
किन्तु युग कितना बदल चुका है। अब कोई भी पदाधिकारी किसी की शिकायत सुनना नहीं चाहता। क्यों, सुने? जब सरकार ही भ्रष्ट हो, तो फिर पूछना ही क्या? अब तो शासकगण ही घोटाला में लिप्त हैं, तो पदाधिकारियों का मनोबल क्यों न बढे। इसलिए तो दिन दहाड़े चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार एवं किसी को मार देने की आम बात हो गयी है तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन खतरे की बीच गुजर रहा है।
श्री शाही एक उग्र प्रकृति के व्यक्ति थे। वे किसी की चाटुकरता पसंद नहीं करते थे। वे सच्चाई के हिमायती थे। अवसर मिलते ही किसी की भी आलोचना करने से बाज नहीं आते थे। यही कारण था कि उनके कितने मित्र एवं सहयोगी उनसे रूष्ट रहा करते थे। किन्तु इसके साथ-साथ विद्यानुरागी एवं निराभिमानी थे। उन्हें अपनी मातृभाषा ‘बज्जिका’ से बेहद प्यार था। इस भाषा के विकास के लिए वर्ण 61/63 में ‘बज्जिका’ पत्रिका अपने सम्पादन में प्रकाशन कराकर सम्पूर्ण बज्जिाकांचल में तहलका मचा दिया और इस भाषा की ओर आमलोगों का सर्वप्रथम ध्यान आकृष्ट किया। बज्जिका के महाकवि एवं लेखक डॉ० अवधेश्वर अरुण, प्रो० हरेन्द्र सिंह ‘विपलव, रघुनाथ ‘विकल’, प्रो० उमाकान्त वर्मा, रमण शाण्डिलम, चन्द्रशेखर श्रीवास्तव इत्यादि लेखकों ने अपनी रचनाओं से
बज्जिका साहित्य की वृद्धि के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखी, जिसका सारा श्रेय डॉ० श्रीरंग शाही को ही जाता है।
श्री शाही हिन्दी एवं बज्जिका भाषा के एक सशक्त लेखक एवं आलोचक थे। उनकी रचनाएँ बज्जिका भाषा एवं हिन्दी भाषा की पत्रिकाओं में सर्वदा निकलती रहती थीं। लेखन के क्षेत्र में इनकी ख्याति थी कि संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा भी इन्हें सम्मानित किया गया था।
यह उल्लेखनीय है कि मनुष्य जब तक जीवित रहता है अपने गुण-दोषों एवं अच्छाईयों बुराईयों का जीता-जागता व्यक्तित्व लिए रहता है और अपने अभिनय से विविध विषयक रोमांच खड़ा कर सांसारिक नाटकों का एक पात्र बनकर लोगों के दिलो-दिमाग पर अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़कर चला जाता है। कालान्तर में वही अमिट छाप आम लोगों के लिए प्रेरणा का पाथेय बन जाता है। साथ ही उस व्यक्ति को अमर बना देता है। प्रश्नं यह नहीं उठता कि वह व्यक्ति अब मर गया है. बल्कि यह उठता है कि उस व्यक्ति ने अपने जीवन में क्या किया है? जो अपने लिए जीता है, वही मर जाता है और जो सदा दूसरों के लिए जीता है, वह मर कर भी जीता रहता है क्योंकि –
‘जिन्दगी गुजरने को गुजर जाती है दोस्तो
वो जिन्दगी भी क्या, जो याद करे न जमाना।”
श्री शाही का जीवन सबके लिए प्रेरणापद एवं मार्गदर्शन का कार्य करता रहेगा। सन्त-शिरोमणि सूरदास कहते हैं-
‘इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परो,
यह दुविधा पारस नहीं जानत, कंचन करत खरो।
कर्मयोगी यही पारस-वृत्ति अपना कर बिना भेदभाव के सबका भला करने की चेष्टा करता है।
अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा गीता में महावीर अर्जुन को दिए गए उपदेश को मैं दोहराता रहा हूँ –
‘देरी नित्यमवच्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचिततुमहांसि ।।२/३०।।
हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है।
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सुन्दर सदन (महावीर चौक) डुमरा पो.-सीतामढ़ी कोर्ट, सीतामढ़ी (बिहार)
